कॉलेज होगा, सह-शिक्षा होगी तो कहानी जरूर होगी,
अब सुनाना न हो तो अलग बात है. ये बात हमारी स्नातक की पढ़ाई के समय हमारे भांजे अभय ने हमसे
कही थी. उस समय तो इधर-उधर की कहानी सुनाकर उसे बहला दिया था मगर अब जबकि अपनी कहानी
लिखने बैठे तो कॉलेज के इतने किस्से याद आ रहे हैं. ऐसा लग रहा है मानो वे सब किससे
आज भी इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं.
हकीकत में किसी
के साथ कोई प्रेम कहानी भले ही न चल रही हो पर सबके सब किसी न किसी लड़की के साथ खुद
को ऐसे जोड़ते थे जैसे उनको एक-दूसरे के लिए ही बनाया गया है. कभी-कभी तो स्थिति इतनी
विकट हो जाया करती थी कि बयानबाजी किसी फ़िल्मी डायलॉग से भी आगे निकल जाया करती थी.
किसी लड़की के सौन्दर्य बोध को लेकर कॉलेज के छात्रों में इतना आकर्षण हो जाया करता
था कि सब उसे दूसरे की भाभी बताने में नहीं चूकते. हँसी-मजाक के ऐसे दौर के बीच इतना
ख्याल रखा जाता कि किसी भी रूप में उस लड़की के साथ कोई बदतमीजी न हो.
किसी लड़की के साथ
एक महाशय अपना सम्बन्ध जोड़ते बाकियों को हड़काते रहते थे. उसी दौरान उनको बहुत से लड़कों
से अन्य लड़कों की भी खबरें मिली तो एक दिन वे इतने क्रोधित हो गए कि उन्होंने चुनौती
ही दे डाली सभी लड़कों को. कॉलेज की बगिया में बैठकी के दौरान वे चिल्लाकर बोले कि उसकी
तरफ किसी ने भी आँख उठाकर देख भी लिया तो इतनी गोलियाँ चलेंगी कि खोखे (खाली कारतूस)
बीनने वाले लखपति हो जायेंगे. उसके बाद हम दोस्त लोग उनको अकसर चिढ़ा लिया करते
कि भाईसाहब, जल्दी गोलियाँ चलवाओ, हम लोग लखपति बनना चाहते हैं.
उसी समय एक और मित्र
परेशान घूमते थे. उनकी समस्या बड़ी ही अजीब और दूसरी तरह की थी. वे जीव विज्ञान वर्ग
से थे और उनके वर्ग में बहुत सारी लड़कियां पढ़ती थीं पर हमारे उन मित्र की समस्या ये
थी कि उनको जो सेक्शन मिला हुआ था उसमें नाममात्र को लड़कियाँ थीं जबकि दूसरे सेक्शन
में लड़कियाँ बहुतायत में थी. उनकी परेशानी का निदान भी बताया कि वे अपना सेक्शन बदल
लें मगर मित्रता कारणों के चलते वे अपना सेक्शन बदलने को तैयार नहीं हुए.
अगले ने हमसे अपनी
समस्या बताई तो हमने उसका समाधान बताया. कहा, प्राचार्य को एक प्रार्थना पत्र लिखो कि दोनों सेक्शन में लड़कियों
की बराबर-बराबर संख्या होनी चाहिए. अगले ने तुरंत इस समाधान का अनुपालन किया और अगले
ही पल एक प्रार्थना-पत्र तैयार. अब समस्या ये आई कि प्राचार्य को दिया कैसे जाए?
हमसे कहा कि यार तुम चलो साथ देने. हम मित्रों को तो अगले की मौज लेनी
थी, सो कहा कि तुम्हारे सेक्शन में लड़कियाँ बढ़ने से हमें क्या
फायदा? हम तो गणित वर्ग के हैं वहां तो वैसे भी लड़कियों का सूखा
पड़ा हुआ है.
हमारे वे मित्र
बेचारगी भाव दर्शाते हुए हम लोगों के आगे-पीछे बहुत घूमे मगर हम लोगों ने किसी ने भी
उनकी इस काम में सहायता करने से तब तक के लिए इनकार कर दिया जब तक कि वो अपनी जेब ढीली
न करे. अगला बंदा जो खाने का शौक़ीन था मगर खिलाने के नाम पर महाकंजूस हम कुछ दोस्तों
को हलकी-फुलकी चाय पार्टी देने को मान गया. बस, पार्टी ली, चाय-समोसे गटके और फिर कल करवाते
हैं काम का आश्वासन देकर प्रार्थना-पत्र जेब के हवाले किया.
कॉलेज का हँसी-मजाक
का समय अपनी गति से निकलता रहा. चार-छह दिन के आश्वासनों के बाद वो पत्र वापस उसी मित्र
की जेब में सुरक्षित हो गया. हम लोगों को प्राचार्य के पास जाना नहीं था और अगले की
जाने की हिम्मत न हुई. हाँ, बेचारे मित्र बीच-बीच में उस दूसरे सेक्शन में जाकर लेक्चर के
साथ सौन्दर्य का लाभ लेकर क्षतिपूर्ति करने लगे. चूँकि अगले का नाम वाद-विवाद,
भाषण प्रतियोगिताओं, शतरंज आदि में प्रमुखता से
रहता था इस कारण उसके दूसरे सेक्शन में बैठने पर न तो प्राध्यापकों को कोई आपत्ति हुई
और विद्यार्थियों के आपत्ति करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. आखिर हॉस्टल की एकता
यहीं तो काम आती थी.
बस ताकते-निहारते, चंद बातें करके तीन साल बिताकर सबके प्रेम अपनी-अपनी
जगह चले गए. कुछ के प्रेम तो समय के साथ बदलते भी रहे. इन सबके बीच न गोलियाँ चली,
न खोखे बीने गए और न हम लखपति बन पाए. हाँ, आज भी उन दिनों की मासूम प्रेम-कथाओं को
याद करके मुस्की मार लेते हैं, यार-दोस्तों को चिढ़ा लेते हैं.