Saturday 26 January 2019

दोस्तों की दोस्ती का अपना ही नशा है


चार दशकों की जीवन-यात्रा के बाद पलट कर देखते हैं तो बहुत से पलों का साथ रहना दिखता है. बहुत से अवसरों का पीछे छूट जाना दिखाई देता है. अनेकानेक जाने-अनजाने लोगों से मिलना-बिछड़ना इस यात्रा में बना रहा. हँसना-मुस्कुराना, लड़ना-झगड़ना, तर्क-वितर्क के न जाने कितने पड़ावों के बीच लोगों का साथ मिलता रहा, बहुतों का साथ छूटता रहा. इस यात्रा में अच्छे-बुरे, कड़वे-मीठे अनुभवों का स्वाद चखने को मिला. सपनों का बनना-बिगड़ना बना रहा, वास्तविकता और कल्पना की सत्यता का आभास होता रहा. कई बार जीवन एकदम सरल, जाना-पहचाना लगता तो कई बार अबूझ पहेली की तरह अनजाने रूप में सामने खड़ा हो जाता. अपनी होकर भी बहुत बार यह जीवन-यात्रा अपनी सी नहीं लगती. ऐसा लगता कि चमकती धूप में भी स्याह अँधेरा चारों तरफ हो. चाँदनी बिखरी है मगर उसमें भी तपन महसूस होती. सर्वत्र ख़ुशी के झरने झर रहे हैं पर हम उसमें भीग नहीं पा रहे हैं. सुखों की चादर फैली हुई है पर उसके साये में खुद को खड़ा नहीं कर पा रहे हैं.

यही इस जीवन-यात्रा की अनिश्चितता थी कि जो पल अभी-अभी नकारात्मक सन्देश लेकर आया था, वह अपने साथ सकारात्मकता की चिट्ठी लेकर भी आया था. खाली हाथ होते हुए भी समूची दुनिया मुट्ठी में होने का एहसास खुद को सर्वोच्च पायदान पर ले जाता. तन्हाई के बीच अपना कद ही अनेकानेक व्यक्तित्वों का निर्माण कर मधुर कलरव बिखेरने लगता. अंधेरों के सामने दिखने पर उसको अपने भीतर समेट सबकुछ रौशनी में बदल देने की शक्ति भी प्रस्फुटित होने लगती.

ऐसा क्यों होता है? कब होता है? किस कारण होता है? न जाने कितने सवालों के दोराहों, तिराहों, चौराहों से गुजरते हुए भी यदि कोई जीवन-शक्ति सदा साथ रही तो वह थी हमारे दोस्तों की शक्ति. किसी मोड़ पर अकेलेपन का एहसास यदि किसी ने न होने दिया तो वो था हमारे दोस्तों का साथ. अनेक असफलताओं का सफलता में बदलने का ज़ज्बा विकसित करने वाला कोई था तो वो था दोस्तों का साहचर्य.

ऐसे बहुत सारे दोस्तों में हमारी त्रिमूर्ति अश्विनी उर्फ़ बबलू, अभिनव और संदीप का स्थान सबसे अलग है. इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद सभी को आश्चर्य हुआ हो कि इन तीनों के बारे में यहाँ कुछ अलग से नहीं लिखा गया. हो रहा है न आपको आश्चर्य? इनके लिए अलग से कैसे कुछ लिखा जा सकता है जबकि ये हमसे अलग हैं ही नहीं. हमारे नामों में अंतर है, देखने में हमारे रंग-रूप, कद-काठी अलग हैं मगर आत्मिक रूप से हम एक ही हैं. क्या-क्या लिखें इनके बारे में? क्या-क्या छोड़ें इनके बारे में? हफ़्तों, महीनों न मिलने के बाद भी ऐसी कोई बात नहीं होती जो हमारे बीच आपस में शेयर न होती हो. अच्छा या बुरा कैसा भी समय रहा हो हम किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के साथ बराबर रहे, लगातार रहे.

शादी के पहले की मुलाकातों में अक्सर हम सब इसके लिए चिंतित रहते कि हमारे आने वाले जीवनसाथी हमारे संबंधों का निर्वहन किस तरह से करेंगी? जिस तरह की आत्मीयता हम सबमें आपस में है, क्या वो बनी रहेगी? ऐसी सोच अक्सर हमारी तरफ से ही उछाली जाती और इसका कारण भी हम ही रहते. अपने मजाकिया, कुछ भी कह देने (जिसे आम बोलचाल भाषा में मुंहफट कहा जा सकता है) वाले स्वभाव के चलते हमें स्वयं इसकी चिंता लगी रहती.

कालांतर में सभी की शादी हुई, परिवार का विकास हुआ मगर हम सब आज भी उसी तरह आत्मीय रिश्ते के साथ जुड़े हुए हैं. सबकी पारिवारिक जिम्मेवारियाँ जहाँ की तहाँ और हमरा दोस्ती भरा रिश्ता भी जहाँ का तहाँ. इसके पीछे उन तीनों के जीवनसाथियों क्रमशः गुंजन, नम्रता और सारिका का महत्त्वपूर्ण योगदान है, सहयोग है. हमारा मजाक वैसे का वैसा है, हमारा स्वभाव ज्यों का त्यों है और हम सबके रिश्ते, सम्बन्ध भी ज्यों के त्यों हैं. पारिवारिक रूप से हम सभी आज भी एकसूत्र में बंधे हुए हैं. ऐसे में उन तीनों को एक पुस्तक में समेट पाना हमें अपने वश के बाहर की बात लगी. सच कहा जाये तो उन तीनों सहित अपने दोस्तों के बारे में यदि लिखना शुरू किया जाये तो उसके लिए एक नहीं कई पुस्तकों की रचना करनी पड़ेगी. कुछ सच्ची कुछ झूठी लिखने के साथ ही इस पर भी विचार बना था, जिसे यथाशीघ्र साकार किया जायेगा.

यह हमारी खुस्किस्मती है कि दोस्तों का मिलना हर स्थिति में हुआ. हर परिस्थिति में हुआ. कोई बचपन में स्कूल से मित्र बना तो कोई कॉलेज की शिक्षा के दौरान संपर्क में आया. किसी से उच्च शिक्षा के दौरान बनी मित्रता अभी तक चल रही है तो किसी से सामाजिक कार्यों के दौरान हुआ संपर्क आज तक गहरी दोस्ती के रूप में विद्यमान है. हॉस्टल जीवन में बहुत से मित्रों का आना हमारे जीवन में हुआ. इसमें बहुत से बड़े भाई की तरह अपना आशीर्वाद, स्नेह हम पर लुटाते हैं तो कुछ छोटे भाई की तरह हमें सम्मान देते हैं और कुछ मित्र तो आज भी उसी तरह की बदतमीजियों के साथ हमारे दिल-दिमाग में बसे हैं, जिन बदतमीजियों के साथ हॉस्टल के समय में घुस गए थे.

स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल में साथ पढ़ने-रहने के कारण गहरी मित्रता होना स्वाभाविक सी बात है मगर बहुत से मित्र ऐसे हैं जिनसे अल्पकालिक संपर्क हुआ मगर सम्बन्ध दीर्घकालिक, स्थायी बन गए हैं. वे सभी आज भी नियमित संपर्क में हैं. हाँ जी, आपके सवाल दागे जाएँ उससे पहले हम ही बताये देते हैं कि हमारी दोस्ती के इस घेरे में लड़के भी शामिल हैं, लड़कियाँ भी शामिल हैं. अपनी दोस्ती के कैदखाने में कैद करने वाले बहुत सारे मित्र आज भी लगातार हमारे साथ बने हुए हैं. यहाँ सभी को नाम से इंगित न कर पाने की अपनी विवशता है. इसे हमारे सभी मित्रवर समझेंगे और नजरअंदाज करते हुए अपनी दोस्ती से हमेशा की तरह सराबोर करेंगे.

बहरहाल, पुराने दोस्तों की दोस्ती हमेशा पुरानी शराब सा मजा देती रही. नए-नए मित्र अपने नए-नए रंग के साथ इसमें शामिल होकर दोस्ती के नशे को और नशीला बनाते रहे.

Saturday 12 January 2019

अपनों के पदचिन्हों पर चलने का सुखद एहसास


हमारा प्राथमिक विद्यालय यद्यपि कक्षा आठ तक था किन्तु घर में सभी का निर्णय हुआ कि कक्षा छह से आगे की पढ़ाई के लिए हमारा एडमीशन राजकीय इंटर कॉलेज में करवाया जाये. पुराना चिरपरिचित स्कूल, दोस्त, शिक्षक छूटने का बुरा लग रहा था साथ ही नए स्कूल में जाने की ख़ुशी भी हो रही थी. इसके बीच जीआईसी में एडमीशन को लेकर गर्व मिश्रित ख़ुशी का एहसास भी हो रहा था. ऐसा इसलिए महसूस हो रहा था क्योंकि जीआईसी के आरम्भिक स्वरूप में संचालित स्कूल में हमारे बाबा जी ने भी अध्ययन किया था. उनके समय यह इंटरमीडिएट तक न होकर मिडिल तक ही संचालित होता था. बाबा जी के बाद उसी जीआईसी में हमारे सबसे छोटे भैया चाचा (श्री धर्मेन्द्र सिंह सेंगर) और हमारे बैंगलोर वाले मामा (श्री सुन्दर सिंह क्षत्रिय) ने भी पढ़ाई की थी. ऐसे विद्यालय में अपने पढ़ने का सोचकर ही प्रसन्नता हो रही थी, जहाँ हमारे पूर्वज अध्ययन कर चुके थे. उस समय जीआईसी में प्रवेश परीक्षा के आधार पर एडमीशन मिला करता था. 

प्रवेश परीक्षा देने जाने पर पहली बार जीआईसी की भव्य इमारत को देखा. अंग्रेजी वास्तुकला का प्रतीक वह बुलंद इमारत अपनी भव्यता के साथ सबको एक नजर में सम्मोहित कर जाती थी. हमें भी उसका सम्मोहन अपनी तरफ खींच रहा था मगर एक गौरव के साथ, एक आशीर्वाद के साथ, अपनत्व की भावना के साथ. इमारत में घुसते हुए अपने ही घर में पहुँचने जैसा गौरवान्वित करने वाला एहसास हुआ. ऐसा लगा था जैसे यहाँ से शिक्षित हुए हमारे परिवार के लोग हमें अपना आशीर्वाद दे रहे हों. 

प्रवेश परीक्षा देने के बाद, जब तक पिताजी लेने नहीं आये तब तक पूरी इमारत का एक चक्कर लगाकर, उसकी दीवारें छू-छूकर अपने बुजुर्गों की उपस्थिति को महसूस करने का प्रयास किया. बड़े-बड़े कमरे, बड़ा सा हॉल, खूब लम्बा-चौड़ा मैदान, हरी-भरी बगिया, घने छायादार वृक्ष सब मन मोहने में लगे थे. उस छोटी सी अवस्था में सबको छू-छूकर उनमें महसूस होती अपनों की छवि-खुशबू से एकरूप होने का प्रयास किया. प्रवेश परीक्षा का परिणाम आया और हम वहां के लिए चयनित हो गए. हमारी ख़ुशी की सीमा न रही. 

कक्षा छह से इंटरमीडिएट तक जीआईसी हमारी शिक्षा का केंद्र रहा. वहाँ चयनित होने, प्रवेश लेने की ख़ुशी उस समय और बढ़ गई जबकि पुराने स्कूल के कुछ मित्रों ने भी वहां प्रवेश पा लिया. समय के साथ जीआईसी ने भी बहुत से दोस्त दिए. कुछ पढ़ाई तक साथ रहने के बाद दूर हो गए, कुछ आज तक साथ हैं और कुछ तो परिवार का हिस्सा ही बन गए हैं. समय के साथ आगे बढ़ते रहने, दोस्तों के साथ आगे बढ़ते रहने ने हमारी ज़िन्दगी को और जीवंत बनाया है.

Friday 11 January 2019

लरिकाई को प्रेम कहौ अलि कैसे छूटत


प्यार, इश्क, प्रेम, दीवानगी, आकर्षण आदि शब्दों का बचपने से कोई तारतम्य नहीं होता है. इन कोमल शब्दों को भारी-भरकम बनाने में समाज के उन लोगों की मुख्य भूमिका होती है जो खुद को बुद्धिजीवी घोषित किये रहते हैं. बचपन तो इन शब्दों की सांसारिक, बौद्धिक परिभाषाओं से इतर अपनी बालसुलभ चंचलता, चपलता से इन्हें संवारता रहता है. उस उम्र में न शारीरिक आकर्षण, न वैचारिक तालमेल, न बौद्धिक विमर्श का भाव रहता है, बस सहगामी क्रियाओं में अपने दोस्तों का साथ ही प्यार, इश्क, दीवानगी माना-समझा जा सकता है. इसमें तब न समलिंगी का प्रभावी होना होता था न ही विपरीतलिंगी का. हमारे साथ भी, हमारी कक्षा में भी ऐसा कुछ था.

छोटे कद की, दुबली-पतली सी लड़की, रंग साफ़, गोल चेहरा, पढ़ने में तेज, दोस्ती करने में आगे. कक्षा में बच्चों की कम संख्या होने के कारण सभी बच्चे शिक्षिकाओं की निगाह में बने रहते थे. इसमें भी कुछेक अपनी सक्रियता से कुछ ज्यादा ही निगाह में बने हुए थे. ऐसे ही चंद बच्चों में वो लड़की भी शामिल थी. परीक्षाओं में, कक्षा में होते टेस्ट में हम दोनों में दौड़ चलती रहती. कभी वो आगे, कभी हम. किसी विषय में वो तेज, किसी में हम. वो सुरीली आवाज़ में गीत गाने में माहिर तो हम जोशीले भाषण देने में पारंगत. कुल मिलाकर एक स्वस्थ प्रतियोगिता होने के साथ-साथ गहरी दोस्ती. कक्षा मॉनिटर से लेकर कई-कई कार्यों में हम दोनों का साथ रहता. मौज-मस्ती, शरारतें-शैतानियाँ एकसाथ स्कूल प्रांगण में टहलती-घूमती दिखतीं. 

दोस्ती का वो छोटा सा सफ़र स्कूल से निकलने के बाद बहुत आगे तक नहीं चला. स्कूल अलग हुआ, विषय बदल गए और उसी के साथ रास्ते भी अलग-अलग हो गए. इसके साथ ही तब के उरई जैसे छोटे शहर की सोच को भी आज बखूबी समझा जा सकता है. कभी-कभार रास्ते चलते, स्कूल से आते-जाते मुलाकात हो जाती तो हाय-हैलो हो जाती. मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता बस. उसका लड़की होना, माता-पिता का सख्त अनुशासन उसे भयभीत किये रहता. हमारी अंतिम मुलाकात हमारे स्नातक अध्ययन के दौरान हुई. चूँकि आपस में कभी प्रेम, इश्क जैसी भावना पली नहीं सो न कभी पत्रों का आदान-प्रदान हुआ. मोबाइल का जन्म उस ज़माने में हुआ भी नहीं था सो न सोशल मीडिया, न कोई मैसेज. वेलेंटाइन डे का पारा भी बहुत बाद में चढ़ना शुरू हुआ, सो दोस्ती से आगे की बात को सोचा भी नहीं गया, न गिफ्ट उपहारों का लेना-देना हुआ.

पता नहीं ऐसी कोई बात बनती भी? पता नहीं दोस्ती का सफ़र किसी और रूप में आगे बढ़ता भी? पता नहीं, के अनिश्चय के साथ वो हमेशा को शहर को छोड़ गई. कहाँ? पता नहीं. किसी से पूछा भी नहीं. आखिर पूछते भी किससे? आखिर पूछते भी क्या? बस याद अब भी है. छवि अब भी बसी है. और यदि यही प्रेम है तो कह सकते हैं कि लरिकाई को प्रेम अलि कहो कैसे छूटे!


Saturday 5 January 2019

बहती आँखें उसे जाते हुए देखती रहीं


मुलाकात जब पहली बार हुई तो न फिल्मों की तरह पहली नजर वाला आकर्षण उभरा, न पहली नजर के प्रेम जैसा कुछ एहसास हुआ. हाँ, एक तरह का आकर्षण उसके प्रति महसूस हुआ था. उससे मिलना अच्छा सा, सुखद सा लगा था. कुछ दिनों की कुछ मुलाकातें जो हँसी-मजाक के साथ ख़तम हो गईं. हम दोनों की अपनी-अपनी राहें थीं, अध्ययन वालीं, सो आगे चल दिए. पढ़ने को, डिग्री लेने को. पर वो कहते हैं न कि दुनिया गोल है, किसी न किसी दिन फिर मिलते हैं. हम दोनों फिर मिले, अबकी कुछ साल बाद मिले.

पहली बार की मुलाकात के समय के मुकाबले अबकी मुलाकात में हम दोनों कुछ परिपक्व भी थे. इस परिपक्वता में भी पहली नजर के आकर्षण जैसा कुछ न हुआ, न इधर, न उधर. इसके बाद भी वही आकर्षण समझ आया जो पहली मुलाकात में लगा था. वैसा ही अच्छा लगने जैसा, वैसा ही सुखद एहसास जागा था जैसा कि पहली मुलाकात में जागा था. इसके बाद मुलाकातें हुई, कई बार हुईं, नियमित न सही मगर जल्दी-जल्दी हुईं. वैचारिकता के अपने-अपने धरातल निर्मित हो चुके थे. सोचने-समझने की मानसिकता भी विकसित हो चुकी थी. क्या सही है, क्या गलत है की दृष्टि विकसित हो चुकी थी.

ऐसा भी नहीं कि सौन्दर्य बोध का अभाव रहा हो. आँखों में चुम्बकीय आकर्षण, चेहरे पर प्राकृतिक मुस्कान, सादगी का प्रतिरूप. इसके बाद भी महज शारीरिक आकर्षण जैसा कुछ नहीं था. इसका कारण यही रहा कि उसे कभी भी देह के मापदंडों पर नहीं आँका. बहरहाल, समय गुजरता रहा, मुलाकातें चलती रहीं मगर ख़ामोशी उसी तरह बनी रही. उस ख़ामोशी के साए में कुछ स्वर गूँजे. कुछ कहने का प्रयास हुआ.

उस शाम उससे पहली बार मिलना तो हो नहीं रहा था. पहले भी कई-कई बार मुलाकात हो चुकी थी. मिलना-जुलना भले नियमित नहीं होता रहा किन्तु होता रहा था. आपस में बातचीत, हँसी-मजाक, छेड़छाड़, गपशप होती रहती थी किन्तु उस शाम की मुलाकात ने दिल को झंकृत कर दिया. समझ नहीं आ रहा था कि ये प्यार है या फिर जब पहली बार मुलाकात हुई थी, तब जो आकर्षण जागा था, वो प्यार था

बेधड़क किसी से भी कुछ भी कह देने की सामर्थ्य कहीं चुकती सी लगने लगी. बहती नदी के धारे संग-संग भावनाएं बन रही थीं, दोस्त की बाँह थामे हिम्मत बटोरने की कोशिश की जा रही थी. अंततः बहती आँखें उसे जाते हुए देखती रहीं और कभी उसका कहा सत्य साबित हुआ कि आँसू सँभाल कर रखिये, किसी दिन हमारे लिए भी बहाने पड़ेंगे.