Wednesday 30 July 2014

खौफ भरी छोटी सी यात्रा

हमको अपने छोटे भाई हर्षेन्द्र के साथ आगरा से एक परीक्षा देकर कानपुर आना था. रेलवे स्टेशन पहुँचकर पता लगा कि उस समय कानपुर के लिए कोई ट्रेन नहीं है. यदि आगरा से टुंडला पहुँच कर वहाँ से आसानी से कानपुर के लिए ट्रेन मिल जायेगी. आगरा से टुंडला तक बस से आने के बाद टुंडला स्टेशन पर जैसे ही पहुँचे पता लगा कि एक ट्रेन आ रही है. पैसेंजर ट्रेन थी और इसके बाद दो-तीन घंटे कोई ट्रेन भी नहीं थी, कानपुर पहुँचना अत्यावश्यक था. इस कारण से पैसेंजर ट्रेन में बैठने के अलावा कोई और रास्ता भी नहीं था. 

टिकट खिड़की पर जबरदस्त भीड़ होने के चलते टिकट मिलता संभव न लगा. पहले सोचा कि बिना टिकट ही चढ़ जायें पर कभी बिना टिकट यात्रा न करने के कारण से हिम्मत नहीं हो रही थी. सोचा-विचारी में समय न गँवा कर हमने तुरन्त सामने दरवाजे पर खड़े एक टिकट चेकर से अपनी समस्या बताई. 

उस ने बिना कोई तवज्जो दिये पूरी लापरवाही से कहा कि बैठ जाओ, पैसेंजर में कोई नहीं पकड़ता.

भाईसाहब कोई दिक्कत तो नहीं होगी? हमने शंका दूर करनी चाही.

उसको लगा कि कोई अनाड़ी हैं जो पहली बार बिना टिकट यात्रा करने की हिम्मत जुटा रहे हैं. सो उसने थोड़ा सा ध्यान हम लोगों की ओर दिया और बताया कि वैसे बिना टिकट जाने में कोई समस्या नहीं फिर भी यदि टिकट लेना है तो दो स्टेशन के बाद यह गाड़ी थोड़ी देर तक रुकती है, वहाँ से ले लेना.

उनके इतना कहते है जैसे हमें कोई संजीवनी मिल गई हो. हम दोनों भाई तुरन्त लपके क्योंकि गाड़ी भी रेंगने लगी थी. डिब्बे के अन्दर पहुँचते ही बैठ भी गये, सीट भी मिल गई पर इसके बाद हमारी जो हालत हुई कि पूछिए मत. आने-जाने वाला हर आदमी लगे कि टिकट चेक करने वाला आ गया. कभी इस तरफ देखें, कभी उस तरफ देखें. लगभग 45 मिनट की यात्रा के बाद वह स्टेशन आया जहाँ से टिकट लिया जा सकता था. तुरत-फुरत में दो टिकट लिए गए. अब सुकून मिला और कानपुर तक आराम से आये. आज भी छोटी सी मगर बिना टिकट यात्रा याद है.

Monday 14 July 2014

बचपन के वे सुहाने दिन

बचपन की ढेर सारी यादें आज भी साथ हैं. बचपन के दोस्त याद हैं. बचपन की शरारतें याद हैं. बचपन में मिलता प्यार-दुलार याद है. कुछ भी तो ऐसा नहीं जिसे भूला जाये और आखिर क्यों भूला जाये? यही एक ऐसी सम्पदा है जो ताउम्र साथ रहती है और कोई चाह कर भी न इसे भूल पाता है, न ही भुला पाता है. मासूम सा, निश्छल सा, प्यारा सा, शरारती सा, हँसता सा, उड़ता सा बचपन. बहुत कुछ ऐसा है जो हमें आज भी याद है. स्वतः की गई अनुभूति के कारण याद है. इसके साथ ही बहुत कुछ ऐसा है जो घर-परिवार के सदस्यों के द्वारा सुनते रहने के कारण याद है.

याद रखना, याद रखे रहना भी बड़ी गज़ब स्थिति है. क्या याद रखते-रखते क्या भूल जाएँ कह नहीं सकते. व्यक्ति अपने जीवन भर बहुत कुछ याद रखता है, बहुत कुछ भूलता भी है. इस याद रखने और भूलने के बीच वह अपने बचपन को कतई नहीं भूल पाता. इसी कारण वह बच्चों के साथ घुल-मिल कर अपने बचपन के दिनों को याद करने लगता है. हम भी इससे बच नहीं सके हैं. आज भी अपना वो पुराना घर, वो बरगद का विशाल पेड़, जिसके मैदान में हम बच्चे खूब धमाचौकड़ी मचाया करते थे, वो स्कूल, वे साथी और न जाने कितनी-कितनी कहानियाँ इधर लेखन के दौरान उभरती रहीं, मन में घुमड़ती रहीं. हर बार कोई कहानी याद आती, हर बार कलम रुककर फिर उसी बचपन में ले जाती. नवरात्रि का रात्रि जागरण, टेसू-झिंझिया का विवाह, मामुलिया का लोकोत्सव, रामलीला का आयोजन, निर्मित मकानों के बालू के ढेरों पर कूदना, पत्थर मार-मार कर बेर, इमली का गिराना, होली का हुल्लड़, दीपावली का धमाल जाने कितना-कितना है जो बार-बार बचपन में घसीट ले जाता है.

बचपन के वे दिन बहुत शिद्दत से याद आते हैं जबकि सभी चाचा-चाची, सभी भाई-बहिन होली, दीपावली उरई इकठ्ठा हुआ करते थे. उस हंगामी मस्ती में न दिन समझ आता था, न रात. न सुबह, न शाम. न खाने की सुध, न सोने की चिंता. बस चौबीस घंटे मस्ती ही मस्ती. ऐसा नहीं कि इसमें सिर्फ हम भाई-बहिन ही शामिल रहते थे. चाचा लोग भी एकदम से बच्चे बने हम सबके साथ उसी बेलौस अंदाज में मस्त रहते थे. घर का खुला हुआ लॉन, पास में बनी पुलिस चौकी का या फिर कॉलेज का ग्राउंड हम सबकी मस्ती का गवाह बनता. कभी पुराने कपड़ों पर साईकिल के ट्यूब को काटकर बनाये छल्लों के सहारे गेंद बनाई जाती तो कभी पॉलीथीन को जला-जलाकर.
घर के बाहर की मस्ती से अलग घर के अन्दर की धमाचौकड़ी भी कुछ अलग तरह की होती. कभी सैनिक बनकर देश की रक्षा की जाती, कभी अधिकारी बन कर जनता के काम किये जाते, कभी पुलिस वाला बनकर चोरियां रोकी जाती तो कभी शिक्षक बनकर पढ़ाने का काम किया जाता, कभी वकील-जज बनकर मुक़दमे निपटाए जाते. पलंग, चारपाई, कुर्सियाँ कार में बदल जाया करते थे. चम्मचें, कटोरियाँ, कंघे आदि घरेलू सामान सम्बंधित खेल के साजो-सामान के रूप में इस्तेमाल किये जाने लगते. 

होली के मस्ती भरे माहौल में क्या घर के लोग, क्या सड़क चलते लोग सभी को रंग लगाया जाता, सभी के साथ उसकी उम्र के हिसाब से अभिवादन करते हुए मिल जाता. दीपावली आती तो देर रात पटाखे चलाने के बाद अलस्सुबह उठकर अधचले, चलने से बचे पटाखों को छत पर बीनने का काम शुरू हो जाता. लालजी की चाट, छुटकन की मटर, संपत की दूध की बोतल, लालमन की जलेबी, स्टेशन के रसगुल्ले, सड़क किनारे लगे पानी के बताशे आदि कितनी-कितनी संख्या में हम बच्चों के पेट के अन्दर चले जाते, कुछ अंदाजा न होता.

आज भी त्योहारों पर अथवा किसी अन्य अवसरों पर सभी का मिलना, इकठ्ठा होना होता है मगर अब वो धमाल नहीं होता. मस्ती-हुड़दंग आज भी होता है मगर कतिपय सामाजिक स्थितियों ने सबकुछ एक निश्चित दायरे में समेट कर रख दिया है. बदलते दौर के इस सामाजिक परिवेश में आज भी वही परिवेश लगातार याद आता है. एक हमें ही नहीं घर में सबके इकठ्ठा होने पर न सही व्यावहारिक रूप में मगर बातचीत में वही माहौल फिर जन्म ले लेता है. हँसी-मजाक, यादें, स्मृतियाँ, पुराने किससे फिर सबको उन्हीं दिनों में सैर कराने निकल पड़ते हैं. भूल कर भी वे दिन फिर-फिर याद आ जाते हैं. इसी याद रखने, भूल जाने, रह-रह कर याद आने का नाम है कुछ सच्ची कुछ झूठी.