प्यार, इश्क, प्रेम, दीवानगी, आकर्षण आदि शब्दों का बचपने से कोई तारतम्य
नहीं होता है. इन कोमल शब्दों को भारी-भरकम बनाने में समाज के उन लोगों की मुख्य भूमिका
होती है जो खुद को बुद्धिजीवी घोषित किये रहते हैं. बचपन तो इन शब्दों की सांसारिक,
बौद्धिक परिभाषाओं से इतर अपनी बालसुलभ चंचलता, चपलता से इन्हें संवारता रहता है. उस उम्र में न शारीरिक आकर्षण, न वैचारिक तालमेल, न बौद्धिक विमर्श का भाव रहता है,
बस सहगामी क्रियाओं में अपने दोस्तों का साथ ही प्यार, इश्क,
दीवानगी माना-समझा जा सकता है. इसमें तब न समलिंगी का प्रभावी होना होता
था न ही विपरीतलिंगी का. हमारे साथ भी, हमारी कक्षा में भी ऐसा
कुछ था.
छोटे कद की, दुबली-पतली सी लड़की, रंग
साफ़, गोल चेहरा, पढ़ने में तेज, दोस्ती करने में आगे. कक्षा में बच्चों की कम संख्या होने के कारण सभी बच्चे
शिक्षिकाओं की निगाह में बने रहते थे. इसमें भी कुछेक अपनी सक्रियता से कुछ ज्यादा
ही निगाह में बने हुए थे. ऐसे ही चंद बच्चों में वो लड़की भी शामिल थी. परीक्षाओं में,
कक्षा में होते टेस्ट में हम दोनों में दौड़ चलती रहती. कभी वो आगे,
कभी हम. किसी विषय में वो तेज, किसी में हम. वो
सुरीली आवाज़ में गीत गाने में माहिर तो हम जोशीले भाषण देने में पारंगत. कुल मिलाकर
एक स्वस्थ प्रतियोगिता होने के साथ-साथ गहरी दोस्ती. कक्षा मॉनिटर से लेकर कई-कई कार्यों
में हम दोनों का साथ रहता. मौज-मस्ती, शरारतें-शैतानियाँ एकसाथ
स्कूल प्रांगण में टहलती-घूमती दिखतीं.
दोस्ती का वो छोटा
सा सफ़र स्कूल से निकलने के बाद बहुत आगे तक नहीं चला. स्कूल अलग हुआ, विषय बदल गए और उसी के साथ रास्ते भी अलग-अलग
हो गए. इसके साथ ही तब के उरई जैसे छोटे शहर की सोच को भी आज बखूबी समझा जा सकता है.
कभी-कभार रास्ते चलते, स्कूल से आते-जाते मुलाकात हो जाती तो
हाय-हैलो हो जाती. मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता बस. उसका लड़की होना, माता-पिता का सख्त अनुशासन उसे भयभीत किये रहता. हमारी अंतिम मुलाकात हमारे
स्नातक अध्ययन के दौरान हुई. चूँकि आपस में कभी प्रेम, इश्क जैसी
भावना पली नहीं सो न कभी पत्रों का आदान-प्रदान हुआ. मोबाइल का जन्म उस ज़माने में हुआ
भी नहीं था सो न सोशल मीडिया, न कोई मैसेज. वेलेंटाइन डे का पारा
भी बहुत बाद में चढ़ना शुरू हुआ, सो दोस्ती से आगे की बात को सोचा
भी नहीं गया, न गिफ्ट उपहारों का लेना-देना हुआ.
पता नहीं ऐसी कोई
बात बनती भी? पता नहीं दोस्ती का सफ़र किसी और रूप में आगे बढ़ता भी? पता नहीं, के अनिश्चय के साथ वो हमेशा को शहर को छोड़ गई. कहाँ? पता नहीं. किसी से पूछा भी नहीं. आखिर पूछते भी किससे? आखिर पूछते भी क्या? बस याद अब भी है. छवि अब भी बसी
है. और यदि यही प्रेम है तो कह सकते हैं कि लरिकाई को प्रेम अलि कहो कैसे छूटे!