Wednesday, 27 September 2017

गुब्बारों के फूटने में बच्चे की हँसी

उसका कुछ भी नाम हो सकता है, कोई भी जाति हो सकती है, कोई भी धर्म हो सकता है. असल में भूख का कोई नाम नहीं होता, मजबूरी की कोई जाति नहीं होती, समस्याओं का कोई धर्म नहीं होता. नाम, जाति, धर्म का ओढ़ना ओढ़े हुए वह बच्चा शहर को एक तरफ से दूसरी तरफ नापने में लगा हुआ था. उस जैसे और भी बच्चे हो सकते हैं. हो सकते हैं क्या, ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो अपना बचपन भूलकर पेट की आग शांत करने का जुगाड़ करने में लगे हैं. वह भी ऐसे अनेकानेक बच्चों के बीच का एक बच्चा था. 

उसी तरफ से गुब्बारे बेचने का एक मन को छूने वाला आग्रह हुआ. हमारे एक पल की देरी से आने वाले जवाब के अन्तराल के साथ ही घर जाने की उसकी आतुरता दिखाई दी. किसी भी बच्चे का पेट की आग बुझाने को काम करते देखना अपने आपमें दुखद होता है. इसके बाद भी यदि किसी बच्चे द्वारा कोई हल्का-फुल्का सा काम करते देखते हैं तो अपने आपमें इसका सुकून मिलता है कि कम से कम वो भीख तो नहीं माँग रहा, किसी की जेब तो नहीं काट रहा, कहीं चोरी-चकारी तो नहीं कर रहा है. 

गुब्बारे लेने के आग्रह के समय रात का आठ बजने को आया था. हलकी सी सर्दी के बीच उस बच्चे को अभी लगभग पाँच-छह किमी दूर अपने गाँव जाना था. उसके गुब्बारे लेने का आग्रह स्वीकार किया तो उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी. इस सहमति के साथ जैसे ही उसकी एक फोटो खींचने की अनुमति उससे माँगी तो उरई शहर के पास के एक गाँव का निवासी, वहीं गाँव के विद्यालय में कक्षा छह का विद्यार्थी वह बच्चा अपनी फोटो लिए जाने की बात से चहक उठा. एक पल को भूल गया कि उसने गुब्बारे लेने का आग्रह किया था. दो फोटो खींच सके कि उसकी ख़ुशी पर पेट की आग फिर हावी हो गई. पेट की आग कहाँ कुछ भूलने देती है, उसकी एक पल की ख़ुशी के पीछे प्रश्नवाचक शब्द निकले. भूख ने उसके अन्दर संदेह पैदा किया कहीं बिना गुब्बारे लिए ही बस फोटो खींच कर ये भाग न जाये. गुब्बारे के धीमे से निकले उसके स्वर को अपनी सहमति के द्वारा आश्वस्त किया तो उसके चेहरे पर फिर से मुस्कान तैर गई.

फोटो खींचने के बीच मोबाइल अपनी जेब के हवाले किया. गुब्बारों के लेने और पैसों के देने के बीच उसने अपने बारे में बताया. विद्यालय जाना और फिर लौटकर गुब्बारे लेकर उरई आ जाना. दिनभर में कोई 35-40 गुब्बारे बेचने के बाद रात को गाँव वापस पहुँच कर कुछ लिख-पढ़ लेना. कक्षा छह के विद्यार्थी को अनुशासित रूप में विद्यालय-परिवार, अध्ययन-व्यवसाय, घर-बाज़ार के साथ तालमेल बनाये देखना अपने आपमें अचरज में डाल गया. एकबारगी मन में आया कि इसकी मदद कुछ पैसे देकर की जाये फिर लगा कि जो बच्चा खुद को कहीं न कहीं भीख माँगने से अलग रखे हुए है, उसे धन की मदद भिक्षावृत्ति को प्रेरित तो नहीं कर देगी? साथ ही लगा कि जो बच्चा पूरे अनुशासित रूप में अपना संतुलन बनाकर आगे बढ़ रहा है, कहीं उसकी खुद्दारी, उसकी राह में व्यवधान उत्पन्न तो नहीं करेगा.

इस दो-चार मिनट की उलझन के बाद जितना संभव हो सकता था, गुब्बारे लिए. गाड़ी-सामान के साथ हाथों की सीमित संख्या ने भी गुब्बारों की खरीद पर अंकुश लगाया. बच्चा अपनी अतुलित प्रसन्नता के साथ गुब्बारे तोड़-तोड़ देता जा रहा था और हम उनको संभालने में लगे हुए थे. बाज़ार से घर तक की यात्रा में कुछ गुब्बारे नवदुर्गा के पावन अवसर पर सजी देवी माँ की झांकियां देख लौट रहे बच्चों में बंट गए तो कुछ गुब्बारे भीड़ की, हवा की चपेट में आकर फूट गए. फट-फट की आवाज़ लोगों में क्या सन्देश दे रही होगी ये तो पता नहीं पर हमें कहीं न कहीं उस ध्वनि में बच्चे की हँसी सुनाई दे रही थी. घर पहुँचने के बाद घर के बच्चे भी चहक-चहक कर बचे हुए कुछ गुब्बारों को फोड़ने-उड़ाने में लग गए.