बचपन के आरम्भिक
दिन किराये के मकान में गुजरे. मकान, मकान-मालिक, मोहल्ला, मोहल्लावासी इतने अच्छे और भले थे कि जब तक हम लोग वहाँ रहे महसूस ही नहीं
हुआ कि हम लोग किरायेदार हैं. वैसे भी तब हमारी समझ में थी ही नहीं मकान-मालिक और किरायेदार
की अवधारणा. हमें तब भी वह मकान अपना सा लगता था, आज भी उस मकान
को छोड़े तीन दशक होने को आये पर अपना सा ही लगता है. और लगे भी क्यों नहीं,
एक हमने ही नहीं हमारे परिवार के बहुत से लोगों ने अपना बचपन,
जवानी उसमें गुजारी है. हम भाई-बहिनों ने उसी आँगन में, उसी छत पर दौड़ना, चलना, गिरना सीखा.
हमारे मकान-मालिक
अपने समय के जाने-माने अधिवक्ता थे. पैतृक संपत्ति की कोई कमी नहीं थी. गाँव भी पास
में था. अच्छी खासी खेतीबाड़ी थी. उरई स्थित उनका बड़ा मकान इसका उदाहरण भी था. इसके
साथ ही उनकी सम्पन्नता को इस रूप में समझा जा सकता था कि उस समय वे एम्बेसडर कार के
मालिक भी हुआ करते थे. उनका अपने स्वभाव के विपरीत अदालत जाना, गाँव जाना, बाजार जाना
आदि कार से ही हुआ करता था. स्वभाव के बारे में आम धारणा यह बनी थी कि वे कंजूस प्रवृत्ति
के हैं. न सिर्फ उनके लिए बल्कि उनकी पत्नी के लिए भी मोहल्ले में ऐसी धारणा बनी हुई
थी. उम्रदराज होने के कारण वे दोनों लोग मोहल्ले में बहुतों के चाचा-चाची थे और हम
बच्चों के बाबा-दादी हुआ करते थे. हम उनको वकील बाबा कहकर पुकारते थे.
परिवार के नाम पर
उनके दो भाई और इनका भरा-पूरा परिवार उरई में ही आमने-सामने निवास करता था पर वे दोनों
जन परिवार के नाम पर दो ही प्राणी थे. उनकी उम्र का तकाजा था या फिर उनकी प्रवृत्ति
की वास्तविकता, एक दिन पता चला कि वकील बाबा ने अपनी सफ़ेद एम्बेसडर बेच दी. अब उनका स्थानीय
यातायात का साधन साइकिल हो गया. यदाकदा उनकी कार में घूमने के कारण उनकी कार का न रहना
बुरा लगा. ये भी बुरा लगा कि अब कार में घूमना नहीं हो पायेगा. बालमन, जो आर्थिक ताने-बाने को समझता न था, एक दिन हमने घर आकर
अम्मा से कहा, वकील बाबा ने अपनी कार बेचकर साइकिल खरीद ली
है. पिताजी से कहो कि अपनी साईकिल बेचकर कार खरीद लें. अम्मा
ने उस समय हँसकर बहुत लाड़ से सिर पर हाथ फिरा दिया. बाद में जिस-जिसने हमारी बात को
सुना, खूब हँसा. अम्मा के साथ-साथ बाकी लोगों के हँसने का कारण
तब तो समझ नहीं आया मगर जब कार-साइकिल का अर्थ हमें खुद समझ आया तो अपने उस बालमन के
समीकरण पर खुद भी हँसे बिना न रहा गया.