Monday, 19 September 2016

इतनी सी है तमन्ना इस जीवन की


कोई भी प्राकृतिक शक्ति जो जन्म-मृत्यु को संचालित-नियंत्रित करती होगी, उसने हमारा समय भी निर्धारित कर रखा होगा. मनुष्य कुछ स्थितियों, प्रस्थितियों को स्वयं बनाता, प्राप्त करता है. कुछ की प्राप्ति उसको पारिवारिकता के चलते प्राप्त होती है. कुछ स्थितियों का निर्माण उसके लिए समाज करता है. कुछ का निर्माण वही अदृश्य ताकत कर रही होती है जो जन्म-मृत्यु को नियंत्रित-संचालित कर रही होती है. जन्म-मरण के इस पूर्व-निर्धारित अथवा किसी शक्ति-संपन्न के द्वारा निर्धारित किये जाने की समझ न बना पाने के कारण, उस रहस्यमयी सत्ता की अनेक परतों को न सुलझा पाने के कारण ही मनुष्य उसे सर्वशक्तिमान समझता है. 

हाँ तो, उसी सर्वशक्तिमान, रहस्यमयी सत्ता की पूर्व-निर्धारित योजना के अनुसार हमको धरती पर अवतरित होना था, सो हो गए. हाहाहा, आपको अवतरित शब्द पढ़कर आश्चर्य लगा होगा, कहिये हँसी भी आई हो? भले ही आई हो पर यह हमारा अवतरण ही कहा जायेगा क्योंकि समूचे परिवार की विशेष माँग पर हमारा जन्म हुआ. किसी समय जमींदारी व्यवस्था से संपन्न क्षत्रिय परिवार के वर्तमान शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, स्नेहिल परिवेश में उस परिवार के असमय अदृश्य हो गए एक चमकते सितारे के उत्तराधिकार के रूप में हमको हाथों-हाथ लिया गया. हाथों-हाथ क्या, सभी ने अपनी पलकों पर बिठाया, अपनी साँसों में बसाया, अपनी धड़कनों में महसूस किया. हमारी एक-एक साँस समूचे परिवार की साँस बनी. हमारा आँख खोलना उनकी सुबह बनी तो पलक झपकाना उनकी हँसी बनी. हमारा रोने की कोशिश मात्र ही समूचे परिवार के लिए किसी प्रलय से कम नहीं होता.

परिवार का स्नेह, लाड़-प्यार 19 सितम्बर 1973 से जो मिलना शुरू हुआ, वह आजतक कम न हुआ. अपनत्व, ममत्व का सूखा कभी सोचने को भी नहीं मिला. छोटे भाईयों-बहिनों के लिए बड़े भाईजी के रूप में हम भले ही उनको संबल दिखाई पड़ते हों मगर अपने से हर बड़े के लिए वो नन्हा चिंटू हमेशा उतना ही छोटा रहा. यह सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता कि उम्र के चार दशक बीत जाने के बाद भी पारिवारिक स्नेह का ग्राफ कम होने के बजाय बढ़ता ही रहे. इस ग्राफ बढ़ने का कारण साल-दर-साल नए-नए रिश्तों का बनते-जुड़ते जाना भी रहा. परिवार में नए-नए सदस्यों का शामिल होना होता रहा, कभी दामादों के रूप में, कभी बहुओं के रूप में तो कभी भावी पीढ़ी के रूप में.

कामना उस रहस्यमयी सत्ता से, जिसने इस जन्म का निर्धारण इस परिवार में किया, कि यदि जन्म-मरण का चक्र सतत प्रक्रिया है तो वह सदैव इसी परिवार में जन्म को अनिवार्य रूप से निर्धारित कर दे. श्रीमती किशोरी देवी-श्री महेन्द्र सिंह सेंगर की संतान के रूप में ही हमारा जन्म अनिवार्य कर दे. 

Tuesday, 13 September 2016

हर बार रुला जाता है बुढ़वा मंगल


उस दिन बुढ़वा मंगल था. स्थानीय अवकाश होने के कारण विद्यालय, कार्यालय, कचहरी आदि में छुट्टी थी. पिताजी घर पर थे, छोटा भाई हर्षेन्द्र अपने कुछ मित्रों के साथ उरई के पास बने संकट मोचन मंदिर गया हुआ था. हम भी अपनी छुट्टी के चलते ग्वालियर नहीं गए थे. मंदिर वगैरह जाने का, बुढ़वा मंगल को होने वाला दंगल देखने का ऐसा कोई विशेष शौक न तो हमारा था और न ही हमारे मित्रों का. ऐसे में दोपहर को घर में ही आराम से पड़े थे. बात सन 1991 की है, तब हाथ में न तो मोबाइल होता था, न मेज पर कंप्यूटर और न ही इंटरनेट जैसा कुछ. सो किताबों से अपनी दोस्ती को सहज रूप से आगे बढ़ा रहे थे. 

तभी किसी ने दरवाजे को बहुत जोर-जोर से पीटना शुरू किया. साथ में वो व्यक्ति पिताजी का नाम लेता जा रहा था. दरवाजा पीटने की स्थिति से लग रहा था कि उसे बहुत जल्दी है. हम शायद जोर से चिल्ला बैठते मगर उसके द्वारा पिताजी का नाम बार-बार, चिल्ला-चिल्ला कर लेते जाने से लगा कि कोई ऐसा है जो उम्र में पिताजी से बड़ा है. जल्दी से उठकर दरवाजा खोला तो सामने गाँव के द्वारिका ददा हैरान-परेशान से खड़े थे. इतनी देर में अन्दर से पिताजी भी बाहर आ गए. चाचा की तबियत बहुत ख़राब है. ददा के मुँह से इतना ही निकला.

कहाँ हैं? के सवाल पर उनका हाथ पास के क्लीनिक की तरफ उठा. हमने बिना कुछ आगे सुने, उस तरफ पूरी ताकत से दौड़ लगा दी. बमुश्किल सौ मीटर की दूरी पर बने उनके क्लीनिक के सामने एक जीप खड़ी थी और गाँव के कुछ लोग. हमने जल्दी से जीप के पीछे वाले हिस्से में चढ़कर देखा, बाबा चादर ओढ़े लेते हुए थे.

बाबा, बाबा हमारी आवाज पर कोई हरकत नहीं हुई. तब तक पिताजी, अम्मा भी आ गए. डॉक्टर ने जीप में अन्दर जाकर बाबा को देखा और नकारात्मक मुद्रा में सिर हिला दिया. अम्मा-पिताजी, हमारी और गाँव के बाकी लोगों की आँखों में पानी भर आया. फिर से देखने के आग्रह के बाद डॉक्टर ने दोबारा जाकर जाँच की और जीप से उतर कर फिर वही जवाब दिया.

एक झटके में लगा जैसे समूचा परिवार ख़तम हो गया. अइया गाँव में ही थीं. रोने-बिलखने के बीच बाबा की पार्थिव देह को गाँव ले जाने की ही सलाह पिताजी को दी गई. मोहल्ले के कुछ लोगों को खबर दी गई. समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये. तब दूरसंचार सुविधा भी आज के जैसी अत्याधुनिक नहीं थी. तीनों चाचा लोग दूर थे, उनको कैसे खबर दी जाए, पिताजी इस सोच में थे. टेलीफोन से, तार से, जाकर जैसे भी हो उनको खबर दी जाए, इसकी जिम्मेवारी मोहल्ले के लोगों ने ले ली. 

17 सितम्बर 1991, दिन मंगलवार, बुढ़वा मंगल, हम लोग उसी जीप में बैठकर बाबा की देह को लेकर गाँव चल दिए. वे बाबा जो उसी सुबह तक लगभग 75-76 वर्ष की उम्र में पूरी तरह स्वस्थ, तंदरुस्त, सक्रिय थे और अचानक हम सबको छोड़कर चले गए. काम करने के दौरान सुबह दीवार से सिर टकरा जाने, गाँव के नजदीक के कस्बे माधौगढ़ में प्राथमिक उपचार के बाद उरई लाया गया. जहाँ वे बिना किसी तरह की सेवा करवाए इस निस्सार संसार में हम सबको अकेला कर गए.

जमींदार परिवार से होने के बाद भी बाबा जी ने अपने समय में बहुत कठिनाइयों का सामना किया. पढ़ाई के समय भी संघर्ष किया. आज़ादी की लड़ाई में खुलकर भाग भले न लिया हो पर आन्दोलनों में भागीदारी की. एकबार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का प्रमाण-पत्र बनवाने का मौका आया तो ये कहकर मना कर दिया कि उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया कि उन्हें सेनानी कहा जाये. बाबा जी से बहुत कुछ सीखने को मिला. मेहनत, आत्मविश्वास, कर्मठता, निर्भयता, जोश, जीवटता, सकारात्मक सोच आदि-आदि गुणों का जो क्षणांश भी हममें मिलता है वो उनकी ही देन है. आज कई वर्ष हो गए उनको हमसे दूर हुए मगर ऐसा लगता है जैसे वो बुरा वक्त कल की ही बात हो. बुढ़वा मंगल हर बार रुला जाता है.

Saturday, 23 July 2016

आँखों के रास्ते वो दिल में उतर गई

रात का समय, घड़ी नौ से अधिक का समय बता रही थी. झमाझम बारिश हो जाने के बाद हल्की-हल्की फुहारें अठखेलियाँ करती लग रही थीं. स्ट्रीट लाइट के साथ-साथ गुजरते वाहनों की हेडलाइट भी सड़क को जगमग कर रही थी. गीली सड़क पर वाहनों और लोगों की आवाजाही के बीच मद्धिम गति से चलती बाइक पर फुहारों का अपना ही आनंद आ रहा था. घर पहुँचने की अनिवार्यता होते हुए भी पहुँचने की जल्दबाजी नहीं थी. दोस्तों का संग, हँसी-ठिठोली के बीच समय भी साथ-साथ चलता हुआ सा एहसास करा रहा था. सड़क किनारे एक दुकान के पास बाइक रुकते ही उतरा जाता उससे पहले उससे नजरें मिली. चंचलता-विहीन आँखें एकटक बस निहार रही थी. आँखों में, चेहरे में शून्य सा स्पष्ट दिख रहा था.  चेहरा-मोहरा बहुत आकर्षक नहीं था. कद-काठी भी ऐसी नहीं कि पहली नजर में ध्यान अपनी तरफ खींचती. आँखों में भी किसी तरह का निवेदन नहीं, कोई आग्रह नहीं, कोई याचना नहीं. इसके बाद भी कुछ ऐसा था जो उसकी नज़रों से अपनी नज़रों को हटा नहीं सका. ऐसा क्या था, उस समय समझ ही नहीं आया. 

बाइक से उतर कर खड़े होते ही वो उन्हीं नज़रों के सहारे नजदीक चली आई. चाल रुकी हुई सी थी मगर अनियमित नहीं थी. आँखों में बोझिलता थी मगर सजगता साफ़ झलक रही थी. चेहरे पर थकान के पर्याप्त चिन्ह थे मगर कर्मठता में कमी नहीं दिख रही थी. एकदम नजदीक आकर भी उसने कुछ नहीं कहा. अबकी आँखों में हलकी सी चंचल गति समझ आई. एक हाथ से अपने उलझे बालों की एक लट को अपने गालों से हटाकर वापस बालों के बीच फँसाया और दूसरे हाथ में पकड़े कुछेक गुब्बारों को हमारे सामने कर दिया. 

बिना कुछ कहे उसका आशय समझ आ गया. उस लड़की का आँखों ही आँखों में गुब्बारे खरीदने का अंदाज दिल को छू गया. गुब्बारे जैसी क्षणिक वस्तु बेचने का रिस्क और उस पर भी कोई याचना जैसा नहीं. कोई अनुरोध जैसा नहीं बस आँखों की चंचलता. उस चंचलता से झाँकता आत्मविश्वास जैसा कुछ. उस लड़की के हाव-भाव ने, आँखों की चपलता ने प्रभावित किया. लगा कि उसकी मदद की जानी चाहिए किन्तु घर जाने की स्थिति अभी बनी नहीं थी. मन में घुमक्कड़ी का भाव-बोध हावी था. मौसम भी आशिकाना रूप में साथ-साथ चल रहा था. इस कारण गुब्बारे न ले पाने की विवशता ने अन्दर ही अन्दर परेशान किया.

उस लड़की की दृढ़ता और एकबार पुनः गुब्बारों की तरफ देखने के अंदाज़ ने दोस्तों को भी प्रभावित सा किया. जेब में गया हाथ चंद रुपयों के साथ बाहर आया. भाव उभरा कि घर न जाने के कारण हम गुब्बारे नहीं ले पा रहे हैं पर ये कुछ रुपये रख लो. उस लड़की ने रुपयों की तरफ देखे बिना ऐसे बुरा सा मुँह बनाया जैसे उसे रुपये नहीं चाहिए बस गुब्बारे ही बेचने हैं. अबकी आँखों में कुछ अपनापन सा उभरता दिखाई दिया. उसके होंठों पर एक हल्की सी, न दिखाई देने वाली मुस्कराहट क्षण भर को उभरी और गायब हो गई. आँखों और होंठों की समवेत मुस्कराहट में गुब्बारे खरीद ही लेने का अनुरोध जैसा आदेश सा दिखा. हम दोस्तों ने अपने आपको इस मोहजाल से बाहर निकालते हुए गुब्बारे खरीद लिए. गुब्बारों के बदले रुपये लेते उभरी उस मुस्कान ने, आँखों की चमक ने, चेहरे की दृढ़ता ने, उसके आत्मसम्मान ने उसके प्रति आकर्षण पैदा किया.

आँखों आँखों में बने रास्ते पर चलकर नजदीक आई उस लड़की ने हमारे कुछ सवालों पर अपने होंठों को खोला. पता चला कि उस जगह से लगभग पन्द्रह किमी दूर उसका घर है. बड़े से शहर से दूर ग्रामीण अंचल तक उसे अकेले जाना है. कोई उसके साथ नहीं है. अकेले का आना, अकेले का जाना, सुबह से देर रात तक सिर्फ गुब्बारे बेचना, पूरे दिन में सत्तर-अस्सी रुपयों को जमा कर लेना, पेट की आग शांत करने के कारण पढ़ न पाना, चंद मिनट में उसने रुक-रुक कर बहुत कुछ बताया. उम्र, कर्मठता, जिम्मेवारी और आत्मविश्वास के अद्भुत समन्वय में फुहारों में भीगती शबनमसुबह की बजाय रात को जगमगा रही थी. 

बाइक पर चढ़कर जाते समय गीली सड़क पर खड़ी बारह-तेरह वर्ष की वो बच्ची एकाएक प्रौढ़ लगने लगी. उसके नाजुक हाथों में गुब्बारे की जगह जिम्मेवारियाँ दिखाई देने लगी. स्ट्रीट लाइट और गाड़ियों की लाइट से उसका चेहरा चमक रहा था. लोगों के लिए इस चमक का कारण स्ट्रीट लाइट और गाड़ियों की लाइट हो सकती थी मगर हमारी निगाह में वो चमक उसकी कर्मठता की, उसके आत्मविश्वास की थी.

Friday, 22 April 2016

ऐसी दोस्ती, ऐसा दोस्त हर जन्म में मिले

दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जो अनाम सम्बन्ध के द्वारा सदैव आगे बढ़ता रहता है. ये हमारी खुशकिस्मती ही है कि हमें दोस्तों का, सच्चे दोस्तों का, भरोसेमंद दोस्तों का साथ खूब मिला है. ख़ुशी में भी दोस्त हमारे साथ रहे हैं और मुश्किल में तो और भी ज्यादा साथ आये हैं. उस समय भी ऐसी ही मुश्किल घड़ी थी पूरे परिवार के सामने. एक माह का समय और दो बड़ी दुर्घटनाएँ. 16 मार्च पिताजी का देहांत और फिर अगले माह 22 अप्रैल हमारी दुर्घटना. ट्रेन से दुर्घटना, एक पैर का स्टेशन पर ही कट जाना, दूसरे पैर का बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाना. घायल होने के बाद भी दिमाग में अम्मा, छोटे भाईयों, पत्नी, सभी परिजनों के चेहरे उभरते. कभी लगता कि एक और बुरी खबर घर पहुँचेगी फिर हिम्मत करते और जल्द से जल्द कानपुर पहुँचने की बात सोचने लगते. 

घर में सिर्फ चाचा को खबर की और कानपुर अपने जीजा जी श्री रामकरन सिंह को. रास्ते में भागती कार के साथ ख्याल आया कि आज शुक्रवार है कहीं ऐसा न हो कि रवि आज ही उरई आ जाये. रवि हमारा दोस्त, जो कानपुर में हड्डी रोग विशेषज्ञ है और उस समय प्रति शनिवार-रविवार उरई आया करता था, एक नर्सिंग होम में मरीज देखने. रवि को फोन करके पूरी स्थिति से अवगत कराया. दुर्घटना के पहले दिन से लेकर आज तक हमारे पैर की एक छोटी से छोटी समस्या से लेकर बड़ी से बड़ी परेशानी का इलाज सिर्फ और सिर्फ रवि के द्वारा ही होता है.

उस समय तो ऐसी स्थिति थी नहीं कि कोई कुछ कहता-सुनता क्योंकि कानपुर में हमारे साथ हमारा छोटा भाई और उसके दो-तीन मित्र साथ आये थे तथा कानपुर में जीजा जी, जिज्जी, बृजमोहन भैया. बाद में जिसने भी सुना उसने आश्चर्य जताया कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी हमने रवि पर विश्वास किया, उसको इलाज के लिए आगे किया. ये विश्वास किसी डॉक्टर से अधिक अपने दोस्त पर था. वो दोस्त जिसके साथ बचपन गुजरा, जिसके साथ झगड़े भी हुए, जिसके साथ खेले-कूदे भी, जिसके साथ पढ़ाई की, जिसके साथ हँसी-मजाक किया. विश्वास था कि वो दोस्त जो अब डॉक्टर है वो हमारे साथ गलत नहीं होने देगा. दोस्ती का, दोस्त का विश्वास ही है कि हम आज चल पा रहे हैं. दुर्घटना वाली शाम जो कानपुर पहुँचते-पहुँचते रात में बदल गई थी. रवि के कारण हॉस्पिटल में सारी व्यवस्थायें पहले से तत्परता से काम करने में लगी थी.

उस रात ऑपरेशन थियेटर का दृश्य आज भी दिमाग में कौंधता है. रवि से अपने कटे पैर को ऑपरेशन करके लगाने की बात कहना, उसका कहना कि तुमको चलाने से ज्यादा हमारे लिए जरूरी है तुमको बचाना. घर-परिवार की, अम्मा, भाईयों, पत्नी आदि की न जाने कितनी-कितनी जिम्मेवारियाँ रवि के कंधों पर डालते हुए जैसे बहुत इत्मीनान सा मिला था. स्पाइनल कॉर्ड के जरिये इंजेक्शन लगाकर आगे का इलाज होना था. उसके पहले की तमाम बातें हम रवि से कर लेना चाहते थे क्योंकि एक वही ऐसा दिख रहा था जिससे दिल की सभी बातें की जा सकती थीं. उस रात शुरू हुआ इलाज कितनी-कितनी बार ऑपरेशन टेबल से गुजरा. न जाने कितने-कितने इंजेक्शन रवि की निगरानी में, मुस्तैद निगाहों के बीच से गुजर कर हमारे शरीर में लगे. ऑपरेशन थियेटर में बिना रवि के किसी का एक कदम भी हमारी तरफ न बढ़ता. बेहोशी का इंजेक्शन बहुत देर असरकारी न रहता और रवि बहुत ज्यादा डोज देना नहीं चाहता था. ऐसे में चीखते-चिल्लाते उसकी हथेलियों का स्पर्श जैसे दर्द को कम कर देता था. उसका आश्चर्य भरा एक सवाल बार-बार होता कि क्यों बे, क्या कोई नशा करते हो? हर बार मुस्कुराकर हमारा इंकार होता और उसका भी इंकार इस रूप में कि तुम झूठ बोल रहे हो.

पता नहीं संसार को संचालित करने वाली परम सत्ता हमारी आंतरिक शक्ति का इम्तिहान ले रही थी या फिर भविष्य के दर्द सहने की आदत डलवा रही थी जो कुछ मिनटों की संज्ञाशून्यता के बाद फिर होशोहवास में ला देती थी. उसी स्थिति ने उस संसार का दूसरा रूप भी दिखाया, जहाँ खुद अपने कानों सुना कि डॉक्टर साहब, यदि ये आपके मित्र न होते तो इससे कम से कम दस लाख रुपये बनाते. बहरहाल, वो उनका अपना व्यवसाय था और हमें विश्वास था कि हम अपने दोस्त के साये में हैं तो कुछ भी गलत नहीं होगा. ये रवि जैसे दोस्त का साथ था जिसने ज़िन्दगी को तो बचाया ही लम्बी अवधि के इलाज के बाद भी जेब पर डाका नहीं पड़ने दिया.

इलाज के दौरान न जाने कितनी बार बहुत छोटी सी लापरवाही पर हॉस्पिटल के स्टाफ को डांट उसके द्वारा पड़ी. रवि ने खुद न जाने कितने-कितने डॉक्टर्स से संपर्क किया, अपने कई सीनियर्स को बुलाकर उनसे सलाह ली मगर हमें एक दिन को भी अकेला न छोड़ा. क्या दिन, क्या रात, क्या सुबह, क्या शाम, क्या व्यक्तिगत आकर, क्या फोन से जैसे चाहे वैसे उसने अपने आपको हमारे आसपास बनाये रखा.

हॉस्पिटल में ऐसा लग रहा था कि जितनी जल्दी हमें ठीक होने की थी, उससे कहीं ज्यादा जल्दी रवि को हमारी रिकवरी की थी, हमारी आंतरिक शक्ति को, आत्मविश्वास को और बढ़ाने की थी. हर दिन कुछ न कुछ सुधारात्मक स्थिति को अपनाया जाता. न जाने कितनी बार ऑपरेशन थियेटर ले जाया जाता, न जाने कितनी बार सर्जरी की जाती, न जाने कितनी बार अन्य दूसरे तरीके अपनाये जाते. एक महीने हॉस्पिटल और फिर दो माह मामा जी के यहाँ रुकने के दौरान रवि की उपस्थिति बराबर रही. एक-एक पहलू पर गंभीरता से निगाह रहती उसकी. एक-एक स्थिति पर सतर्कता दिखाई देती. अंततः तीन महीने के कानपुर चिकित्सकीय प्रवास के बाद उरई आने के पहले रवि ने एक पैर पर सहारा देकर खड़ा करवा ही दिया. न कोई चक्कर, न कोई कमजोरी, न कोई परेशानी.


उरई आने के बाद भी उसका संपर्क बराबर बना हुआ था. शनिवार-रविवार आने पर तो उसका घर आना होता ही था. क्या, कैसे और बेहतर हो सकता है, इस बारे में भी उसकी चिंता दिखाई देती. एक साल बाद कृत्रिम पैर लगवाने में भी उसकी राय को वरीयता दी गई. कानपुर एलिम्को की मदद से कृत्रिम पैर के द्वारा चलना शुरू किया गया. दर्द, समस्या, परेशानी, दाहिने पंजे से हड्डियों के टुकड़ों का बाहर निकल आना, ऑपरेशन, ड्रेसिंग, इलाज आदि से मुक्ति अभी भी न मिल सकी थी. रवि को भी मुक्ति न मिली थी. आज स्थिति में बहुत सुधार है. अब पंजे की हड्डियाँ टूटकर बाहर नहीं आती, मुड़ी उंगलियाँ अब चलने में दिक्कत न करती, दर्द की तीव्रता से ध्यान हटाकर उसे कम सा कर लिया है तब भी समस्याओं का समाधान रवि ही बनता है. इसके बाद भी मिलने पर उसको हम दोस्तों की टीका-टिप्पणी हमसे ही सुननी पड़ती है कि अबे, आता भी कुछ या ऐसे ही डॉक्टरी दिखाते फिरते हो? काश! ये दोस्ती हर जन्म में मिले, सबको मिले. 

Wednesday, 20 April 2016

फिर जिन्दा होकर लौटा हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में


उस दिन सब कुछ सपने के जैसा गुजर गया मगर वो सपना नहीं था. एक पल में जाने कितनी ज़िंदगियाँ, न जाने कितनी मौतें एकसाथ आँखों के सामने कौंध गईं. बार-बार झपकती आँखें, रह-रह कर टूटती साँसें और फिर साँसों को न टूटने देने की जिद, आँखों को खोले रखने के हठ के बीच कुछ भी नहीं हुआ है का भरोसा देता हमारा खुद का अक्खड़पन. बिखरते हुए को समेटने का लगातार प्रयास, नम आँखों में हँसी भरने की कोशिश, सबको अपने अंक में भर लेने की कामना, दौड़कर सबसे लिपट जाने की चाहना. जैसे कुछ हुआ ही न हो का भरोसा बनाये रखना था, कई-कई जिन्दगानियों में ज़िन्दगी का रंग सजाये रखना था, अपनी हठ, अपनी जिद, अपने अक्खड़पन को विजयी बनाये रखना था. 

आखिर में लगा कि ज़िन्दगी वो नहीं जिसे आप अपनी साँसों के सहारे गुजार दें. ज़िन्दगी तो वो है जिसे लोग आपकी साँसों के सहारे जी सकें. और इसी कारण मन गुनगुना बैठा था

फिर जिन्दा होकर लौटा हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..

अपनों को जाते देखा है,
गैरों को आते देखा है,
दुःख की तपती धूप है देखी,
सुख का सावन देखा है,
सतरंगी मौसम लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..

जीवन से जो जीत गया,
मौत को उसने जीता है,
कर्म हो जिसका मूल-मंत्र,
वह जीवन-पथ पर जीता है,
जीवन-विजय सिखाने आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..

जीते कभी समुन्दर से,
कभी एक बूँद से हार गये,
उड़े आसमां छूने को,
पहुँच आसमां पार गये,
चाँद-सितारे लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..



Monday, 21 March 2016

उन बच्चों के लिए बुरा बनना भी सही लगा


संस्कार, कार्यप्रणाली सोच विरासत में मिलती है या नहीं इसके बारे में बहुत अनुभव नहीं है मगर हमारे स्वभाव में, व्यक्तित्व में बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे अन्दर स्वतः ही जन्मा. ऐसे लक्षणों के लिए हमें प्रयास नहीं करने पड़े. बिना प्रयास ऐसे गुणों का, लक्षणों का प्रकट होना बताता है कि ये जन्म से आये होंगे या फिर पारिवारिक संस्कारों के चलते विरासतन हस्तांतरित हो गए. समय के साथ इन गुणों में कमी तो नहीं आई वरन वृद्धि ही होती रही. ऐसे ही गुणों में से एक को जरूरतमंदों की, मजबूर लोगों सहायता करने के रूप में देखा-समझा जा सकता है. उस समय भी जबकि जेबखर्च के नाम पर गिनी-चुनी पूँजी जेब के अन्दर आती थी. उसी अल्पराशि में हॉस्टल के मैस का शुल्क, दूध, चाय आदि सहित अन्य खाद्य सामग्री, मासिक स्टेशनरी आदि के खर्चों के बाद इतना बचना संभव नहीं हो पाता कि किसी जरूरतमंद की सहायता की जा सके. इसके बाद भी दिल-दिमाग में जूनून सा रहता था कि कुछ न कुछ उन बच्चों के लिए करना है. 

वे बच्चे सड़क पर टहलने वाले, भीख माँगने वाले नहीं थे. वे ऐसे बच्चे थे जो अपनी दुनिया को सिर्फ सुन सकते थे. अपनी हथेलियों, अपनी नाक के सहारे दुनिया को महसूस करते थे. वे थे हॉस्टल के सामने बने अंध विद्यालय के नेत्रहीन बच्चे. हॉस्टल से निकलते ही सामने सड़क पार अंध आश्रम दिखाई देता था. एक दिन अचानक ही उसमें जाना हुआ. दुनिया की अंधी चकाचौंध से बहुत दूर वे बच्चे अपनी ही दुनिया में मगन थे. उनकी हालत देख, उनके रहने के ढंग को देख, उनकी जरूरत, उनकी इच्छाओं को देख मन रो पड़ा. अचानक से अपनी मौज-मस्ती बेकार सी लगने लगी. संवेदनाओं से खुद ही लड़ते हुए मन ही मन उनके लिए कुछ करने का विचार किया. इस विचार के साथ खुद अपनी पढ़ाई का बोझ, कम से कम खर्च में महीने का बजट बनाये रखने की जिम्मेवारी के बीच उनकी मदद करना पहाड़ उठाने जैसा लगा. उस दिन तो बस कुछ सहायता खाने-पीने की कर दी, वो भी अपने मन को बहलाने की खातिर. उसके बाद कई दिन, कई रात मन में उथल-पुथल मची रही. उन नेत्रहीन बच्चों के लिए कुछ न कर पाने की विवशता आँखों से अनेक बार बह निकलती. अंततः एक रास्ता सूझा, जो एकबारगी को गलत कहा जा सकता था किन्तु कुछ अच्छा करने बुरा बनना मंजूर किया.

एक-दो विश्वसनीय मित्रों से चर्चा की और फिर पूरी तैयारी के साथ अपने काम को अंजाम दिया. हॉस्टल के सामने से गुजरती अति-व्यस्त आगरा-बॉम्बे रोड पर आंशिक कब्ज़ा किया गया. गुजरने वाले ट्रकों से हॉकी, डंडों, गालियों, तमाचों के बल पर कुछ मिनटों की वसूली हुई. दस-दस, बीस-बीस रुपयों की कुछ-कुछ पूँजी से एक बड़ी रकम इकठ्ठा हुई. इससे अंध आश्रम के उन बच्चों की दुनिया की इच्छाओं का कुछ भाग पूरा किया गया. इस तरह की धन-उगाही के साथ-साथ वहाँ संचालित एक-दो पेट्रोल पम्प, शराब की दुकानों आदि का भी सहारा लिया गया. कभी निवेदन करके, कभी डरा-धमका कर. इन सबका एकमात्र उद्देश्य था नेत्रहीन बच्चों की सहायता के लिए धन एकत्र करना. यह आन्तरिक आक्रोश का स्वाभाविक प्रस्फुटन था जो मदद न करने की पीड़ा से उपजा था.

यह काम नित्य का कार्य न बनाया गया क्योंकि कहीं न कहीं यह भी लग रहा था कि यह गलत तो है ही. ऐसी गलती कभी-कभार कर ली जाती रही मगर महीने-दो-महीने में अपने मासिक बजट से कुछ न कुछ मदद की जाती रही. अपने हिस्से की आवश्यकताओं में कटौती करते हुए उन बच्चों की इच्छाओं का ध्यान रखा गया. हाँ, कभी-कभी अत्यावश्यक होने पर अधिक धनराशि के लिए दोस्तों, हॉकी, डंडों, गालियों, तमाचों का सहारा लिया जाता और सड़क से गुजरते ट्रक इनका निशाना बनते रहे.  

एक दर्द जो कॉलेज टाइम में महसूस किया था वो आज भी महसूस किया अपने भीतर. सीधा सा अर्थ है कि भीतर का इंसान मरा नहीं है अभी तक.

Saturday, 19 March 2016

खट्टे-मीठे एहसास भरा समय


कभी-कभी समय भी परिस्थितियों के वशीभूत अच्छे-बुरे का खेल खेलता रहता है. अनेक मिश्रित स्मृतियों का संजाल दिल-दिमाग पर हावी रहता है. सुखद घटनाओं की स्मृतियाँ क्षणिक रूप में याद रहकर विस्मृत हो जाती हैं वहीं दुखद घटनाएँ लम्बे समय तक अपनी टीस देती रहती हैं. मनुष्य का स्वभाव सुख को जितना सहेज कर रखने का होता है, सुख उतनी ही तेजी से उसके हाथ से फिसलता जाता है. इसके उलट वह दुःख से जितना भागना चाहता है, दुःख उसके भागने की रफ़्तार से कहीं तज दौड़ कर इन्सान को दबोच लेता है. दुःख की एक छोटी सी मार सुख की प्यार भरी लम्बी थपकी से कहीं अधिक तीव्र होती है. कई बार दुखों की तीव्रता सुखों से भले ही बहुत कम हो पर इंसानी स्वभाव के चलते छोटे-छोटे दुखों को भी बहुत बड़ा बना लिया जाता है. हाँ, कुछ दुःख ऐसे होते हैं जिनकी पीड़ा और टीस किसी भी सुख से कम नहीं होती है, नियंत्रित नहीं होती है. 

वर्ष 2005 भी ऐसी ही मिश्रित अनुभूति लेकर आया. इस अनुभूति में समय ने वह खेल दिखाया जिसका असर पूरी ज़िन्दगी रहेगा, पूरी ज़िन्दगी पर रहेगा. सुखों और दुखों के तराजू में दुखों का पलड़ा इतना भारी हुआ कि ज़िन्दगी भर के सुख भी उसे हल्का नहीं कर सकेंगे. मार्च ने हमारे सिर से पिताजी का साया छीन कर इस दुनिया में अकेला खड़ा कर दिया. परिवार की अनपेक्षित जिम्मेवारी एकदम से कंधे पर आ गई. अभी अपनी जिम्मेवारियों को, पारिवारिक दायित्वों का ककहरा भी न सीख सके थे कि अप्रैल ने ज़िन्दगी भर के लिए हमें दूसरे पर निर्भर कर दिया. कृत्रिम पैर के सहारे, छड़ी के सहारे, किसी न किसी व्यक्ति के सहारे. यह और बात है कि आत्मविश्वास ने इन सहारों पर निर्भर रहते हुए भी इन पर निर्भर सा महसूस न होने दिया.

दुर्घटना के बाद कानपुर में चिकित्सकीय सुविधाओं का लाभ लेते हुए अनेक तरह के अनुभव हुए. अपनों का बेगानापन दिखा, बेगानों ने जबरदस्त अपनापन दिखाया. केएमसी में भर्ती रहने के दौरान उरई से मिलने-देखने वालों का ताँता लगा रहा. वहाँ एक निश्चित समय बाद मरीज से मिलने के लिए पचास रुपये का टोकन बनता था, एक घंटे के लिए. किसी दिन रिसेप्शन पर मिलने को लेकर उरई से पहुँचे हमारे एक परिचित की किसी बात पर कहा-सुनी हो गई. उन्होंने नाराज होते हुए रिसेप्शनिष्ट के सामने दस हजार रुपये पटकते हुए कहा कि सारे रुपयों के टोकन बना दो किन्तु किसी को मिलने से रोका न जाये.

लोगों का स्नेह हमसे मिलने मात्र को लेकर ही नहीं था. पहले दिन से लेकर वहां भर्ती रहने तक छब्बीस यूनिट ब्लड की आवश्यकता हमें पड़ी. पहले दिन की चार यूनिट ब्लड को छोड़ दिया जाये तो शेष ब्लड उरई से आकर लोगों ने दिया. हमने अपने सामाजिक जीवन के सामाजिक कार्यों के अपने अनुभव में स्वयं महसूस किया है कि एक-एक यूनिट ब्लड की प्राप्ति के लिए रक्तदाताओं की बड़ी समस्या आती है. लोगों का हमारे प्रति स्नेह, प्रेम, विश्वास ही कहा जायेगा कि इतनी बड़ी संख्या में फ्रेश ब्लड हमें उपलब्ध हुआ. चूँकि एक दिन में सिर्फ दो यूनिट ब्लड हमें चढ़ाया जाता था, इस कारण लोगों को रक्तदान के लिए रोकना पड़ रहा था, समझाना पड़ रहा था.

केएमसी की व्यवस्था देखने वाले एक डॉक्टर साहब प्रतिदिन सुबह-शाम हमसे मिलने आया करते थे. तमाम सारी बातों, हालचाल के साथ-साथ वे एक सवाल निश्चित रूप से रोज पूछते थे कि कुमारेन्द्र जी, आप उरई में करते क्या हैं, जो मिलने वालों की इतनी भीड़ आती है? उनका कहना था कि अपनी लम्बी मेडिकल सेवा में मैंने किसी को इतना फ्रेश ब्लड मिलते नहीं देखा है. ऐसा पहली बार हुआ है कि ब्लड डोनेट करने वालों को रोकना पड़ रहा है.

हम तब भी नहीं समझ सके थे कि वास्तव में हमने किया क्या है? वास्तव में हम करते क्या हैं? क्यों इतने लोग हमें देखने आ रहे हैं? क्यों इतने लोग हमें अपना रक्तदान कर बचाने आ रहे हैं? यह बात तब भी न हम खुद समझ सके थे, न उन डॉक्टर साहब को समझा सके थे. न ही आज समझ सके हैं, न ही आज भी समझा सकते हैं. न कोई पद, न कोई दायित्व, न कोई नौकरी, न कोई व्यापार, न धनवान, न राजनीतिज्ञ पर नगरवासियों का, जनपदवासियों का यही अपार स्नेह हमारे लिए संजीवनी बना. इसी संजीवनी ने एक माह पहले परिवार पर आये विकट संकट में भी खड़ा रहने का साहस प्रदान किया. इसी संजीवनी ने अपनों के बेगानेपन को भुलाने में अपनी भूमिका अदा की. इसी संजीवनी शक्ति ने आर्थिक समस्या में घिरे होने के बाद भी आर्थिक संबल प्रदान किया. इसी संजीवनी ने तमाम सारे दुखों को कम करने की ताकत दी, उनसे लड़ने का हौसला दिया.

समय के साथ दुःख कम होते जाते हैं. उनकी टीस कम होती जाती है. दो-दो कष्टों को सहने वाले परिवार को समय कुछ मरहम लगाना चाहता था. वर्ष 2005 अपने माथे पर सिर्फ कष्टों का कलंक लगवाकर विदा नहीं होना चाहता था. तभी जाते-जाते उसने दिसम्बर में एक छोटी सी ख़ुशी हमारे माध्यम से परिवार को दी. हम जो काम कभी भी नहीं करना चाहते थे, उसी अध्यापन कार्य का नियुक्ति-पत्र मिला. जिस महाविद्यालय में दो-दो बार हमारी नियुक्ति को रुकवाया, रोका गया हो उसी महाविद्यालय ने हमें अपने यहाँ अध्यापन कार्य करने हेतु नियुक्ति-पत्र निर्गत किया. अध्यापन के प्रति इसी प्रकार की रुचि न होने के कारण हमने सिरे से इस प्रस्ताव को नकार दिया. घरवालों के अपने तर्क थे. बिना एक पैर, चलने-फिरने, बाहर बिना सहारे निकलने में हमारी असमर्थता को इसी बहाने दूर होने का बहाना बताया गया. दो-चार महीनों में अध्यापन कार्य छोड़ देने के हमारे पिछले रिकॉर्ड के कारण भी सबने विश्वास जताया कि चंद महीने ही करोगे इस काम को, कर लो जब तक मन लगे.

अंततः पारिवारिक तर्कों, दबावों के चलते देश की ऐतिहासिक तिथि 06 दिसम्बर 2005 को हमने भी अपनी नियुक्ति को ऐतिहासिक बना दिया. ऐतिहासिक इस रूप में कि दो बार इस अध्यापन कार्य को छोड़ने के बाद भी अद्यतन गाँधी महाविद्यालय, उरई के हिन्दी विभाग में मानदेय प्रवक्ता के रूप में कार्यरत हैं. आगे कब तक ये सेवा होगी, पता नहीं. अभी तो वर्ष 2005 के तमाम कष्टों-दुखों को याद करते हुए इस दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं. 



Thursday, 17 March 2016

बहते आँसुओं के बीच


शाम को पिताजी के अभिन्न मित्र, हमारे पारिवारिक सदस्य दादाका आना हुआ, साथ में दो-चार और लोग भी. आते ही पिताजी की तबियत के बारे में जानकारी की. उनके जानकारी करने ने जैसे उन सभी संदेहों को मिटा दिया जो सुबह से दिमाग में उथल-पुथल मचाये हुए थे. आँसू भरी आँखों और भरे गले से इतना ही पूछ पाए, पिताजी को क्या हुआ? दादा ने जो स्नेहिल हाथ हमारे सिर पर फिराया वो आज तक बरक़रार है. बिना किसी के कुछ कहे सब स्पष्ट हो गया, मतलब दोपहर बाद से जो दिलासा दी जा रही थी वो सब सिर्फ तसल्ली देने के लिए थी. वो डरावनी शाम कैसे आँसुओं भरी रात में बदली आज भी समझ नहीं आया. लोगों का आना-जाना, समझाना और हमारा पूरा ध्यान अपनी जिम्मेवारियों पर, अपनी अम्मा पर, अपने दोनों छोटे भाईयों पर, जो पिताजी के पास पहुँचने को सुबह ही निकल चुके थे. अम्मा ने कैसे अपने को संभाला होगा? दोनों भाइयों ने कैसे समूची स्थिति का सामना किया होगा? कैसे पिताजी को इस रूप में देखा होगा?

कठोर हकीकत को स्वीकारते हुए सामाजिक निर्वहन में लग गए. बहते आँसुओं के बीच डायल किये जाते नंबर, मोबाइल से बातचीत, हिचकियों के बीच किसी अपने के न रहने की दुखद खबर का दिया जाना चलता रहा. अब इंतजार था पिताजी के आने का, पिताजी के आने का कहाँ, पिताजी के पार्थिव शव के आने का. क्या हुआ होगा? कैसे हुआ होगा? कितनी परेशानी हुई होगी? क्या परेशानी हुई होगी? यहाँ से तो अच्छे भले गए थे, फिर अचानक हुआ क्या? सवाल अपने आपसे बहुत से थे और जवाब किसी का भी नहीं था. किससे पूछते? क्या पूछते? चाचा लोग, अम्मा, भाई लोग सभी उसी मनोदशा में होंगे, जिसमें हम थे. सवालों की इस भँवर में गिरते-पड़ते हम, हमारी पत्नी आँसुओं के सैलाब में बीते दिनों को याद करते रहे. पारिवारिक, सामाजिक मान्यताओं के साथ-साथ पिताजी के अनुशासन के चलते उनसे कम से कम बातचीत, काम की बातचीत के चलते उस रात एहसास हुआ कि अपने ही पिताजी से कभी खुलकर बात न कर पाए. आज भी बात कचोटती है पिताजी से बहुत बातचीत न हो पाने की. एक वो समय था और एक आज के बाप-बेटे हैं, लगता है जैसे दो मित्र हैं अलग-अलग आयुवर्ग के. क्या सही हैक्या गलत पता नहीं.. क्योंकि सही अपना समय भी नहीं लगता आज और आज का समय भी हमें नहीं सुहाया आज तक.

बहरहाल, अब एक दशक से ज्यादा हो गया पिताजी को गए. अब बस आसपास के आयोजन, आसपास की हलचल, घर-परिवार की क्रियाविधि, क्रियाकलाप देखकर इतना ही कह पाते हैं कि पिताजी होते तो ऐसा होता, ऐसा न होता. बहुत कुछ अधूरा रह गया था, उनके द्वारा देखना, उनके द्वारा पूरा करना. कोशिश तो बराबर रही कि हम पूरा कर सकें, बड़े होने के नाते सभी छोटों को उनकी कमी न महसूस होने दें मगर पिता तो पिता ही होता है, कोई भी उसकी जगह नहीं ले सकता. हम भी नहीं ले सके हैं, नहीं ले सकेंगे क्योंकि हमारे पिताजी वाकई हमारे पूरे परिवार की धुरी थे, आज भी होंगे, यही सोचकर उनके सोचे हुए काम पूरे करने की कोशिश में हैं. अब इसमें कितना सफल होंगे, ये तो आने वाला वक्त बताएगा, परिवार के बाकी लोग बताएँगे.

बहते आँसुओं के साथ पल-पल उनको याद करते हुए. बस याद ही करते हुए, यादों में ही बसाये हुए उनके बताये-बनाये रास्तों पर आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे. 

Saturday, 20 February 2016

कप्तान बना गई पहली दौड़


कभी-कभी कोई घटना खेल-खेल में घट जाती है और व्यक्तित्व पर छा जाती है. हमारे साथ खेल के मैदान में खेल-खेल में ये घटना घटी जिसने हमें एथलेटिक्स का कप्तान बनवा दिया. इंटरमीडिएट तक तमाम सारे खेलों में हिस्सा लिया मगर कभी भी एथलेटिक्स की तरफ रुझान नहीं रहा था. कॉलेज पहुंचकर भी अन्य खेलों की तरफ निगाह जाती थी मगर एथलेटिक्स की तरफ उधर भी नहीं सोचा. हाँ, बाबा जी द्वारा सुबह टहलने की जो आदत डलवाई गई थी वह हॉस्टल में भी मुन्ना भाईसाहब, पप्पू भाईसाहब के कारण बनी रही.

कॉलेज के वार्षिक खेलकूद के दिन आ गए. सभी खिलाड़ी मैदान पर अपने-अपने खेलों में व्यस्त हो जाते और हम जैसे कुछ दोस्त अपनी मस्ती-शरारत में हाथ आजमाते रहते. हॉस्टल से कोई न कोई किसी न किसी खेल में अपनी सहभागिता कर रहा था. क्रिकेट, शतरंज, बैडमिंटन, कैरम, हॉकी, दौड़ आदि सबमें हॉस्टल की हिस्सेदारी बनी हुई थी. उस दिन पाँच हजार मीटर दौड़ की घोषणा हुई. मुन्ना-पप्पू भाईसाहब सौ मीटर से लेकर पंद्रह सौ मीटर दौड़ में भागीदारी किया करते थे, सो उनको इसमें भाग नहीं लेना था. धावक ट्रेक पर जाने लगे मगर हॉस्टल से इसमें कोई सहभागिता नहीं दिखी. एकदम से लगा जैसे बिना खेले ही हॉस्टल की हार हो गई. हमने कहा कि हम दौड़ेंगे पाँच हजार मीटर दौड़ में. पहले तो कुछ लोगों ने समझाया कि मैदान के एक-दो नहीं पूरे साढ़े बारह चक्कर लगाने होंगे मगर हमने ठान लिया था कि इसमें भाग लेना ही लेना है. हमें पता था कि हम शारीरिक रूप से भले ही मजबूत न दिख रहे हों मगर मानसिक रूप से, आत्मविश्वास के रूप में कमजोर नहीं हैं.

हॉस्टल के बाकी भाइयों ने हमारी बात का खूब चिल्ला-चिल्लाकर, शोर मचाकर समर्थन किया. हमारे स्पोर्ट्स टीचर ने भी हमको प्रोत्साहित करते हुए कहा कि तू बस दौड़ पूरी कर ले, हम इनाम देंगे. दौड़ शुरू होने से पहले हमको इतनी लम्बी दौड़ दौड़ने के टिप्स बताये जाने लगे. कोई साथी हमारे पैरों की माँसपेशियों को मलने में लगा था, कोई चिल्ला-चिल्ला कर ताकत भरने में लगा था. सबकी हिम्मत लेकर, हॉस्टल की सहभागिता करने के लिए, महज खेल-खेल में ट्रेक पर उतर आये. उस स्पर्धा से जुड़े प्रोफ़ेसर हम हॉस्टलर्स का जोश देखकर अचंभित थे. लम्बी सीटी बजी और दौड़ना शुरू हुआ. मैदान के साढ़े बारह चक्कर लगाने थे, सो शुरूआती चक्कर आराम से लगाने शुरू किये. हॉस्टल के हमारे साथी क्रम से चिल्लाते हुए हमारे साथ ट्रेक के किनारे दौड़ लगाते जाते. उनका साथ-साथ दौड़ना हममें और जोश भरता. कब एक-दो-तीन-चार चक्कर लगाते-लगाते अंतिम चक्करों तक पहुँचने लगे पता ही नहीं चला. पैर, जांघ, पिंडलियाँ ऐसे लगने लगी मानो हमारे शरीर में ही नहीं हैं. मुँह सूखने की स्थिति में, साँस लम्बी-लम्बी चलने लगी मगर सबका चिल्लाते हुए हमारे साथ दौड़ना हमें थकने नहीं दे रहा था. कभी लगता कि अब गिरे कि तब गिरे मगर अपने साथियों, बड़े भाइयों, स्पोर्ट्स टीचर, कॉलेज के अन्य साथियों की तरफ से आती आवाजों के सहारे अगले चक्कर के लिए बढ़ जाते.

जिसको जीतना था वो जीत गया. हम छह लोगों में पाँचवे स्थान पर आये. आज भी बहुत अच्छे से याद है जैसे ही हमने फिनिश लाइन को छुआ, हमारे हॉस्टल के साथियों ने दौड़कर बाहों में उठा लिया. किसी ने शरीर को चादर से ढंका, कोई पैरों की मालिश करने लगा. ऐसे में हमारे स्पोर्ट्स टीचर ने आकर पीठ थपथपाई और शाबासी देते हुए कहा कि पहली बार में ही इतनी लम्बी दौड़ पूरी करना अपने आप में जीत है. 

अगले दिन हमने दस हजार मीटर दौड़ में भाग लिया. हालाँकि स्थान वहां भी न मिला तथापि तीनों साल लगातार सहभागिता करने के कारण अंतिम वर्ष में हमको एथलेटिक्स का कप्तान चुना गया. उन्हीं स्पोर्ट्स टीचर ने कप्तान की गरिमा, मर्यादा, जिम्मेवारी को समझाते हुए वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं के आरम्भ में कॉलेज के ध्वज के साथ हमारे द्वारा सभी खिलाडियों को शपथ ग्रहण करवाई. हमारी अगुवाई में लगभग आधा सैकड़ा खिलाड़ियों ने शपथ लेते हुए अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया. वो दिन आज भी याद है और गौरवान्वित कर जाता है.

CAPTAIN ATHLETICS लिखा वो बैज आज तक सुरक्षित है. उस समय न ब्लेजर बनवा सके और न उसे सीने पर लगा सके. अब बस यादें शेष हैं, उस दिन की, अपने एथलेटिक्स कप्तान होने की, खिलाड़ियों को शपथ दिलवाने की, अपने दौड़ने की.

Monday, 8 February 2016

चवन्नी की जमींदारी


जीवन में कोई व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर निरंतर सजग रहता है, लगातार आगे बढ़ने का प्रयास करता है और इस यात्रा में, अपनी सजगता में वो अपने अतीत को विस्मृत नहीं कर पाता है. ये और बात है कि जिंदगी की आपाधापी में इन्सान ने अपने अतीत को स्वतः याद करना बंद सा कर दिया है किन्तु बहुत सी घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अक्सर मन-मष्तिष्क में उभर कर बीते दिनों की सैर कराने लगती हैं. 

ऐसा ही कुछ उस समय हुआ था जबकि एक समाचार पढ़ने को मिला था कि सरकार ने स्टील की मंहगाई और अन्य कारणों से पच्चीस पैसे के सिक्के को बनाना बंद कर दिया है. इस बंदी के साथ-साथ इसके चलन को भी समाप्त कर दिया गया. हालाँकि सरकारी आदेश के बहुत पहले से पच्चीस पैसे और पचास पैसे का चलन समाज ने स्वतः ही बंद कर रखा था. अब भले ही ये सिक्के लेन-देन के दौरान चलन में न दिखते हों मगर शौकिया तौर पर बनाये गए संग्रह में से कभी-कभार ये सिक्के और अन्य पुराने सिक्के सामने आकर बचपन में ले जाते हैं. कुछ ऐसा ही अपने संग्रह का अवलोकन करते समय पच्चीस पैसे के सिक्के को देखकर हुआ और बचपन की वो ख़ुशी आँखों के सामने चमक उठी जो एक पच्चीस पैसे के सिक्के के द्वारा मिल जाया करती थी.

ये बात सन् 83-84 की है, जब हम राजकीय इंटर कालेज, उरई के छात्र थे. उस समय हमको स्कूल जाने पर नित्य जेबखर्च के रूप में पच्चीस पैसे मिला करते थे. चार आने का मूल्य होने के कारण आम बोलचाल की भाषा में पच्चीस पैसे के सिक्के को चवन्नी कहकर पुकारा जाता था. आज के बच्चों को यह बहुत ही आश्चर्य भरा लगेगा कि रोज का जेबखर्च मात्र पच्चीस पैसे अर्थात चवन्नी, पर हमारे लिए उस समय यह किसी करोड़पति के खजाने से कम नहीं होता था. उस समय इस एक छोटे से सिक्के के साथ एक छोटी सी पार्टी भी हो जाया करती थी. इसके अलावा हम दो-तीन दोस्त हमेशा एकसाथ रहा करते थे और सभी के ऐसे छोटे-छोटे सिक्के मिल-मिलाकर एक ग्रांड पार्टी का आधार तैयार कर दिया करते थे.

विशेष बात तो यह होती थी घर से स्कूल जाते समय अम्मा ही चवन्नी दिया करती थीं. कभी-कभार ऐसा होता था कि थोड़ी बहुत देर होने के कारण अथवा किसी और वजह से हमें स्कूल छोड़ने के लिए पिताजी साइकिल से जाया करते थे. उनकी हमेशा से एक आदत रही थी कि स्कूल के गेट पर हमें साइकिल से उतारने के बाद हमसे पूछा करते थे कि पैसे मिले? झूठ बोलने की हिम्मत तो जुटा ही नहीं पाते तो ऐसे समय में हम या तो चुप रह जाते या फिर कह देते कि हाँ हैं. इसके बाद भी पिताजी अपनी जेब से पच्चीस पैसे का उपहार हमें दे ही देते. चूँकि पिताजी कभी-कभी ही छोड़ने आते थे और जिस दिन उनका आना होता उस दिन हमारा जेबखर्च पच्चीस से बढ़कर पचास हो जाया करता था. समझिए कि उस दिन तो बस चाँदी ही चाँदी होती थी. क्या कुछ ले लिया जाये और क्या कुछ छोड़ा जाये, समझ में ही नहीं आता था. चूँकि उस समय स्कूल परिसर में ऐसी कोई सामग्री बेचने भी नहीं दी जाती थी जो हम बच्चों के लिए हानिकारक हो, इस कारण से घरवाले भी निश्चिन्त रहते थे.

हमारी पच्चीस पैसे की नवाबी उस समय और तेजी से बढ़ गई जब हमारे साथ पढ़ने के लिए हमारा छोटा भाई पिंटू (श्री हर्षेन्द्र सिंह सेंगर) भी साथ जाने लगा. अब हम दो जनों के बीच पचास पैसे की जमींदारी हो गई जो हमारी मित्र मंडली में किसी के पास नहीं होती थी. हम दो भाइयों के बीच एकसाथ आये पचास पैसे के मालिकाना हक से हम अपनी मित्र मंडली पर रोब भी जमा लेते थे पर भोजनावकाश में सारी हेकड़ी आपस में खान-पान को लेकर छूमंतर हो जाती थी. सबके सब अपने-अपने छोटे से करोडपतित्व को आपस में मिला कर हर सामग्री का मजा उठा लेते थे. 

आज जब भी अपने सिक्कों के संग्रह को देखते हैं तो बरबस ही उस चवन्नी की याद तो आती ही है साथ में उन बीस पैसे के, दस पैसे के, पाँच पैसे के सिक्कों की भी याद आ गई जो न जाने कब अपने आप ही चलन से बाहर हो गये. वाह री चवन्नी! तुम्हारी याद तो हमेशा मन में रहेगी जिसने उस छोटी सी उम्र में ही नवाबी का एहसास करा दिया था, धन की अहमियत को समझा दिया था.

Tuesday, 12 January 2016

व्यक्तित्व विकास का आधार बनी बाल सभा


हो सकता है कि आज की पीढ़ी को ये शब्द बाल सभा कुछ अजूबा सा लगे. ऐसा इसलिए क्योंकि अब किसी विद्यालय में ऐसा कोई आयोजन होते दिखता नहीं है. विद्यालयों में आजकल बच्चों की प्रतिभा को निखारने के स्थान पर मँहगे-मँहगे प्रकाशकों की मँहगी-मँहगी किताबों को रटवाना एकमात्र काम रह गया है. कभी-कभार अभिभावकों को दिखाने के नाम पर, समाचार-पत्रों में सुर्खियाँ बटोरने के नाम पर कहीं-कहीं प्रोजेक्ट, विज्ञान मेला, बाल-मेला जैसे आयोजन करवा लिए जाते हैं. ये आयोजन भी बच्चों से ज्यादा अभिभावकों की प्रतिभा, उनकी जेब की परीक्षा लेते हैं.

बाल सभा शब्द बहुतेरे लोगों के लिए उतना ही अजूबा जितना कि उसे पता चले कि आज भी कुछ लोग फाउंटेन पेन से लिख रहे हैं. आज कॉलेज में जब हमारे विद्यार्थियों, सहकर्मियों, साथियों को पता चलता है कि हम आज भी फाउंटेन पेन से लिखते हैं तो वे आश्चर्य से भर जाते हैं. हालाँकि अभी उरई जैसे शहर में पठन-पाठन पूरी तरह से ई-सामग्री पर, कंप्यूटर पर निर्भर नहीं हो सका है, इस कारण यहाँ के विद्यार्थी पेन-कागज से अपना परिचय बनाये हुए हैं. इसके बाद भी फाउंटेन पेन की उपलब्धता, उपयोग न के बराबर देखने को मिल रहा है. बहरहाल, बात हो रही थी बाल सभा की. बाल सभा को हम अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों का आधार कह सकते हैं. यही वो गतिविधि है जिसने हमारे भीतर की झिझक, संकोच को दूर करके भाषण देने की शक्ति, सञ्चालन करने की क्षमता, नाट्य-कार्यक्रमों में सहभागिता करने को विकसित किया. आज यह सब विद्यालयों से नदारद दिखता है. 

नर्सरी से लेकर कक्षा पाँच तक की मात्र छह वर्ष की अवधि को अल्पावधि भले ही कहा जाये मगर इन छह वर्षों में प्रति शनिवार भोजनावकाश के बाद सभी बच्चों को एक बड़े से बरामदे में एकत्र होना पड़ता था. यह सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था. बाल सभा में लगभग सभी बच्चों को किसी न किसी रूप में अपनी सहभागिता करनी पड़ती थी. किसी को सञ्चालन, किसी को भाषण, किसी को गीत, किसी को अभिनय, किसी को कविता. सभी हँसी-हँसी पूरे उत्साह के साथ अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करते. स्कूल की शिक्षिकाएँ, जिन्हें हम बच्चे दीदी कहा करते थे, अपने कुशल, स्नेहिल निर्देशन में न केवल हमारी वरन अन्य विद्यार्थियों की प्रतिभा को निखारती थीं. 

प्रति शनिवार निश्चित रूप से होने वाली बाल सभा ने हमारे व्यक्तित्व विकास में भी बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया. भाषण, सञ्चालन, लेखन, अभिनय, निर्देशन आदि के विकास का आधार उसी बाल सभा में बखूबी हुआ, बस गायन-वादन में अपने को आगे न ला सके. आने वाले समय में इस पर भी हाथ आजमाया जायेगा.