सन् 2005 की सुबह,
फोन की घंटी घनघनाई
और फिर शुरू हुआ आशंकाओं, चिन्ताओं का दौर. जो पास नहीं था,
उसकी चिन्ता शुरू;
कैसे,
क्यों,
क्या,
कब जैसे सवालों
की मार स्वयं पर सहते और स्वयं ही उसका जवाब देते. दोनों छोटे भाई
निकल चुके थे और हम घर पर. सभी के मन में दुश्चिन्ताओं ने अपना कब्जा जमा रखा था. फोन
पर फोन और जवाब में बस घंटी पर घंटी ही बजती रही. रास्ते में चले जा रहे छोटे भाइयों
के साथ इस समस्या को बाँटने का मतलब था उनके मन में और ज्यादा परेशानियाँ भर देना.
आखिरकार बात हुई, अम्मा से, चाचा से, चाची से, सबने धीरज बँधाया,
दिलासा दी पर हम
चिन्ताओं को कम न कर सके.
होते-होते शाम आ
गई, वो शाम जिसने उस अँधियारी भरी खबर को सुनाया जो कालिख सुबह ही छा चुकी थी. शाम
को पिताजी के अभिन्न मित्र, हमारे पारिवारिक सदस्य दादा का आना हुआ,
साथ में दो-चार
और लोग भी. आते ही उन्होंने पिताजी की तबियत के बारे में जानकारी ली. उनके द्वारा जानकारी
लेने ने उन सभी संदेहों को मिटा दिया जो सुबह से दिमाग में उथल-पुथल मचाये हुए थे.
आँसू भरी आँखों और भरे गले से इतना ही पूछ पाए, पिताजी को क्या हुआ?
दादा ने जो स्नेहिल
हाथ हमारे सिर पर फिराया उसका एहसास आज तक बना हुआ है.
बिना किसी के कुछ
कहे सब स्पष्ट हो गया. दोपहर बाद से जो दिलासा दी जा रही थी वो सब सिर्फ तसल्ली देने
के लिए थी. वो डरावनी शाम कैसे आँसुओं भरी रात में बदली आज भी समझ नहीं आया. लोगों
का आना-जाना, समझाना और हमारा पूरा ध्यान अपनी जिम्मेवारियों पर,
अपनी अम्मा पर, अपने दोनों छोटे भाईयों पर,
जो पिताजी के पास
पहुँचने को सुबह ही निकल चुके थे. अम्मा ने कैसे अपने को संभाला होगा?
दोनों भाइयों ने
कैसे समूची स्थिति का सामना किया होगा? कैसे पिताजी को इस रूप में देखा होगा?
आँसुओं का सैलाब
बह निकला, दिलासा जो सुबह मिली थी वह झूठ साबित हुई,
विश्वास जो अपने
आपसे कर रहे थे वह बना न रह सका. अब इन्तजार ही किया जा रहा था. एकाएक सब कुछ लुटा-पिटा
सा लगने लगा. सब कुछ होते हुए भी खाली-खाली सा. अपने को सँभाल कर वास्तविकता को स्वीकारा,
मन को सँभाला और
अब चिन्ता शुरू हुई अम्मा की, दोनों छोटे भाइयों की. कैसे सँभाला होगा
दोनों ने अपने को? कैसे अम्मा ने नियंत्रित होकर सुबह हमें दिलासा दी थी?
कैसे दोनों भाइयों
को हिम्मत बँधाई होगी? चिन्ताओं के बीच, मन ही मन अपने आँसुओं को बहाने के बीच शुरू
हुआ सामाजिक परम्पराओं के निर्वहन का दौर. हमारा और हमारे अभिन्न मित्रों के द्वारा
रिश्तदारों, नातेदारों, मित्रों, सगे-सम्बन्धियों को फोन से सूचना देने का
कष्टकारी दौर. हर फोन पर आँसू, हर फोन पर हिचकी और सांत्वना के दो बोल,
दिलासा देते लरजते
शब्द.
रात भर याद करते
रहे पिताजी के साथ गुजारे अपने छोटे से 31 साल के सफर को. हम दोनों पति-पत्नी एक दूसरे
को दिलासा देते रात भर इंतजार करते रहे, अन्तिम बार देख लेने का. आँखों ही आँखों
में, आँसुओं में भीगी-भीगी रात समाप्त हुई, सुबह भी हुई किन्तु उजाला सा नहीं दिख रहा
था. जिम्मेवारियों का निर्वहन, सामाजिक परम्पराओं का निर्वहन सब कुछ कैसे
होगा, किस तरह होगा पता नहीं चल रहा था.
रुलाती-रुलाती घड़ी
आ गई, आया साथ में पिताजी का पार्थिव शव और साथ में रोते-बिलखते परिवारीजन. सबको सांत्वना
भी देना और स्वयं को नियंत्रित रखना, लगा कि कितनी बड़ी जिम्मेवारी एकाएक आ गई
है सिर पर. परिवार में सबसे बड़े पुत्र होने का अभिमान हमेशा रहा और छोटों के लिए कुछ
भी कर जाने के एहसास ने हमेशा छोटों से आदर-स्नेह भी प्राप्त होता रहा. इस बड़े होने
के भाव की जिम्मेवारी इस समय समझ में आ रही थी. अपने आँसुओं को छिपाते हुए छोटों के
आँसू पोंछने का काम करते, अम्मा को सँभालते,
छोटों को दुलराते
हुए अन्तिम यात्रा की तैयारी भी चलती जा रही थी.
संस्कारों,
परम्पराओं के बीच
प्रज्ज्वलित अग्नि में स्वाहा हो गया वो शरीर जिसके साथ हमने अपने व्यक्तित्व को उभरते
देखा. वो आँखें जो एक सपना लेकर जीती रहीं और हमें एक अनुशासन और स्वाभिमान सिखातीं
रहीं. वो हाथ जिन्होंने हमें चलना भी सिखाया और लिखना भी सिखाया,
जिसके आशीष में
हमने अपने आपको सदैव कष्टों से दूर रखा. लौट आये हम अपने आपको एकदम तन्हा सा करके.
लौट आये हम अपने आपको अपनों से जुदा करके. लौट आये हम मिट्टी के शरीर को राख बनाकर.
लौट आये हम कभी भी न भुलाने वाली यात्रा को लेकर.
आज भी लगता है कि
जैसे कल की ही बात हो. पारिवारिक, सामाजिक मान्यताओं के साथ-साथ पिताजी के
अनुशासन के चलते उनसे कम से कम बातचीत, काम की बातचीत के चलते उस रात एहसास हुआ
कि अपने ही पिताजी से कभी खुलकर बात न कर पाए. आज भी बात कचोटती है पिताजी से बहुत
बातचीत न हो पाने की. एक वो समय था और एक आज के बाप-बेटे हैं,
लगता है जैसे दो
मित्र हैं अलग-अलग आयुवर्ग के. क्या सही है, क्या गलत पता नहीं क्योंकि सही अपना समय
भी नहीं लगता आज और आज का समय भी हमें नहीं सुहाया आज तक.
बहरहाल,
एक दशक से अधिक समय हो गया पिताजी को गए. अब बस आसपास के आयोजन, आसपास की हलचल,
घर-परिवार की क्रियाविधि,
क्रियाकलाप देखकर
इतना ही कह पाते हैं कि पिताजी होते तो ऐसा होता, ऐसा न होता. बहुत कुछ अधूरा रह गया था,
उनके द्वारा देखना,
उनके द्वारा पूरा
करना. कोशिश तो बराबर रही कि हम पूरा कर सकें, बड़े होने के नाते सभी छोटों को उनकी कमी
न महसूस होने दें मगर पिता तो पिता ही होता है, कोई भी उसकी जगह नहीं ले सकता. हम भी नहीं
ले सके हैं, नहीं ले सकेंगे क्योंकि हमारे पिताजी वाकई हमारे पूरे परिवार
की धुरी थे, आज भी होंगे, यही सोचकर उनके सोचे हुए काम पूरे करने की
कोशिश में हैं. अब इसमें कितना सफल होंगे, ये तो आने वाला वक्त बताएगा,
परिवार के बाकी
लोग बताएँगे.
आज भी आँख बन्द
करते हैं तो अपने आसपास अपने पिताजी का होना पाते हैं. याद करते हैं बीते पलों को और
सोचते हैं कि काश! ऐसा कर लिया होता, वैस कर लिया होता. वे होते तो ऐसा करते,
वे करते तो कुछ
ऐसा होता. अब बस यादें ही यादें. कुछ दुलराती, कुछ गुदगुदाती यादें,
कुछ हँसाती तो कुछ
मधुरता बिखेरती किन्तु अब तो हर याद में आँखें नम होतीं हैं,
हर याद में.
भुलाना उन्हें सम्भव
ही नहीं, फिर से मिल पाना जिनसे मुमकिन ही नहीं! यादों में ही मिलने का
जतन करते हैं, सपनों में उन्हें खोजने का प्रयत्न करते हैं. बहते आँसुओं के
साथ पल-पल उनको याद करते हुए. बस याद ही करते हुए, यादों में ही बसाये हुए उनके बताये-बनाये
रास्तों पर आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे.