Tuesday, 10 June 2014

कुछ सच्ची कुछ झूठी के आवरण में


अपने बारे में कुछ लिखने का, अपने बारे में सबको बताने का विचार बहुत दिनों से या कहें कि बहुत वर्षों से मन में था पर अभी इस उम्र में ही अपने बारे में कुछ लिखने-कहने के बारे में सोचा नहीं था. कई-कई जीवनियों, कई-कई संस्मरणों, कई-कई महानुभावों को पढ़ने के दौरान मन कहता था कि कभी लोग हमारे बारे में भी ऐसे ही पढ़ेंगे. हमारे बारे में भी ऐसे ही चर्चा करेंगे. यह भी सोचा करते थे कि जब हम अपनी कहानी लिखेंगे तो उसको किस शीर्षक के भीतर समेटेंगे? जब हमारी बात किसी पुस्तक के रूप में सामने आएगी तो लोगों के सामने उसे किस नाम से लायेंगे? जितनी बड़ी समस्या अपने बारे में लिखने-बताने की थी, उससे कहीं बड़ी समस्या पुस्तक के शीर्षक को लेकर थी. 

समस्या का समाधान कोई और कर भी नहीं सकता था क्योंकि समस्या किसी के सामने प्रकट भी नहीं की गई थी. यार-दोस्तों के बीच रखी भी नहीं थी. ऐसे में हमारी ही समस्या और हमारा ही समाधान जैसी बात होने के कारण उसका समाधान हमें ही निकालना था. समस्या का समाधान यह निकला कि जब आत्मकथा लिखी जाएगी, जब अपनी कहानी कही जाएगी तो उसका नामकरण उसी समय कर दिया जायेगा. अपनी कहानी लिखना भविष्य का प्रोजेक्ट था, सो उसका नामकरण भी भविष्य के गर्भ में डाल दिया गया. 

समय बदलता रहा, परिस्थितियाँ बदलती रहीं, उम्र बदलती रही, हम बदलते रहे और इस अदला-बदला में विचार भी बदलते रहे. उम्र के तीन दशकों की यात्रा के बाद सोचा कि अब कुछ लिखा जाये पर लगा कि अभी कुछ ज्यादा ही जल्दी हो जाएगी. इतनी जल्दी भी लोगों का सिर नहीं खाना चाहिए. लोगों को पकाना नहीं चाहिए. इसके बाद एक दशक के इंतजार के बाद इस पड़ाव पर आकर सोचा कि अब न देर है और न ही जल्दी. अब कुछ लिखा जा सकता है. लोगों को अपने बारे में बताया जा सकता है. 

क्या लिखा जाये? क्या बताया जाये? क्यों बताया जाये? कैसे बताया जाये? कितना बताया जाये? इस तरह के न जाने कितने प्रश्नों ने अपना सिर उठाया. एक पल में चार दशकों की यात्रा आँखों के सामने से घूम गई. बहुत कुछ सुखद, बहुत कुछ दुखद, कितना अपनापन, कितना बेगानापन, कितनी सफलताएँ, कितनी असफलताएँ, कितने आरोप, कितने प्रत्यारोप, कितनों का मिलना, कितनों का बिछड़ना, क्या-क्या सीखना, क्या-क्या सिखाना, क्या-क्या बनाना, क्या-क्या बिगाड़ना, क्या-क्या हासिल हुआ, क्या-क्या खो दिया, कितना लाभ, कितनी हानि आदि का हिसाब-किताब दिमागी कैल्क्यूलेटर पर होने लगा.

क्यों? क्या? कैसे? किसको? आदि ने डराया भी. बहुत से नकाब उतरने का संकट दिखाई दिया. खुद अपने को भी कमजोर देखा. अपनों की टूटन दिखाई देने लगी. विचार काँपे. हाथ काँपे. कलम ने चलने को मना किया पर वर्षों की मनोच्छा को पूरा करना था, सो हिम्मत बांधी. विचारों को थाम विचारों को ही टटोला. शीर्षक के बहाने एक आवरण खोज निकाला और फिर कुछ सच्ची कुछ झूठी कहने बैठ गए.