होली आये और होली
में किये हुए हुड़दंग भी याद न आयें तो समझो कि होली मनाई ही नहीं. हम लोग संयुक्त परिवार
में रहते आये हैं और बचपन से ही सभी परिजनों के साथ ही होली का मजा लूटते रहे हैं.
होली जलने की रात से शुरू हुआ धमाल कई-कई दिनों तक चलता रहता था. बचपन में अपने बड़ों
की मदद से होली का हुड़दंग किया जाता था जो बड़े होने पर स्वतंत्र रूप में बदल गया. हॉस्टल का माहौल
पारिवारिकता से भरपूर था. हम सभी छात्रों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं था. पहला
ही साल था और हम सभी मिलकर दीपावली, दशहरा आदि अपने-अपने घरों में मनाने के पहले हॉस्टल में एकसाथ
मना लिया करते थे. इसी विचार के साथ कि होली भी घर जाने के पहले हॉस्टल में मना ली
जायेगी सभी कुछ न कुछ प्लानिंग करने में लगे थे.
हम कुछ लोगों का
एक ग्रुप इस तरह का था जो हॉस्टल की व्यवस्था में कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा करता था.
इसी कारण से उन दिनों हॉस्टल की कैंटीन की जिम्मेवारी हम सदस्यों पर ही थी. होली की
छुट्टियां होने के ठीक दो-तीन दिन पहले रविवार था. रविवार इस कारण से हम लोगों के लिए
विशेष हुआ करता था कि उस दिन एक समय, सुबह ही, भोजन बना करता था. खाना बनाने वाले को
रात के खाने का अवकाश दिया जाता था. इसी वजह से रविवार को पूड़ी, सब्जी, खीर, रायता आदि बनाया जाता था.
हम सदस्यों ने सोचा
कि कुछ अलग तरह से इस दिन का मजा लिया जाये. हमारी इस सोच में और तड़का इससे और लग गया
जब पता चला कि हॉस्टल के बहुत से छात्र उसी रविवार को अपने-अपने घर जा रहे हैं. रविवार
के भोजन को खास बनाने की योजना हम दोस्तों तक रही और अन्य सभी छात्रों के साथ आम सहमति
बनी कि होली इसी रविवार को खेली जायेगी, उसके बाद ही जिसको घर जाना है वो जायेगा. अपनी योजना के मुताबिक उस दिन खीर में खूब सारी भांग मिलवा दी. इस बात की चर्चा
किसी से भी नहीं की. सभी ने मिलकर खाना खाया और हम दोस्तों ने सभी को खूब छक कर खीर
खिलवाई. मीठे के साथ भांग का नशा और उस पर होली की हुड़दंग का सुरूर. हॉस्टल के सभी
छात्रों पर तो जैसे मस्ती खुद आकर विराज गई हो. खूब दम से होली खेली जाने लगी, टेप चलाकर गानों के साथ नाच भी शुरू हुआ. किसी
के बीच सीनियर-जूनियर जैसी बात नहीं दिख रही थी.
इसी बीच कुछ छात्र
जो होली नहीं खेलना चाहते थे और उन्हें घर भी जाना था, सो उन्होंने खीर भी इतनी नहीं खाई थी कि नशा
उनको अपने वश में करता. ऐसे लगभग पांच-छह छात्रों ने हॉस्टल की दीवार फांदकर रेलवे
स्टेशन की ओर भागना शुरू किया. उनके दीवार फांदने का कारण ये था कि हम सभी रंगों से
भरी बाल्टी आदि लेकर दरवाजे पर ही बैठे थे ताकि कोई भी बिना रंगे घर न जा पाये. हम
लोगों को भनक लग गई कि कुछ लोग जो हमारी इस होली में साथ नहीं हैं वे पीछे से भाग गये.
बस फिर क्या था, होली का हुड़दंग सिर पर चढ़ा हुआ था, भांग का नशा अपनी मस्ती दिखा ही रहा था, हम सभी जो जिस
तरह से बैठा था वैसे ही रेलवे स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा.
कोई नंगे पैर तो
कोई एक पैर में चप्पल-एक पैर में जूता बिधाये; कोई शर्ट तो पहने है पर पैंट गायब तो कोई नंगे बदन दौड़े ही जा
रहा था. और तो और उन्हें रंगना भी था जो बिना रंगे निकल पड़े थे तो हाथों में रंगों
से भरी बाल्टी भी लिये सड़क पर दौड़ चल रही थी. आप सोचिए कि बिना होली आये, होली जैसी मस्ती को धारण किये एकसाथ दस-पंद्रह लड़के बिना किसी की परवाह किये
सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे. लगभग चार-पांच किमी की दौड़ लगाने के बाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म
पर हुरियारों की टोली पहुंच ही गई, वे भी स्टेशन पर बरामद कर
लिए गये जिनको रंगना था. बस फिर क्या था चालू हो गई होली रेलवे स्टेशन पर ही. मस्ती का मूड, भांग का सुरूर, अपने साथियों
को रंगने के बाद अपनी तरह के ही कुछ मस्ती के दीवाने यात्रियों को भी रंगना शुरू किया
गया. कुछ देर का हुल्लड़ देखने के बाद प्लेटफॉर्म पर बनी चौकी के सिपाहियों ने आकर दो-दो
हाथ करने चाहे तो रंगीन हाथ उनके साथ भी हो
गये. बाद में समझाने पर सभी वापस हॉस्टल लौट आये.
भांग का नशा तो
दूसरे दिन दोपहर तक उतर गया किन्तु सिर का भारीपन दो दिनों तक बना रहा. इसी भारीपन
में नीबू चूस-चूस कर अपनी प्रयोगात्मक परीक्षा दी, जो सोमवार को सुबह सम्पन्न हुई. रेलवे स्टेशन की हमारी होली की
खबर हमारे हॉस्टल वार्डन डॉ० धीरेन्द्र सिंह चन्देल साहब के पास तक आ चुकी थी.
सभी प्रोफेसर्स को भी पता था कि हम लोग किस तरह की मस्ती के बाद प्रयोगात्मक परीक्षा
दे रहे हैं. यह तो भला हो उन सभी गुरुजनों का जिन्होंने पूरे सहयोग के साथ हमारी होली
के आनन्द और प्रयोगात्मक परीक्षा के बीच संतुलन बिठा दिया.
आज भी कभी-कभी होली
में भांग का स्वाद लेने का प्रयास किया जाता है तो हॉस्टल की होली और रेलवे स्टेशन
का हुड़दंग याद आये बिना नहीं रहता है.