Tuesday 18 December 2018

सोशल मीडिया की उन्मुक्तता


मीडिया के साथ जुड़ाव बचपन से ही रहा है. पिताजी के मित्र दैनिक एलार्म समाचार-पत्र का प्रकाशन उरई से करते थे. उनके साथ पारिवारिक संबंधों के कारण पत्रकारिता को बहुत करीब से देखने का अवसर बचपन से ही मिला है. इसी तरह प्रिंट लाइन में जनपद जालौन में अपनी सबसे अलग स्थान रखने वाले श्री राजाराम गुप्ता जी से भी पारिवारिक सम्बन्ध होने के कारण इस क्षेत्र की बारीकियों को भी बहुत करीब से देखने-समझने का अवसर बचपन से ही मिला. हमारे अभी तक के अभिन्नतम मित्रों में से एक अश्विनी कुमार गुप्ता ‘बबलू’ जो श्री राजाराम गुप्ता जी के नाती हैं, और हम बचपन से अभी तक एक-दूसरे के साये की तरह एक-दूसरे के साथ हैं. 

स्नातक करने के बाद अपने लेखन शौक के कारण खुद भी मीडिया के संपर्क में आये. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संपर्क हुआ, सम्बन्ध बने. इस मीडिया से संपर्क विस्तार के बाद जब सोशल मीडिया में प्रवेश किया तो पता नहीं था कि उसमें जितनी राहें हैं वे सारी भूलभुलैया की तरह काम करती हैं. जरा सा भटके नहीं कि फिर उसी में खो गए. सोशल मीडिया की राह पर चलना शुरू किया ब्लॉग के माध्यम से जो चलते-चलते कब फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर आदि तक पहुँच गया, पता ही नहीं चला.

वैचारिक आदान-प्रदान के लिए सर्वोत्तम मंच समझकर यहाँ अपनी उपस्थिति कुछ ज्यादा ही बना ली. इस उपस्थिति के अपने ही परिणाम निकले. बहुत से लोग बौद्धिक विमर्श में सहायक बने, उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. कुछ लोग सामाजिकता में वृद्धि करते दिखे तो उनसे भी सीखा गया. कुछ लोगों का कार्य पूर्वाग्रह से भरकर सिर्फ वैमनष्यता ही फैलाता दिखा तो कुछ दिन उनसे तर्क-वितर्क की स्थिति के बाद लगा कि ऐसे लोगों से बहस का कोई सार नहीं. सो ऐसे लोगों से किनारा करना ज्यादा उचित समझ आया. और भी तमाम तरह की प्रजातियाँ सोशल मीडिया पर मिलीं.

इन्हीं में से एक प्रजाति ऐसी मिली जिसका काम इनबॉक्स में आकर हाय, हैलो करना, दो-चार बार के बाद उससे भी कई कदम आगे जाकर प्यार का इजहार करना, शारीरिक सम्बन्ध बनाने की चाह व्यक्त करना, न्यूड फोटो भेजना शुरू हो जाता. इस तरह के कृत्य करने के बाद भी इस प्रजाति का दम ये भरना रहता कि हमसे प्रेम करती हैं, दिल की गहराइयों से प्रेम करती हैं, हमारे प्यार में सबकुछ कर गुजर जायेंगी. ऐसे कृत्य में जहाँ कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियाँ शामिल थीं वहीं कई वयस्क महिलाएं भी शामिल रहीं. कुछ का जुड़ना होता पाठ्यक्रम सम्बन्धी चर्चाओं के द्वारा, कुछ का सामाजिक कार्यों में सहयोग की खातिर, कुछ का साहित्यिक क्षेत्र के कारण. दो-चार रोज काम की चर्चाओं, बातचीत के बाद उनका अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया जाता.

ऐसी अनेक प्रोफाइल के लिए सोशल मीडिया पर खुलकर पुरुष-विरोधी अभियान चलाया गया. पुरुषों को खुलकर इसके लिए आरोपी बनाया गया. ये सच हो सकता है कि पुरुष इनबॉक्स में घुसकर बहुतेरी महिलाओं के साथ अशालीन अभिव्यक्ति दर्शाते हों. इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि महिलाओं में भी इस तरह की प्रवृत्ति पाई जाती है. यहाँ बिना किसी दोषारोपण के दोनों पक्षों को समझना होगा कि यौनेच्छा किसी एक व्यक्ति या एक वर्ग के पास नहीं है. किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा, मगर इसकी चाह जितनी पुरुष को है, उतनी ही महिला को भी. इसके अलावा सामाजिक बंधनों के बीच पूर्णरूप से स्वतंत्र सोशल मीडिया ने अपनी कामेच्छा को प्रकट करने का आधार प्रदान करवा दिया है. अपने एहसासों को, जज्बातों को दर्शाने का माध्यम प्रदान करवा दिया है. इस निर्बन्धन ने शर्म के बंधन तोड़े हैं, लज्जा के बंधन तोड़े हैं, प्रकटीकरण के द्वार खोले हैं, उन्मुक्तता के द्वार खोले हैं.

तब लगा कि सोशल मीडिया के प्रति लोगों के, विशेष रूप से युवाओं के आकर्षण ने विचारों की अभिव्यक्ति को कितनी स्वतंत्रता दे दी है. विचारों में भी ख़ास तौर से सेक्स सम्बन्धी अभिव्यक्ति को, नग्नता प्रदर्शित करने सम्बन्धी अभिव्यक्ति को. सेक्स की इस उन्मुक्त अभिव्यक्ति के साथ ये सभी लोग, वे चाहे पुरुष हों या स्त्री, किस स्वतंत्रता के पोषक बनेंगे, पता नहीं.

Wednesday 14 November 2018

आधी रात और खिड़की वाला भूत


रात गहरा चुकी थी और हम मित्रों द्वारा बातों के बताशे बनाने भी बन्द किये जा चुके थे, सो नींद के आगोश में मजबूरीवश जाना ही था. सभी ने विदा ली और अपने-अपने कमरों की ओर चल दिये. ठण्ड के दिन होने के कारण रजाई में घुसते, लेटते ही नींद का आना तो होना नहीं था, दोस्त-यारों के साथ हुई बातों को सोच-सोच मन ही मन हँसते-मुस्कराते सोने का उपक्रम करने लगे. सोचते-विचारते, हँसते-मुस्कराते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला.

एकाएक खर्र-खर्र की आवाज ने चौंक कर उठा दिया. हाथ बढ़ा कर मेज पर रखे टेबिल लैम्प को रोशन किया. आवाज बन्द. इधर-उधर, कमरे में निगाह मारी कि कहीं बिल्ली या फिर कोई चूहा आदि न घुस आया हो पर कहीं कुछ नहीं. सपना समझ कर सिर को झटका और टेबिल लैम्प की लाइट को बुझा कर रजाई में फिर से घुस गये. खर्र-खर्र की आवाज आनी फिर शुरू. जैसे ही हाथ बढ़ा कर लाइट जलाई आवाज आनी बन्द.

एक-दो मिनट लाइट को जलने दिया तो आवाज नहीं हुई. अबकी पलंग पर बैठे ही रहे और लाइट बन्द कर दी. जैसे ही रोशनी गई आवाज आनी शुरू हुई. वहीं डरावनी सी खर्र-खर्र. बिना टेबिल लैम्प को जलाये आवाज को सुनने का प्रयास किया कि आ कहाँ से रही है? अगले ही पल समझ में आ गया कि आवाज खिड़की की तरफ से आ रही है. टेबिल लैम्प जलाया तो आवाज आनी बन्द हो गई. लगा कि दोस्त लोग डराना चाह रहे हैं क्योंकि आज हमारे रूम-पार्टनर, राजीव त्रिपाठी भी नहीं थे. उसके होने पर होता भी क्या, हमारे साथ-साथ वो भी डरता. असल में हॉस्टल में किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि के किस्से सुनाये जाते थे. किसी कमरे को भुतहा बनाया जाता, किसी पेड़ पर भूत का निवास बताया जाता. इससे डर का माहौल बना ही रहता. यह सब लगभग रोज का नियम होता था. आज भी महफिल जमी थी बातों-बातों में डरावने किस्से भी तैर चुके थे.

खिड़की की तरफ मुँह करके एक-दो आवाजें दीं पर कोई आहट भी नहीं मिली. लाइट जलता छोड़कर रजाई ओढ़ कर लेटे पर आवाज नहीं आई. लाइट बन्द की और आवाज आनी शुरू. हम चुपचाप बिना आहट के यह समझने और देखने की कोशिश करने लगे कि कहीं खिड़की पर कोई है तो नहीं? लगभग चार-पाँच मिनट की कोशिश के बाद भी कोई समझ न आया और कोई आहट भी नहीं समझ आई, हाँ, खर्र-खर्र की आवाज लगातार होती रही. अब थोड़ा सा डर लगा. एक तो अकेले होने का डर और ऊपर से हॉस्टल के चर्चित भूतों का डर. हालांकि हमें कभी भी भूत-प्रेत जैसी बातों से डर नहीं लगा किन्तु माहौल का नया-नया होना और फिर रोज-रोज के वहीं किस्सों ने आज मन में डर पैदा कर दिया. हॉस्टल में हम कुछ लोगों के कमरों में विशेष हथियार सुशोभित होते रहते थे. उसी में से एक हथियार पलंग में गद्दे के नीचे से निकाल खुद को मजबूती प्रदान की. आवाज़ होते ही लाइट जलाई और एकदम से कूद कर खिड़की पर आ गये. यह सोचा कि यदि भूतों के हाथों मरना लिखा होगा तो यही सही और यदि दोस्त लोग हैं तो उनको सीधे-सीधे पकड़ा जा सकता है. 

खिड़की से जो देखा उसने डर तो दूर कर दिया पर चौकीदार बाबा के ऊपर गुस्सा ला दिया. चिल्ला कर बाबा को बुलाया. खर्र-खर्र की आवाज को पैदा करने वाला कोई भूत नहीं और न ही हमारे कोई मित्र वगैरह थे. एक गाय हमारे कमरे के ठीक नीचे खड़े होकर वहाँ लगे पेड़ के तने से अपना सींग रगड़ती थी तो खर्र-खर्र की डरावनी सी आवाज होने लगती थी. जैसे ही लाइट जलती वह सींग रगड़ना रोक देती और जैसे ही लाइट बन्द होती वैसे ही उसका सींग पेड़ के तने पर रगड़ना शुरू हो जाता. चौकीदार बाबा ने आकर उस गाय को वहाँ से दूर भगाया और हम भी अपने मन में एक पल को बिठा चुके भूत को भगा कर फिर से रजाई में दुबक गये.

Wednesday 19 September 2018

कन्या भ्रूण हत्या वाले कुमारेन्द्र


जब काम मनमाफिक न हो तो उसमें मन नहीं लगता. कुछ ऐसा ही हमारे साथ प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर हो रहा था, नौकरी को लेकर हो रहा था. सपना था सिविल सेवा में जाने का मगर वो हकीकत में न बदल सका. किसी और नौकरी के प्रति किसी तरह की दिलचस्पी नहीं थी. प्राइवेट नौकरी का मन अपने स्वभाव के कारण कभी नहीं हुआ. क्या किया जाये, क्या नहीं, इस ऊहापोह में सिर्फ समय ही बर्बाद हो रहा था. इसी तरह के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच 1998 में अजन्मी बेटियों को बचाने की मुहिम छेड़ दी. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के दौरान इस सम्बन्ध में बहुत से आँकड़े मिले जो निराशा पैदा करते थे. आश्चर्य तब हुआ यह जानकर कि जिले में कार्यरत तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं में से कोई भी कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कार्य नहीं कर रही थी. 

जिले में जब काम शुरू किया तो अपनी तरह का पहला काम होने के कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये, कैसे किया जाये. इसके साथ ही सामान्यजन को भी समझ नहीं आ रहा था कि हम उसके साथ किस मुद्दे पर बात कर रहे हैं. जनता सहयोग करने की इच्छा रख रही थी मगर उसकी समझ से परे था कि सहयोग क्या और कैसे किया जाये? प्रशासन, मुख्य चिकित्सा अधिकारी, अन्य चिकित्सा अधिकारियों से भी इस सम्बन्ध में कोई सहयोग नहीं मिल रहा था. समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के माध्यम से तमाम जानकारियाँ, आँकड़े जुटाए और जनपद में लोगों को इस बारे में जागरूक करने का प्रयास किया.

इस प्रयास में बहुत से खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए. एक महिला चिकित्सक द्वारा जेल भिजवाने तक की धमकी दी गई.  बुजुर्ग महिलाओं-पुरुषों द्वारा इस बारे में पुरानी धारणाओं पर अडिग रहने की मानसिकता दिखी तो युवाओं द्वारा परिवर्तन करने की सोच परिलक्षित हुई. उसी दौरान महिला चिकित्सालय में एक जागरूकता कार्यक्रम के दौरान लोगों को पीएनडीटी के नियमों, दंड आदि को बताया-समझाया जा रहा था. उसी समय एक बुजुर्ग महिला ने अपना अनोखा सुझाव दिया. उसने कहा कि बेटा, सरकार से कहो कि जिसके दो-तीन बेटियाँ हैं उनको यह जांच फ्री करे कि पेट में लड़का है या लड़की है. उसे पकड़े नहीं, न ही जेल में डाले. जब उस बुजुर्ग महिला को समझाया कि ऐसा करने दिया तो लोग लड़कियों को मार डालेंगे. तमाम तरह के उदाहरणों से उस महिला को समझाया कि बेटियाँ भी अब परिवार का नाम रोशन करती हैं, वंश-वृद्धि करती हैं. बहुत देर तक उस महिला से बात करने पर अंततः उस वृद्ध महिला को एहसास हुआ कि बेटियों को भी जन्म दिया जाना चाहिए. इसके बाद उस महिला ने हमारे सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया. ऐसे एक-दो नहीं अनेक घटनाएँ इस कार्यक्रम के सञ्चालन में हमारे साथ घटीं.

कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम का आधार हमने इंटरमीडिएट के विद्यार्थियों, महाविद्यालय के विद्यार्थियों, युवाओं को बनाया हुआ था. इसके अलावा एनसीसी और एनएसएस के बच्चों के बीच इस कार्यक्रम को लगातार किया जाता. हमारा मानना है कि यदि नई पीढ़ी जागरूक हो जाये तो आने वाले समय में बेटियों को बोझ समझना अपने आप समाप्त हो जायेगा. इन नवजवानों के साथ-साथ बुजुर्गजनों को भी अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाया और उनको बेटियों के महत्त्व को समझाया.

बेटियों को बचाने का जूनून सा था. काम करना था, कहीं से कोई फंडिंग नहीं थी, प्रशासनिक सहयोग किसी भी तरह से नहीं मिल रहा था. तमाम खर्चों की पूर्ति मित्रों और समाज के कतिपय शुभचिंतकों द्वारा हो जाती थी. इसी दौरान एक कार्यक्रम के माध्यम से लखनऊ की संस्था वात्सल्य से संपर्क हुआ, जो कन्या भ्रूण हत्या निवारण पर कार्य कर रही थी. वात्सल्य को हमारा अभी तक का कार्य बहुत पसंद आया और उसी के आधार पर उनके कोपल प्रोजेक्ट से हमारा जुड़ना हुआ. इस प्रोजेक्ट से जुड़ने से कुछ आर्थिक सहयोग अवश्य मिला किन्तु उसी दौरान हुई अपनी दुर्घटना के कारण यह प्रोजेक्ट हाथ से निकल गया. एक साल बिस्तर पर ही निकल गया. योजनायें बनती रहीं, संपर्क बनाये रखे गए और अंततः अपनी सबसे प्रिय छोटी बहिन दीपू (दीपशिखा) के नाम पर संचालित अपनी संस्था दीपशिखा के तत्त्वावधान में सन 2006 से राष्ट्रव्यापी अभियान बिटोली आरम्भ कर दिया.

जनपद में पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते, बाबाजी, पिताजी के नाम से जो पहचान मिली वो आज भी हमारा आधार बनी हुई है. इसके अलावा व्यक्तिगत रूप से हमारी पहचान को विस्तार देने का कार्य हमारे सामाजिक कार्यों, सांस्कृतिक अभिरुचि, लेखकीय क्षमता के साथ-साथ कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम ने किया. यदि कहा जाये कि सबसे अधिक पहचान कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम से मिली तो अतिश्योक्ति न होगी. इसका एक पहलू ये भी सामने आया कि जनपद में बहुतायत लोग त्रुटिवश कन्या भ्रूण हत्या वाले कुमारेन्द्र का संबोधन कर जाते हैं. हमसे, हमारे कार्यों से अनभिज्ञ लोग ऐसा सुनकर भले ही हमारे प्रति कोई नकारात्मक विचार बनायें, हम उसी समय हँसकर सुधार करवा देते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या वाले कुमारेन्द्र नहीं बल्कि कन्या भ्रूण हत्या निवारण वाले कुमारेन्द्र.

आज भी यदाकदा वे परिवार, वे बच्चियाँ मिल जाती हैं जो हमारे जागरूकता कार्यक्रम के कारण इस संसार में हैं तो ख़ुशी होती है. ये और बात है कि उनको हम मर्यादावश सार्वजनिक रूप से सामने नहीं ला सकते. बहुत सी बेटियों को बचा सके और बहुत सी बेटियों को बचा भी न सके. सैकड़ों परिवारों को जागरूक किया पर सैकड़ों को समझा भी न सके. आज कई साल इस अभियान को संचालित करते हुए गुजर गए मगर अभी तक संतोषजनक स्थिति का एहसास नहीं हो सका है. बेटियाँ आज भी असुरक्षित हैं, न सही जन्मने के पहले, जन्मने के बाद ही सही पर वे असुरक्षित हैं.



Monday 17 September 2018

बाबा जी की दूरगामी सोच भरी शिक्षा


अपने गाँव बचपन से ही जाना होता रहता था. गर्मियों की छुट्टियाँ कई बार गाँव में ही बिताई गईं. इसके अलावा चाचा लोगों के साथ भी अक्सर गाँव जाना होता रहता था. हमारे गाँव जाने के क्रम में कोई न कोई साथ रहता था मगर उस बार अकेले जाना हो रहा था. बिना किसी कार्यक्रम के, बिना किसी पूर्व-निर्धारित योजना के. स्नातक की पढ़ाई के लिए हमारा ग्वालियर जाना निर्धारित हो गया था. जाने का दिन भी लगभग तय हो गया था. अचानक बैठे-बैठे दिमाग में आया कि ग्वालियर जाने के पहले अईया-बाबा से मिल आया जाये. उस समय अईया-बाबा गाँव में ही हुआ करते थे. उनका उरई आना दशहरे-दीपावली के आसपास होता था. इसके बाद होली के बाद खेती वगैरह के काम से गाँव चले जाया करते थे.

बहुत छोटे से लगातार अईया-बाबा के संपर्क में रहने के कारण लगाव भी था. बहरहाल, उस दिन दोपहर बाद घर पहुँच नीचे से जैसे ही आवाज़ लगाई, अईया ख़ुशी से चहक उठीं. बाबा भी आश्चर्य में पड़ गए कि हम अचानक कैसे आ गए, वो भी अकेले. आश्चर्य होने का कारण ये और था कि हम अकेले आये थे बिना किसी सूचना के. उस समय आज की तरह मोबाइल तो थे नहीं, फोन भी नहीं थे कि खबर कर दी जाती हमारे आने की. उस समय खबरों के आदान-प्रदान का स्त्रोत पत्र हुआ करते थे या फिर गाँव से आने-जाने वाले लोग. इसके साथ-साथ आश्चर्य का एक कारण हमारा नितांत अकेले आना भी था. परिवार में किसी समय लम्बे समय तक चलने वाली जमींदारी और गाँव क्षेत्र की अपनी अलग ही स्थितियों के चलते बाबा इस तरह की स्थितियों से बचाया करते थे. आज भी हम लोगों की ये स्थिति है कि गाँव आने-जाने के दौरान निश्चित समय, रास्ता कभी न बताया जाता है.

दो-तीन गाँव में रुकना हुआ. उन दो-तीन दिनों में बाबा से बहुत सी बातें हुईं. वैसे तो बाबा का साथ हम भाइयों को बहुत छोटे से मिला, जिसके कारण उनके द्वारा बहुत सी जानकारियाँ, शिक्षाएँ हमें मिलती रहीं. जीवन जीने के ढंग, समस्याओं से निकलने के रास्ते, परेशानियों से बचने के तरीके, खुद पर नियंत्रण रखने की स्थिति, अनुशासन में रहने का मन्त्र, सामाजिक रूप से खुद को स्थापित करने की कार्यशैली आदि पर उनके द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से लगातार हम लोगों को बताया जाता रहता.

गाँव में अपने अल्प-प्रवास के दौरान बाबा जी ने कई बातें समझाईं, घर से बाहर अकेले रहने के दौरान आने वाली समस्याओं, उनसे निपटने के तरीके आदि भी समझाए, बिना घबराए, संयम से काम लेटे हुए आगे बढ़ने के रास्ते भी बताए. बाबा जी स्वयं बहुत कम आयु में ही पढ़ने के लिए घर से बाहर निकल आये थे. अपनी पढ़ाई के दौरा उन्होंने स्वयं बहुत संघर्ष किया था. इसका जिक्र वे कई बार हम लोगों के सामने किया करते थे और उदाहरण के लिए समझाया भी करते थे. उनके पढ़ाई के दौरान के संघर्ष को महज ऐसे समझा जा सकता है कि तत्कालीन स्थितियों में एक जमींदार परिवार के बेटे को पढ़ने के लिए बिठूर से उन्नाव ट्रक चलाना पड़ता था. बाबा जी अक्सर उस समय का बना हुआ ड्राइविंग लाइसेंस दिखाया करते थे. असल में बाबा जी के बड़े भाई नहीं चाहते थे कि बाबा जी आगे की पढ़ाई करें. उनका कहना था कि मैट्रिक तक की पढ़ाई ठीक है अब घर वापस आकर खेती और अन्य कामों में सहयोग करें. ऐसे में बाबा जी अपनी जिद से कानपुर में पढ़ाई कर रहे थे. बड़े बाबा जी घर से प्रतिमाह भेजी जाने वाली सामग्री में सबकुछ भेजते, बस रुपये नहीं भेजते थे. ऐसे में धन की कमी को बाबा जी अपने एक मित्र की ट्रांसपोर्ट कंपनी का ट्रक चलाकर पूरा किया करते मगर उन्होंने कभी घर में इसकी शिकायत न की.

उन्हीं बातों के दौरान बाबा जी की एक बात आज तक जैसे कंठस्थ है. उस बात ने या कहें कि जीवन की सबसे बड़ी सीख ने हमें व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक तनाव, संघर्ष से बचाए रखा है. पिताजी के देहावसान और अपनी दुर्घटना के बाद की स्थितियों में भी यदि मनोबल कमजोर न हुआ तो बाबा जी की नसीहतों के चलते.

गाँव से वापस लौटने वाले दिन के ठीक पहले दोपहर में खाना खाने के बाद बाबा जी के पैर की उंगलियाँ चटका रहे थे. बाबा ने कहा कि स्नातक की पढ़ाई करने जा रहे हो, आगे भी खूब पढ़ना. शिक्षा ही एकमात्र ऐसी पूँजी है जिसके द्वारा संसार की किसी भी स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है. गाँव, खेती, जमीन, मकान आदि की चर्चा करते हुए उन्होंने समझाया कि हमेशा एक बात याद रखना कि गाँव की जमीन, मकान, खेत न हम लेकर आये थे, न तुम्हारे पिताजी. ये सब हमारे पुरखों के द्वारा कई पीढ़ियों से अगली पीढ़ी को स्वतः मिलता रहा है. ऐसे में इन्हें लेकर कभी लड़ाई नहीं करना. 

बाबा जी का कहना था कि गाँव की लड़ाई, मुक़दमेबाजी से दूर रखने के लिए तुम्हारे पिताजी-चाचा लोगों को बाहर निकाला है, तुम लोग इसके लिए लौटकर गाँव न आना. मुक़दमेबाजी, लड़ाई, पुलिस आदि झगड़ों से दूर ही रहना. दुर्भाग्य से कभी ऐसा हो भी जाये कि कोई गाँव की जमीन, घर, खेत आदि पर कब्ज़ा कर ले तो अपने अधिकारों का पूरा उपयोग करो. अपनी संपत्ति को वापस लेने के लिए संघर्ष करो मगर इसके लिए खून-खराबा करने की, फौजदारी करने की आवश्यकता नहीं है. वापस गाँव लौटने की जरूरत नहीं है. शिक्षा तुमको इससे ज्यादा सम्मान, इससे ज्यादा संपत्ति प्रदान करवाएगी. पुरखों की इस संपत्ति की रक्षा करना तुम सबका दायित्व है मगर इसके लिए अपने भविष्य को, अपने परिवार को, आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बिगाड़ देना समझदारी नहीं होगी.  

और भी बहुत सी बातें बाबा जी द्वारा बहुत गंभीरता से कही गईं. असल में हमारे बाबा जी स्वयं इस स्थिति के भुक्तभोगी रहे थे. अपनी सरकारी नौकरी को वे छोड़कर गाँव के घर, जमीन, खेत के लिए वापस गाँव आये थे. मुकदमेबाजी, आपसी तनाव, झगड़ों के बीच उन्होंने समय की, पढ़ाई की महत्ता को समझा-जाना था. उस समय तो बाबा जी की उन बातों सा न तो हम सन्दर्भ पकड़ पा रहे थे और न ही उनका आकलन कर पा रहे थे कि ऐसा क्यों बताया-समझाया जा रहा. बाबा जी उसके बाद बस एक वर्ष और हमारे बीच रहे, शायद वे समय की सीख देना चाह रहे थे. और यह संयोग ही कहा जायेगा कि कभी गाँव अकेले न जाने वाले हम उस दिन अचानक बिना किसी कार्यक्रम के बाबा-अईया के पास पहुँच गए.

लगभग तीन दशक का समय हो गया बाबा जी को हम लोगों से दूर गए हुए. कम नहीं होता इतना समय, इसके बाद भी लगता है जैसे उनका जाना कल की ही बात हो. उस दिन का समूचा घटनाक्रम आज भी ज्यों का त्यों दिल-दिमाग में छाया हुआ है. उनकी बहुत सी बातें आज भी हम गाँठ बाँधे हैं. उनकी शिक्षाओं ने, उनकी नसीहतों ने कभी हमें परेशान न होने दिया, कभी हमें समस्या में न पड़ने दिया, कभी आत्मविश्वास न डिगने दिया. आज बाबा जी की पुण्यतिथि पर उनको सादर नमन.

Friday 31 August 2018

ननिहाल का अनमोल खजाना


अपने अइया-बाबा के साथ, आशीर्वाद को लेकर हम जितने सौभाग्यशाली रहे, नाना-नानी (श्री मथुरा सिंह क्षत्रिय-श्रीमती राधा रानी)  के साथ को लेकर उतने ही दुर्भाग्यशाली रहे. अपने पैतृक गाँव जाने की तुलना में, वहाँ खेलने-कूदने की तुलना में अपने ननिहाल खूब जाना हुआ. ननिहाल में खेलना, कूदना, खेतों में टहलना, खलिहान की सैर, बगिया में शैतानियाँ, बम्बा का स्नान, तालाब में मस्ती खूब की गई. कई-कई मामा-मामियों के बीच लाड़ले भांजे के रूप में खूब प्यार-दुलार मिला. ननिहाल में बचपन में बड़े भाइयों की सुरक्षा मिली और बड़े में भाभियों का स्नेह भी मिला. इन सबके बीच कमी खलती है तो नाना-नानी का साथ बहुत लम्बे समय तक न मिल पाने की.

बचपन की उस अवस्था में, जिसको होश सँभालने वाली कहा जाता होगा, उसके पहले ही नाना-नानी हमसे दूर चले गए थे. नानी की तो कई बातें याद हैं मगर नाना की मात्र एक छवि याद है और वो भी बहुत धुंधली सी. कई बार लगता है कि नाना की वो छवि वाकई हमें याद है या फिर सबके द्वारा सुन-सुनकर, उनकी फोटो देख-देखकर एक छवि का निर्माण दिल-दिमाग में हो गया है. कुछ भी हो मगर नाना की एक हल्की, धुंधली सी छवि मात्र इतनी सी मन-मष्तिष्क में बसी है जिसमें वे गाँव में घर के पास बने चबूतरे पर बैठे हैं, नीम के पेड़ के नीचे. हम बच्चे वहाँ धमाचौकड़ी करने में लगे हैं. उसी में से वे किसी को तेज आवाज़ में बुला रहे हैं. वे हमसे भी कुछ कहते हैं पर हमें याद नहीं कि उन्होंने तेज़ आवाज़ में किसे बुलाया? हमसे उन्होंने क्या कहा? हाँ, नानी की दो-तीन घटनाएँ याद हैं.

नानी उन दिनों उरई में हमारे तीसरे नंबर वाले मामा जी श्री जयनारायण सिंह क्षत्रिय, उनके होटल चलाने के कारण हम सब उनको होटल वाले मामा कहकर पुकारते थे, के घर रुकी हुईं थीं. कुछ घटनाएँ वहां की याद हैं मगर वे भी धुंधली सी. उन्हीं दिनों या फिर किसी और समय में नानी का हमारे पाठकपुरा वाले घर आना हुआ. गर्मियों के दिन थे. हम तीनों भाई बैठक में नानी के साथ ही खेलने में लगे थे. उस समय की घटना इसलिए भी और याद है क्योंकि उसी समय गली में शोर सुनाई दिया तो पिताजी निकल कर बाहर आये. मोहल्ले के कुछ लड़के किसी चोर की तलाश में भागदौड़ करने में लगे थे. उनके जाने के बाद पिताजी ने अंदेशा जताया कि कहीं वह चोर घर के बगल की पतली गली, जो कई घरों के गंदे पानी निकलने के लिए बनी हुई थी, उसमें तो नहीं छिपा है. छत पर चढ़कर देखने से वह व्यक्ति दिखाई दिया, जिसे पिताजी ने बुलाकर सुरक्षित बैठक के बगल में बने कमरे में बिठाया. पिताजी की वकील दृष्टि ने और नानी की अनुभवी नजर ने उस व्यक्ति को निर्दोष बताया. वो युवक बहुत देर हम लोगों के संरक्षण में काँपते-डरते बैठा रहा. इस दौरान नानी ने कई बातें हम लोगों को बहुत धीमी आवाज़ में बताईं. उनकी बताईं बातें आज स्मरण नहीं हैं मगर उनकी छवि स्पष्ट रूप से हमें याद है.

इसी तरह हमारे नाना मामा (श्री सुल्तान सिंह क्षत्रिय) जब भी उरई आते तो घर अवश्य आया करते. कई बार वे रात को घर पर ही रुक जाते. संध्या करना उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल था. हम देखते कि वे छत पर दरी बिछा उस पर ध्यान की अवस्था में बैठते. ऐसा वे कभी रात का भोजन करने का पहले करते तो कभी भोजन करने के बाद. एक दिन हमने उनसे बालसुलभ जिज्ञासा में पूछ लिया कि मामा, आप क्या करते हैं शांत बैठे-बैठे? आज भी याद है कि उन्होंने हँसकर हमें अपनी गोद में बिठा लिया. इसके बाद उनकी कही बात आज तक अक्षरशः याद है और एक सीख की तरह दिल-दिमाग में बसी है.

मामा बोले, तुम्हारी माँ हमारी सबसे छोटी बहिन है. वह हमारे लिए खाना बनाती है, रोटी-सब्जी बनाती है. चूल्हे की आग से उसको गर्मी लगती होगी. ऐसे में हम भोजन करने के पहले भगवान से कहते हैं कि हमारी बिट्टी को गर्मी न लगने देना. कभी-कभी खाना खाने के पहले ऐसा नहीं कर पाते तो उसके बाद शांत बैठकर भगवान से कहते हैं कि हमें माफ़ करना क्योंकि हमारे कारण बिट्टी को आज खाना बनाते में गर्मी लगी होगी. उसके कष्ट को दूर करना.

नाना मामा की उस दिन की बात हमारे दिल में चिरस्थायी बस गई. आज भी हो सकता है कि किसी के बने भोजन की हम तारीफ न कर पायें मगर किसी के भी बनाये भोजन में कभी कमी नहीं निकालते. बचपन की उस सीख से यह ज्ञान मिला कि भोजन बनाने वाला कष्ट के साथ अन्नपूर्णा की भूमिका का निर्वहन करता है.

अपने नाना-नानी का प्यार-दुलार आज हमें भले ही याद न हो मगर ननिहाल में एकमात्र नानी का स्नेह और समय के साथ तीन-तीन नाना-नानियों का प्यार-दुलार, विशेष रूप से कानपुर वाले नाना-नानी का आशीर्वाद, प्यार आज भी बहुत अच्छे से याद है, हमें आज भी मिल रहा है. मामा-मामी लोगों का स्नेह, दुलार भी बराबर से मिलता रहा है, आज भी मिलता है. कानपुर, ग्वालियर, हमीरपुर कहीं भी जाना होता हो या फिर मामा-मामी से मुलाकात होती है तो अपनेपन से रचा-पगा प्यार-दुलार हमारे हिस्से भरपूर रूप से आता है. जाने कितनी यादें हैं, जो ननिहाल पक्ष की तरफ से भी हमें समृद्ध करती हैं. 

शायद इसी को प्रकृति का, परम सत्ता का न्याय कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति के जीवन में उसके द्वारा कोई कमी की जाती है तो कहीं न कहीं उसके द्वारा उसकी पूर्ति भी कर दी जाती है. नाना-नानी की कमी को उसने नाना-नानी के द्वारा ही पूरा किया. खूब जमकर पूरा किया.

Friday 17 August 2018

अटल जी का मजाकिया सवालिया अंदाज


मौत से कई बार ठनी और हर बार मौत को सामने से वार करने की चुनौती देकर वापस लौटाते रहे. इस बार फिर मौत से ठनी. इस बार की ठना-ठनी कुछ गंभीरता से हो गई. अबकी न मौत वापस जाने को तैयार दिखी और न ही राजनीति के अजातशत्रु हारने को राजी हुए. भाजपा के ही नहीं वरन राजनीति के भीष्म पितामह रूप में स्वीकार अटल जी विगत लगभग एक दशक तक अटल बने रहे. महाभारतकालीन भीष्म पितामह की भांति अटल जी ने कोई प्रतिज्ञा तो नहीं ले रखी थी किन्तु भाजपा रुपी हस्तिनापुर को वे सुरक्षित देखना चाहते थे; भारत माता को सुरक्षित हाथों में देखना चाहते थे; संसद में किसी समय संख्याबल को लेकर हुए उपहास पर दिए गए जवाब को सार्थक देखना चाहते थे; अंधियारी रात में हवा-पानी के किनारे किये गए हुँकार कि कमल खिलेगा, अवश्य खिलेगा को साकार होते देखना चाहते थे; इसी कारण पिछले एक दशक से अधिक का समय वे नितांत एकांतवास की स्थिति में व्यतीत करने के बाद भी आमजनमानस के बीच पूरी तरह रचे-बसे रहे. मौत से ठना-ठनी होने के बाद भी मौत के साथ चलने को तब तक तैयार नहीं हुए जब तक कि वह सब नहीं देख लिया जो वे देखना चाहते थे. ऐसा लगा मानो भीष्म पितामह की भांति समय का इंतजार करने के बाद उन्होंने मौत को सीधे-सीधे हराने के बजाय उसे जिताकर हराने का विचार बनाया. 

मौत से उनकी वर्षों पुरानी ठना-ठनी बंद हुई. वे मौत को जिताने का भ्रम पैदाकर खुद जीतकर अनंत यात्रा पर उसके साथ निकल गए. लगभग एक दशक तक सार्वजनिक जीवन से लगभग विलुप्त, दूर रहने के बाद भी जब वे तिरंगे का आँचल लपेट मौत के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चले तो वे अकेले नहीं थे. उनका विशाल भाजपा परिवार उनके साथ था. उनकी भारतमाता की संतानें उनके साथ थीं. उनके सहृदय व्यवहार के कायल सभी धर्म, जातियाँ, वर्ग उनके साथ थे. उनकी राजनैतिक शुचिता के प्रशंसक अनेक राजनैतिक दल, व्यक्ति उनके साथ थे. अपनी कार्यप्रणाली और निर्भीक निर्णय क्षमता का वैश्विक स्तर पर लोहा मनवाने वाले देशों के लोग उनके साथ थे. सारा देश ही नहीं वरन समूचा विश्व उनके साथ चल रहा था. ये सब उनकी वो थाती है जो मौत के जीत जाने के बाद उसे हारा साबित कर रही थी. 

वे अब एक शरीर के रूप में नहीं, एक व्यक्ति के रूप में नहीं, एक कवि के रूप में नहीं, एक राजनेता के रूप में नहीं वरन एक-एक व्यक्ति के रूप में जीवित हो उठे थे; एक-एक नागरिक के रूप में जिन्दा दिख रहे थे; एक-एक साँस में जीवन निर्वहन करते दिख रहे थे; अपनी अंतिम यात्रा में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शामिल एक-एक व्यक्ति में वे एक एहसास के सहारे जिंदा दिखे. यह देखकर मौत खुद हतप्रभ दिखी. जीतने के बाद भी हारी हुई लगी. उनके लम्बे एकांतवास को तोड़कर मौत जब उन्हें बाहर लेकर आई तो सोचा होगा कि वे खामोश ही रहेंगे. उनका बाहर आना हुआ तो उनकी कविताएँ बोलने लगीं, उनके संसद में दिए गए चुटीले अंदाज के कथन बोलने लगे, सार्वजनिक सभाओं में दिए गए उनके भाषण बोलने लगे, समरसता, मानवता, शांति के लिए किये गए उनके प्रयास बोलने लगे.

आज भी याद है उनका वो बोलना. हास-परिहास के उसी चिर-परिचित अंदाज में उनका बोलना. परिवार के बुजुर्ग की तरह से पढ़ाई के बारे में पूछना. ढाई दशक से अधिक समय पहले उनका पहली बार स्पर्श. उनके चरणों का स्पर्श. उनका प्यार से सिर पर हाथ फिराना. खुश रहो का आशीर्वाद देना. उस समय भी और आज भी अटल जी सम्मोहित व्यक्तित्व दिखे. ग्वालियर के शैक्षिक प्रवास के दौरान अनेकानेक गतिविधियों में सहभागिता बनी ही रहती थी. ऐसी ही एक सहभागिता के चलते पता चला कि अटल जी का एक कार्यक्रम है. हम हॉस्टल वालों को कुछ जिम्मेवारियों का निर्वहन करना है. कोई मंच की व्यवस्था में, को खानपान की व्यवस्था में, कोई जलपान की व्यवस्था में, कोई यातायात की व्यवस्था में, कोई अतिथियों के व्यवस्थित ढंग से आने-जाने की व्यवस्था में. 

सहज आकर्षित करने वाले, सम्मोहित करने वाले, मुस्कुराते चेहरे के साथ अटल जी मंचासीन हुए. सामान्य सा मंच, सामान्य सी व्यवस्था, गद्दे-मसनद के सहारे टिके, अधलेटे, बैठे मंचासीन अतिथि. अटल जी से मिलने का लोभ हम हॉस्टल के भाइयों में था. व्यवस्था हमारे ही हाथों थी सो कभी कोई किसी बहाने मंच पर जाता, तो कभी कोई किसी और बहाने से. आज की तरह कोई तामझाम नहीं, कोई अविश्वास नहीं, फालतू का पुलिसिया रोब नहीं. मंचासीन अतिथियों से मिलने का सबसे आसान तरीका था पानी के गिलास पहुँचाते रहना. तीन-चार बार की जल्दी-जल्दी पानी की आवाजाही देखने के बाद अटल जी ने मुस्कुराते हुए बस इतना ही कहा कि क्या पानी पिला-पिलाकर पेट भर दोगे? भोजन नहीं करवाओगे? 

अपने पसंदीदा व्यक्ति से बातचीत का अवसर, बहाना खोजते हम लोगों से पहला वार्तालाप इस तरह मजाकिया, सवालिया अंदाज में हो जायेगा, किसी ने सोचा न था. हम सब झेंपते हुए मंच से उतर आये मगर कार्यक्रम के बाद भोजन के दौर में खूब बातें हुईं. खुलकर बातें हुईं. 

काश कि वे आज भी वैसे ही बोल देते. काश कि आज उनको पानी पिलाने के बहाने उनके पास तक जाना हो पाता तो शायद वे वही सवाल दोहरा बैठते. काश कि वे आज चरण स्पर्श करने पर उसी तरह आशीर्वाद भरा हाथ सिर पर फिरा देते. अब तो बस काश ही काश है, याद ही याद है. 

Wednesday 25 July 2018

सब कुछ हर बार सही नहीं होता तो गलत भी नहीं होता


कुछ स्थितियाँ व्यक्ति के चरित्र के साथ ऐसे चिपक जाती हैं कि उनको निकाल फेंकना सम्भव नहीं हो पाता है. ये स्थितियाँ कई बार आरोपित होती हैं; कई बार स्फूर्त रूप से पैदा होती हैं; कई बार वे जन्मजात आंतरिक रूप से जुड़ी रहती हैं. गुस्सा आना, कोई गलत बात बर्दाश्त न कर पाना, किसी मजबूर, कमजोर के साथ गलत होते देख लड़ जाना आदि कब हमारे स्वभाव का हिस्सा बन गया या कबसे हमारे स्वभाव में छिपा था, पता नहीं. 

कई बार लगता है कि उम्र से कई गुना ज्यादा तो लड़ाई-झगड़े कर लिए हैं. इस लड़ाई-झगड़े के चक्कर में, अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण बहुत बार स्थितियाँ तनावपूर्ण भी हो गईं. हर बार यह तनाव परिवार पर फैलता दिखाई देता. हर घटना के बाद अपने आपसे प्रण किया जाता कि अब किसी से लड़ाई नहीं, किसी पर गुस्सा नहीं, किसी से गुस्से से भरा व्यवहार नहीं. कुछ दिन शांति से निकलते, हँसी-ख़ुशी से बीतते, तनावरहित गुजरते और फिर किसी दिन कोई हंगामा हो जाता. प्रण जैसे टूटने को तैयार ही बैठा रहता.

कई बार अकेले बैठकर अपने इस व्यवहार पर चिंतन करते तो एक भी लड़ाई, एक भी झगड़ा खुद के लिए किया हुआ नहीं दिखता. कॉलेज का समय रहा हो, हॉस्टल रहा हो, खेल का मैदान हो, बाजार, यात्रा, ऑफिस आदि किसी भी समय, किसी भी जगह हुआ कोई भी लड़ाई-झगड़ा हमारे अपने लिए कभी नहीं हुआ.

आज भी देखते हैं तो यह छवि चिपकी ही है हमारे ऊपर. लगता है कि शायद यह हमारे अपने लिए गलत रहा है पर जब पीछे पलट कर देखते हैं तो संतोष होता है कि हमारे चंद झगड़ों ने बहुतों को परेशानियों से निकाला, बहुतों की समस्याओं को सुलझाया. लोगों को भले ही न दिखता हो पर हमें एहसास है कि उन सभी लोगों की शुभकामनायें हमारे साथ हैं. ऐसा पूरे दावे के साथ इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इतने अधिक लड़ाई-झगड़ों ने कभी हमें संकट में नहीं डाला.

Saturday 30 June 2018

पहली कविता लिखी बचपन में


पहली कविता, जो दैनिक भास्कर, स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई थी. कब, कैसे कविता लिखने का शौक चर्राया, पता नहीं. जितना याद आता है वो अक्टूबर या नवम्बर का समय था. सर्दी की हलकी कंपकंपी और सूरज की मोहक गर्माहट मन को भा रही थी. इसी में कुछ शब्द निकले, लयबद्ध एकसाथ गुंथे और पहली कविता इस रूप में सामने आ गई. 

पिताजी को भी पढ़ने-लिखने का शौक था. उन्होंने इसे दो-तीन समाचार-पत्रों में प्रकाशनार्थ प्रेषित कर दिया. परिणामतः यह कविता दैनिक भास्कर और स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई. बहुत समय तक दोनों समाचार-पत्र पिताजी के संग्रह में रहे. अब पिताजी भी नहीं और उनका संग्रह भी नहीं; पर कविता आज भी पास है, अब आपके सामने है. सन 1983 में प्रकाशित उस कविता के समय उम्र थी महज दस वर्ष. लीजिये, कविता पढ़िए- 

रोज सबेरे आता सूरज,
हमको रोज जगाता सूरज.

पर्वत के पीछे से आकर,
अँधियारा दूर भगाता सूरज.

पंछी चहक-चहक कर गाते,
सुबह-सुबह जब आता सूरज.

ठंडी-ठंडी पवन चले और
फूलों को महकाता सूरज.

गर्मी में आँख दिखाता हमको,
सर्दी में कितना भाता सूरज.

पूरब से पश्चिम तक देखो,
कितनी दौड़ लगाता सूरज.

चंदा तारे लगें चमकने,
शाम को जब छिप जाता सूरज.

काम करें हम अच्छे-अच्छे,
हमको यह सिखलाता सूरज.

Wednesday 6 June 2018

नए स्कूल में सबकुछ नया-नया


पहले स्कूल का पहला दिन तो जाने और आने के साथ ही समाप्त हो गया था. उसके बाद तो ये भी याद नहीं कि दूसरे स्कूल में जाना कितने दिन बाद हुआ था. उम्र का एक लम्बा समय गुजरने के कारण उपजी याददाश्त-दोष वाली इस स्थिति के बाद भी पहले स्कूल का पहला दिन अभी तक याद है तो दूसरे नए स्कूल का पहला दिन भी अभी तक बहुत अच्छे से याद है. तैयार होकर, तेल-फुलेल के साथ अपने बच्चा चाचा के साथ स्कूल पहुँचे. चाचाओं में दूसरे नंबर के बच्चा चाचा, जो सामाजिक प्रस्थिति में श्री सुरेन्द्र सिंह सेंगर के नाम से जाने जाते हैं, हम सभी बच्चों के अत्यंत प्रिय चाचा हैं. भारतीय स्टेट बैंक में अनेक उच्चाधिकारी पदों पर अपनी निष्ठापूर्ण सेवाएँ देने के बाद वर्तमान में सेवानिवृत्ति पश्चात् भोपाल में निवास कर रहे हैं. बच्चा चाचा के स्नेहिल और एकसमान व्यवहार, स्वभाव को बचपन से अद्यतन ज्यों का त्यों, बिना किसी परिवर्तन के महसूस करते रहे हैं. 

हाँ तो, अपने नए स्कूल के पहले दिन हम अपने इन्हीं बच्चा चाचा के साथ स्कूल के लिए चल पड़े. स्कूल पहुँचे तो हम सारे जरूरी साजो-सामान से सुसज्जित थे, बस कमी थी तो हमारे लंच बॉक्स की. सो चाचा जी हमें स्कूल में छोड़कर बाजार को निकल गए आखिर हमारे लिए लंच बॉक्स जो सजाया जाना था.   

स्कूल में हमारा समय सही से बीत रहा था. पहले वाले स्कूल के मुकाबले खूब खुला-खुला. प्यार-दुलार देती दीदियाँ. कक्षा के गिने-चुने विद्यार्थियों के बीच पहले ही दिन छा जाना, आज भी याद है. कुछ देर बाद स्कूल की शीला आया माँ ने कक्षा में आकर हमारा नाम पुकारा. उनकी तरफ देखा तो आया माँ अपने हाथ में एक नया टिफिन बॉक्स लिए खड़ी हैं और स्कूल के बाहर चाचा जी हमारी कक्षा की तरफ निहारते खड़े हुए थे. लाल-सफ़ेद रंग का गोल टिफिन, जो कई वर्षों तक हमारे लिए अपनी सेवाएँ देने के बाद घर के अन्य कामों में प्रयोग होने लगा.

भोजनावकाश के समय अपने लंच बॉक्स को खोला तो उसमें दालमोंठ, बिस्किट, टॉफी हमारे स्वागत में तत्पर थे. घर के सभी लोगों से, अम्मा से सुना है कि हमने भोजन बहुत देर से, लगभग छह-सात वर्ष की उम्र से करना शुरू किया था. तब तक दूध, बिस्किट, दालमोंठ और बाकी चट्ठा-मिट्ठा से काम चलाया जाता था, अपनी भूख मिटाने को. लंच बॉक्स में अपना मनपसंद भोजन देख मन प्रसन्न हो गया और हम स्कूल का पहला दिन पूरा समय बिताकर ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आये. यही स्कूल कक्षा पाँच तक हमारी नींव को मजबूत करता रहा.

Tuesday 5 June 2018

वो तीन लड़कियाँ

वो दिन न केवल हमारी कक्षा के लिए बल्कि पूरे कॉलेज के लिए कौतूहल भरा था. ऐसा होना भी था क्योंकि लड़कों से भरे जीआईसी में उस दिन तीन लड़कियों ने एडमीशन लिया. ऐसा माहौल पूरे कॉलेज के छात्रों में दिखाई देने लगा जैसे बंजर जमीन पर कोई फूल निकल आया हो. इसके साथ ही ऐसा लग रहा था जैसे हमारी कक्षा में कोई अजूबे आ गए हों. उन तीनों लड़कियों ने इंटरमीडिएट में जीवविज्ञान की जगह गणित वर्ग को चुना था, इस कारण उनको जीआईसी में प्रवेश लेना पड़ा था. राजकीय इंटर कॉलेज के अलावा उरई में उस समय राजकीय बालिका इंटर कॉलेज भी संचालित हुआ करता था किन्तु वहाँ गणित वर्ग न होने के कारण उन तीनों लड़कियों को राजकीय इंटर कॉलेज में प्रवेश दिया गया था. 

कक्षा में बैठने-बिठाने को लेकर किसी तरह की अव्यवस्था उत्पन्न न हो इसके चलते उन तीनों लड़कियों के बैठने की जगह आगे की पंक्ति में अलग से निर्धारित कर दी गई. पूरी कक्षा उन तीन के आने से पगलाई तो थी ही, अब आगे बैठने के लिए बौराने लगी. वे लड़के जो अध्यापकों के सवालों और निगाहों से बचने के लिए सबसे पीछे या बीच में बैठना पसंद करते थे, वे भी अब आगे बैठने को उतावले दिखने लगे. आगे बैठने के लिए कई बार कक्षा में विश्व युद्ध जैसी स्थिति बन जाती. उस समय तक उरई में कोई भी विद्यालय सह-शिक्षा के रूप में चर्चा में नहीं था. या तो सिर्फ लड़कों के अध्ययन के लिए विद्यालय संचालित थे या कि लड़कियों के लिए. ऐसे में सह-शिक्षा का आरम्भ दिखाई देने पर वह स्थिति भी अपने आपमें चर्चा का विषय बनी हुई थी.

चर्चाएँ कुछ दिनों तक ही सीमित न रहीं. वे लड़कियाँ दो साल हम लोगों के साथ पढ़ीं. दोनों ही साल आये दिन कोई न कोई कहानी बनती रही. कभी लड़कियों से बात करने के सम्बन्ध में, कभी लड़कियों को गिफ्ट देने के सम्बन्ध में, कभी लड़कियों के साथ ट्यूशन में पढ़ने को लेकर. उन तमाम तैरती कहानियों के बीच कई बार वे लड़के भी सवालों के घेरे में ले लिए जाते जो किसी न किसी रूप में उन लड़कियों के संपर्क में थे. एक लड़की से पूर्व-परिचित होने के कारण कई बार ऐसी स्थिति से हमें भी गुजरना पड़ा. 

आज उरई में तमाम विद्यालय सह-शिक्षा रूप में संचालित हैं, लड़के-लड़कियाँ एकसाथ न केवल पढ़ रहे हैं बल्कि एकसाथ उठ-बैठ रहे हैं, एकसाथ आ-जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में बदलाव के कई-कई आयाम देखने को मिले. कहानियों के बदलने के दौर दिखे, चर्चाओं के बदलते स्तर दिखे.

Friday 25 May 2018

आभासी दुनिया का प्यार भरा एहसास


आँखों में चुम्बकीय आकर्षण, चेहरे पर मासूमियत का सौन्दर्य समेटे वह फ्रेंडरिक्वेस्ट के सहारे दोस्तों के दायरे में शामिल हुई. सोशल मीडिया की इस आभासी दुनिया में सभी लोग वास्तविक दुनिया से ही आते हैं. वे चाहें अपने वास्तविक रूप में आपसे संपर्क रखते हों या फिर किसी नकली प्रोफाइल से. बहरहाल, एक आकर्षित करने वाले सौन्दर्य बोध के साथ उसकी उपस्थिति बराबर सोशल मीडिया पर रहती थी. एक-दूसरे की पोस्ट पर टिप्पणियां करने, किसी पोस्ट पर तर्क-वितर्क करने से आरम्भ हुआ आभासी बातचीत का सिलसिला सार्वजनिकता से उतर कर इनबॉक्स तक आ गया. 

राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक विषयों सहित अनेक विषयों पर समय-समय पर चर्चा होती. इन सबके बीच एक अनाम सा, अबूझ सा रिश्ता उसके साथ बनते दिखने लगा. यूँ तो आभासी दुनिया में अनेक लोग इस तरह से अपनत्व की डोर में बंधे हैं जिनसे कभी मिलना नहीं हुआ मगर ऐसे लगता है जैसे बरसों से जान-पहचान हो. कुछ ऐसा ही उसके साथ था. मिलना कभी हुआ नहीं, एक शहर के वासी नहीं, सोशल मीडिया के अलावा कभी, कहीं देखा भी नहीं पर रिश्ते की आत्मीयता बरसों-बरस पुरानी महसूस होती.

शहरों की दूरियाँ बनी रही, सोशल मीडिया का आभासीपन शनैः-शनैः बढ़ता सा लगा. मिलने की उत्कंठा बढ़ती तो मिलने का वादा भी किया जाता पर सबकुछ फिर उसी आभासी दुनिया के इर्द-गिर्द केन्द्रित होकर रह जाता. इसे शायद इत्तेफाक ही कहा जायेगा कि सोशल मीडिया के बहुत सारे लोगों से अनेक अवसरों पर मिलना होता रहा. किसी से हम जाकर मिले, कोई हमसे आकर मिला. किसी ने हमें अपने घर बुलाया, कोई हमारे घर तक चल कर आया. मिलने-जुलने की इस प्रक्रिया के बाद भी उससे मिलना न हो सका. आभासी दुनिया की वह मित्र, वह मित्रता आज भी वहीं स्थित है जहाँ से आरम्भ हुई थी.

सामाजिकता के नाते, वैचारिकता के चलते बहुत आगे तक, बहुत दूर तक चलने, साथ देने की बात हुई मगर वैचारिक रूप से आगे बढ़ने के बाद भी एहसास होता है कि आगे बढ़ना हो ही नहीं सका. समय के साथ-साथ इस वैचारिक यात्रा ने कभी शिथिलता पकड़ी तो कभी गति भी पकड़ी. भौतिक रूप से अभी तक आमने-सामने बैठकर बातचीत नहीं हुई. एक-दूसरे को देखा भी नहीं और पता नहीं उस रहस्यमयी सत्ता ने यह सम्मिलन कब, कैसे, कहाँ निर्धारित कर रखा है? निर्धारित कर भी रखा है या नहीं, यह भी नहीं पता?

फ़िलहाल तो आभासी दुनिया ने बहुत से मित्र दिए, सहयोग करने वाले, प्यार करने वाले, मदद करने वाले, अपना समझने वाले, विश्वास करने वाले, वह भी उनमें से एक है. क्या ये आवश्यक है कि आप सब उसे उसके नाम से ही पहचानें? क्या आवश्यक है कि उसका नाम ज़ाहिर किया ही जाये?