Wednesday, 20 September 2017

और फिर दौड़ पड़ी कार


दीपावली की बात थी. हमारे बच्चा चाचाजी उस समय ग्वालियर में थे और अपनी कार से आये थे. तब तक हमें कार चलानी नहीं आती थी. घर में पहली कार भी वही थी. अपनी पढ़ाई के दौरान ग्वालियर में कई दोस्तों के घर में कार थी पर सोचा करते थे कि जब अपने घर में कार आयेगी तभी चलाना सीखेंगे. 

त्यौहारों पर सभी चाचा लोग यहाँ उरई में इकट्ठा होकर उन्हें हँसी-खुशी से मनाते हैं. अब माहौल भी उमंग भरा था और घर में कार भी खड़ी थी. हमने चाचा से कार सिखाने के लिए कहा तो चाचा ने कहा कि तुम खुद सीख लो. अब समझ नहीं आया कि क्या किया जाये? एक-दो दिन तो ऐसे ही ऊहापोह में गुजर गये. तीसरे दिन हमने और हमारे छोटे भाई ने हिम्मत करके कार की चाबी उठाई और घुस गये कार में. हालत ये थी कि न तो हमें कार चलानी आती थी और न ही हमारे छोटे भाई पिंटू को. चूँकि हमारे घर के पास जगह कम होने के कारण कार सीधी तो आ जाती है पर जब उसे सड़क तक लाना हो तो बैक करके ही ले जाना होता है. कार चलाना सीखना भी था तो समझ नहीं आया कि अभी सीधे-सीधे तो चलानी आती नहीं है बैक कैसे करेंगे? इसके बाद भी हिम्मत करके चाबी लगाई, घुमाई और कार स्टार्ट.

हम बैठे थे ड्राइविंग सीट पर और छोटा भाई बगल में. लगाया बैक गियर और दबाया एक्सीलेटर पर गाड़ी रफ्तार ही न पकड़े. हमने देखा कि हम ब्रेक पर पैर भी नहीं रखे हैं पर गाड़ी चलने के मूड में नहीं दिख रही थी. लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये. कार को बन्द कर नीचे उतर आये. अबकी छोटा भाई ड्राइविंग सीट पर बैठा कार स्टार्ट और फिर वही स्थिति. कुछ समझ नहीं आया. तभी मोहल्ले के एक भाईसाहब निकले. हमने आवाज देकर उन्हें बुलाया और अपनी समस्या बताई. भाईसाहब ने एक पल की देरी किये बिना कहा कि देखो हैंडब्रेक तो नहीं लगा है?  अब पता तो था नहीं कि ये क्या बला होती है. भाईसाहब ने बताया और उस समस्या को दूर किया. अब कार धीरे-धीरे पीछे को जाने लगी. ऐसा अभी तक आराम से हो रहा था तो हिम्मत भी आ रही थी. जैसे-तैसे चार-पाँच बार कार के बन्द होने के बाद वह सड़क पर आ गई.  

अब लगाया पहला गियर और एक्सीलेटर दबाते ही कार अपनी असल रफ्तार पकड़ गई. अब एक और समस्या, गियर लगायें तो उसी को देखने लगें और पता चले कि कार सड़क के दूसरी ओर भागने लगे. फिर कार को सड़क के बीच में लायें और जब अगला गियर डालें तो फिर वही स्थिति. इस दौरान समझ आ गया कि गियर बदलते समय उसे देखना नहीं है, बस गियर लीवर को आगे-पीछे करना है. लगभग एक घंटे तक सड़क पर कार को हम दोनों भाई दौड़ाते रहे और सीख भी गये.

इस कार सीखने में अच्छाई यह रही कि हमने किसी को चोटिल नहीं किया न ही कार को कहीं टकराया. अगले दिन हम अपनी दादी, अम्मा, चाची को कार में बिठा कर पास के राधा-कृष्ण मंदिर के दर्शन करवाने ले गये. भीड़ में कार चलाना सीखना और फिर परिवार के सदस्यों को घुमाने ने गजब का आत्मविश्वास ड्राइविंग को लेकर पैदा किया जो आज तक बना हुआ है.

चाचा की एक बात आज भी याद आती है जो उन्होंने हम लोगों के लौटने के बाद कही थी कि यदि तुममे कार चलाना सीखने की हिम्मत होगी तो बिना किसी सहारे के सीख लोगे, यदि खुद में हिम्मत न होगी तो हम क्या कोई भी तुमको सिखा नहीं सकेगा. आज लगता है कि यह बात हर एक काम में लागू होती है.