Thursday 28 September 2017

बस में यात्रा, लगा कर छाता

यात्रायें छोटे से ही करते रहने का मौका मिलता रहा है. बचपन में भले ही यात्रायें बहुत दूर-दूर की न की गई हों, भले ही बहुत सारे दर्शनीय स्थल न घूमे हों पर लगभग सभी यात्राओं में कुछ न कुछ ऐसा घटित होता रहा है जो हमेशा याद बना रहा. चाचा लोगों के पास जाना, गाँव जाना, ननिहाल जाना होता रहता था. इन यात्राओं की मजेदार घटनाएँ आज भी मन को गुदगुदा जाती हैं. 

अच्छी तरह से याद है कि हम अपने छोटे भाई और अम्मा जी के साथ रोडवेज बस से अपने चाचा-चाची के पास कालपी जा रहे थे. कालपी उरई से लगभग पैंतीस किलोमीटर दूर है. उस समय हमारे मन्ना चाचा, जो सबसे बड़े चाचा थे, रहा करते थे. हम बच्चों के मन्ना चाचा भारतीय स्टेट बैंक में अपनी सेवाएँ देकर सेवानिवृत्त हुए और सामाजिक प्रस्थिति में श्री नरेन्द्र सिंह सेंगर के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं. बरसात का मौसम था. तब पानी भी आज के जैसे छिटपुट नहीं बल्कि खूब जमकर बरसता था. इधर बस ने उरई छोड़ा ही है कि बादलों ने अपनी छटा बिखेरी. खूब झमाझम पानी. बस की खिड़कियाँ बंद कर दी गईं. मौसम सुहाना, झमाझम बारिश, हम दोनों भाई चलती बस से मौसम का भरपूर आनंद ले रहे थे.

तेज बारिश के चलते कुछ बूँदें अन्दर घुस आने में सफल हो जा रही थीं. उनके चलते अपनी तरह का ही आनंद आ रहा था. तभी ये आनंद ऊपर से आता मालूम हुआ. ऊपर देखा तो बस की छत से एक-दो बूँदें टपक रही हैं. उन टपकती बूंदों में बड़ा अच्छा लग रहा था मगर कुछ देर में उनके गिरने की गति बढ़ गई. हम और हमारा छोटा भाई, उस समय चार-पांच साल वाली अवस्था में होंगे, उन टपकती बूंदों से भीगने लगे तो हमको वहाँ से उठाकर दूसरी सीट पर बिठा दिया गया. कुछ देर में वहां से भी पानी टपकने लगा.

बाहर पानी लगातार तेज होता जा रहा था. बस की जंग लगी छत में पानी का भरना बराबर हो रहा था. जिसका परिणाम ये हुआ कि जगह-जगह से पानी बुरी तरह से अन्दर टपकने लगा. कुछ लोग जो इस मौसम की मार को समझते थे वे अपने साथ छाता लेकर चल रहे थे. आनन-फानन उन दो-चार लोगों ने अपने-अपने छाते खोल कर बस के बच्चों को भीगने से बचाया. अब आप समझिये उस हास्यास्पद नज़ारे को कि बाहर तेज बरसता पानी, चलती बस, बस में कई जगह से तेजी से टपकता पानी और बस के भीतर छाता खोले पानी से बचते लोग.

आज भी खूब तेज बारिश होने पर या फिर बारिश के समय होने वाली यात्रा में वो छाता लगाकर की गई बस-यात्रा जरूर याद आ जाती है.

Wednesday 27 September 2017

गुब्बारों के फूटने में बच्चे की हँसी

उसका कुछ भी नाम हो सकता है, कोई भी जाति हो सकती है, कोई भी धर्म हो सकता है. असल में भूख का कोई नाम नहीं होता, मजबूरी की कोई जाति नहीं होती, समस्याओं का कोई धर्म नहीं होता. नाम, जाति, धर्म का ओढ़ना ओढ़े हुए वह बच्चा शहर को एक तरफ से दूसरी तरफ नापने में लगा हुआ था. उस जैसे और भी बच्चे हो सकते हैं. हो सकते हैं क्या, ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो अपना बचपन भूलकर पेट की आग शांत करने का जुगाड़ करने में लगे हैं. वह भी ऐसे अनेकानेक बच्चों के बीच का एक बच्चा था. 

उसी तरफ से गुब्बारे बेचने का एक मन को छूने वाला आग्रह हुआ. हमारे एक पल की देरी से आने वाले जवाब के अन्तराल के साथ ही घर जाने की उसकी आतुरता दिखाई दी. किसी भी बच्चे का पेट की आग बुझाने को काम करते देखना अपने आपमें दुखद होता है. इसके बाद भी यदि किसी बच्चे द्वारा कोई हल्का-फुल्का सा काम करते देखते हैं तो अपने आपमें इसका सुकून मिलता है कि कम से कम वो भीख तो नहीं माँग रहा, किसी की जेब तो नहीं काट रहा, कहीं चोरी-चकारी तो नहीं कर रहा है. 

गुब्बारे लेने के आग्रह के समय रात का आठ बजने को आया था. हलकी सी सर्दी के बीच उस बच्चे को अभी लगभग पाँच-छह किमी दूर अपने गाँव जाना था. उसके गुब्बारे लेने का आग्रह स्वीकार किया तो उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी. इस सहमति के साथ जैसे ही उसकी एक फोटो खींचने की अनुमति उससे माँगी तो उरई शहर के पास के एक गाँव का निवासी, वहीं गाँव के विद्यालय में कक्षा छह का विद्यार्थी वह बच्चा अपनी फोटो लिए जाने की बात से चहक उठा. एक पल को भूल गया कि उसने गुब्बारे लेने का आग्रह किया था. दो फोटो खींच सके कि उसकी ख़ुशी पर पेट की आग फिर हावी हो गई. पेट की आग कहाँ कुछ भूलने देती है, उसकी एक पल की ख़ुशी के पीछे प्रश्नवाचक शब्द निकले. भूख ने उसके अन्दर संदेह पैदा किया कहीं बिना गुब्बारे लिए ही बस फोटो खींच कर ये भाग न जाये. गुब्बारे के धीमे से निकले उसके स्वर को अपनी सहमति के द्वारा आश्वस्त किया तो उसके चेहरे पर फिर से मुस्कान तैर गई.

फोटो खींचने के बीच मोबाइल अपनी जेब के हवाले किया. गुब्बारों के लेने और पैसों के देने के बीच उसने अपने बारे में बताया. विद्यालय जाना और फिर लौटकर गुब्बारे लेकर उरई आ जाना. दिनभर में कोई 35-40 गुब्बारे बेचने के बाद रात को गाँव वापस पहुँच कर कुछ लिख-पढ़ लेना. कक्षा छह के विद्यार्थी को अनुशासित रूप में विद्यालय-परिवार, अध्ययन-व्यवसाय, घर-बाज़ार के साथ तालमेल बनाये देखना अपने आपमें अचरज में डाल गया. एकबारगी मन में आया कि इसकी मदद कुछ पैसे देकर की जाये फिर लगा कि जो बच्चा खुद को कहीं न कहीं भीख माँगने से अलग रखे हुए है, उसे धन की मदद भिक्षावृत्ति को प्रेरित तो नहीं कर देगी? साथ ही लगा कि जो बच्चा पूरे अनुशासित रूप में अपना संतुलन बनाकर आगे बढ़ रहा है, कहीं उसकी खुद्दारी, उसकी राह में व्यवधान उत्पन्न तो नहीं करेगा.

इस दो-चार मिनट की उलझन के बाद जितना संभव हो सकता था, गुब्बारे लिए. गाड़ी-सामान के साथ हाथों की सीमित संख्या ने भी गुब्बारों की खरीद पर अंकुश लगाया. बच्चा अपनी अतुलित प्रसन्नता के साथ गुब्बारे तोड़-तोड़ देता जा रहा था और हम उनको संभालने में लगे हुए थे. बाज़ार से घर तक की यात्रा में कुछ गुब्बारे नवदुर्गा के पावन अवसर पर सजी देवी माँ की झांकियां देख लौट रहे बच्चों में बंट गए तो कुछ गुब्बारे भीड़ की, हवा की चपेट में आकर फूट गए. फट-फट की आवाज़ लोगों में क्या सन्देश दे रही होगी ये तो पता नहीं पर हमें कहीं न कहीं उस ध्वनि में बच्चे की हँसी सुनाई दे रही थी. घर पहुँचने के बाद घर के बच्चे भी चहक-चहक कर बचे हुए कुछ गुब्बारों को फोड़ने-उड़ाने में लग गए.

Saturday 23 September 2017

हॉस्टल के मूँछ कटवा भाईसाहब

कुछ दिनों पहले मुँह नुचवा, चोटी कटवा जैसी घटनाओं की अफवाह चारों तरफ फैली पड़ी थी. कोई अपने नुचे मुँह के साथ खबर बना हुआ था तो कोई महिला अपनी कटी चोटी के साथ टीवी पर दिखाई दे रही थी. इन खबरों के बीच उन महिलाओं को आसानी हो गई जो बॉब कट बाल रखना चाहती थीं मगर कतिपय पारिवारिक स्थिति के चलते अपनी इच्छा का गला घोंट दे रही थीं. चोटी कटवा ने कहीं न कहीं उनकी मदद कर दी. ऐसी घटनाओं को जब-जब पढ़ते तो अपने हॉस्टल के मूँछ कटवा की याद आ जाती.

साइंस कॉलेज, ग्वालियर हॉस्टल में हम जैसे बहुत से नए लड़के थे जो दाढ़ी-मूँछ की शुरुआती झलक देखने को तरस रहे थे. इसी के साथ कुछ सीनियर्स भाई बाक़ायदा दाढ़ी-मूँछधारी थे. मूँछ वाले भाइयों को अपनी मूँछ पर इतराना होता था तो बे-मूँछ भाई अपनी जरा-जरा सी रेख को हवा में उमेठते हुए उनके साथ ताल ठोंकते नजर आते. हम जैसे कुछ भाई दाढ़ी-मूँछ धारी भाइयों का आफ्टर शेव लोशन का इस्तेमाल किसी इत्र की करते. दाढ़ी-मूँछ धारी भाइयों में चिंता का विषय होता कि कौन उनके लोशन पर हाथ साफ कर ले रहा है. दाढ़ी-मूँछ न होने के कारण हम लोगों पर कोई शक भी नहीं करता कि हम लोग ऐसा करते होंगे. ऐसी न जाने कितनी शरारतें हॉस्टल की हवा में तैरती-उतराती रहती थीं.

इन तमाम शरारतों के बीच हमारे राकेश शर्मा भाईसाहब (सीनियर्स को सर के स्थान पर भाईसाहब कहने की परम्परा थी) को अजीब सी शरारत सूझी. देर रात वे चुपके से अपने सहपाठी या अपने सीनियर (जो मूँछधारी होते) के कमरे में जाते और तेज़ ब्लेड के एक वार से उसकी एक तरफ़ की मूँछ उड़ा आते थे. उनके द्वारा यह सब इतनी सहजता से किया जाता कि सोये हुए भाई को खबर ही न हो पाती कि राकेश भाईसाहब उसकी मूँछ के साथ क्या कर गए. एक तरफ की मूँछ से वंचित वह भाई जब अगली सुबह अपने  चेहरे को देखता, अपनी एक तरफ की उड़ी हुई मूँछ देखता तो परेशान हो जाता, हैरान भी होता. बाक़ी लोग मौज लेते हुए इसे सात नम्बर कमरे के भूत का काम बताते. हॉस्टल के सात नंबर कमरे को हमने कभी खुले नहीं देखा. ऐसा कहा जाता कि उसमें एक भूत है और इसी कारण उस कमरे को खोला नहीं जाता. वह कमरा किसी को दिया नहीं जाता. उसमें किसी को रुकाया भी नहीं जाता. असलियत क्या थी न किसी ने बताया, न ही जानने की कोशिश की.

बहरहाल बात अपने हॉस्टल के मूँछ कटवा की. दो-चार लोगों की मूँछें उड़ने के बाद पता चल गया कि ये मूँछ उड़ाने वाला भूत कौन है. इस शरारत को राकेश भाईसाहब ने उन्हीं लोगों पर आज़माया जो अपनी ज़रा-ज़रा सी मूँछों पर इतराते फिरते थे. एक तरफ़ की उड़ने के बाद अगला आदमी दूसरे तरफ़ की ख़ुद उड़ाता था. इसके बाद हम सभी ख़ूब मौज लेते थे, बिना मूँछ वाले भाईसाहब की.

ऐसे ही मूँछधारी भाइयों में में एक भाईसाहब हुआ करते थे एम०पी० सिंह कुशवाह. हॉस्टल के मूँछ कटवा ने उनकी भी एक तरफ़ की मूँछ उड़ा दी. इसके बाद भी उन्होंने दूसरे तरफ़ की मूँछ न बनाई. जो मूँछ उड़ा दी गई थी, उस जगह वे तब तक बैंडेज लगाते रहे जब तक कि उनकी मूँछ न आ गई.

पता नहीं ये चोटी-कटवा या मुँहनुचवा किसलिए ऐसा कर रहा था पर हमारे भाईसाहब ने फ़ुल मौज-मस्ती-शरारत में मूँछ कटवा की भूमिका निभाई. इसमें किसी की मारपीट न हुई, किसी को भूत-चुड़ैल न घोषित किया गया. आज भी ये शरारत याद आने पर गुदगुदी सी होने लगती है.


Wednesday 20 September 2017

और फिर दौड़ पड़ी कार


दीपावली की बात थी. हमारे बच्चा चाचाजी उस समय ग्वालियर में थे और अपनी कार से आये थे. तब तक हमें कार चलानी नहीं आती थी. घर में पहली कार भी वही थी. अपनी पढ़ाई के दौरान ग्वालियर में कई दोस्तों के घर में कार थी पर सोचा करते थे कि जब अपने घर में कार आयेगी तभी चलाना सीखेंगे. 

त्यौहारों पर सभी चाचा लोग यहाँ उरई में इकट्ठा होकर उन्हें हँसी-खुशी से मनाते हैं. अब माहौल भी उमंग भरा था और घर में कार भी खड़ी थी. हमने चाचा से कार सिखाने के लिए कहा तो चाचा ने कहा कि तुम खुद सीख लो. अब समझ नहीं आया कि क्या किया जाये? एक-दो दिन तो ऐसे ही ऊहापोह में गुजर गये. तीसरे दिन हमने और हमारे छोटे भाई ने हिम्मत करके कार की चाबी उठाई और घुस गये कार में. हालत ये थी कि न तो हमें कार चलानी आती थी और न ही हमारे छोटे भाई पिंटू को. चूँकि हमारे घर के पास जगह कम होने के कारण कार सीधी तो आ जाती है पर जब उसे सड़क तक लाना हो तो बैक करके ही ले जाना होता है. कार चलाना सीखना भी था तो समझ नहीं आया कि अभी सीधे-सीधे तो चलानी आती नहीं है बैक कैसे करेंगे? इसके बाद भी हिम्मत करके चाबी लगाई, घुमाई और कार स्टार्ट.

हम बैठे थे ड्राइविंग सीट पर और छोटा भाई बगल में. लगाया बैक गियर और दबाया एक्सीलेटर पर गाड़ी रफ्तार ही न पकड़े. हमने देखा कि हम ब्रेक पर पैर भी नहीं रखे हैं पर गाड़ी चलने के मूड में नहीं दिख रही थी. लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये. कार को बन्द कर नीचे उतर आये. अबकी छोटा भाई ड्राइविंग सीट पर बैठा कार स्टार्ट और फिर वही स्थिति. कुछ समझ नहीं आया. तभी मोहल्ले के एक भाईसाहब निकले. हमने आवाज देकर उन्हें बुलाया और अपनी समस्या बताई. भाईसाहब ने एक पल की देरी किये बिना कहा कि देखो हैंडब्रेक तो नहीं लगा है?  अब पता तो था नहीं कि ये क्या बला होती है. भाईसाहब ने बताया और उस समस्या को दूर किया. अब कार धीरे-धीरे पीछे को जाने लगी. ऐसा अभी तक आराम से हो रहा था तो हिम्मत भी आ रही थी. जैसे-तैसे चार-पाँच बार कार के बन्द होने के बाद वह सड़क पर आ गई.  

अब लगाया पहला गियर और एक्सीलेटर दबाते ही कार अपनी असल रफ्तार पकड़ गई. अब एक और समस्या, गियर लगायें तो उसी को देखने लगें और पता चले कि कार सड़क के दूसरी ओर भागने लगे. फिर कार को सड़क के बीच में लायें और जब अगला गियर डालें तो फिर वही स्थिति. इस दौरान समझ आ गया कि गियर बदलते समय उसे देखना नहीं है, बस गियर लीवर को आगे-पीछे करना है. लगभग एक घंटे तक सड़क पर कार को हम दोनों भाई दौड़ाते रहे और सीख भी गये.

इस कार सीखने में अच्छाई यह रही कि हमने किसी को चोटिल नहीं किया न ही कार को कहीं टकराया. अगले दिन हम अपनी दादी, अम्मा, चाची को कार में बिठा कर पास के राधा-कृष्ण मंदिर के दर्शन करवाने ले गये. भीड़ में कार चलाना सीखना और फिर परिवार के सदस्यों को घुमाने ने गजब का आत्मविश्वास ड्राइविंग को लेकर पैदा किया जो आज तक बना हुआ है.

चाचा की एक बात आज भी याद आती है जो उन्होंने हम लोगों के लौटने के बाद कही थी कि यदि तुममे कार चलाना सीखने की हिम्मत होगी तो बिना किसी सहारे के सीख लोगे, यदि खुद में हिम्मत न होगी तो हम क्या कोई भी तुमको सिखा नहीं सकेगा. आज लगता है कि यह बात हर एक काम में लागू होती है.



Sunday 17 September 2017

बदल दिए निर्णय बूढ़े बाबा को देख


घर से कॉलेज, हॉस्टल के लिए वापसी हुई, एक दुःख भरे अध्याय के साथ. बाबा जी के निधन ने जैसे पूरे परिवार को हिलाकर रख दिया था. समस्त पारिवारिक संस्कारों की समाप्ति के बाद कॉलेज आना हुआ. रेलवे स्टेशन से बाहर निकले. रास्ते भर दिमाग तमाम सारे फैसले करते हुए हमसे उनकी स्वीकारोक्ति करवाता जा रहा था. कॉलेज का पहला साल मिश्रित रूप से बीता था. शैक्षणिक अंकों में गिरावट दिखी तो लड़ाई-झगड़ों के ग्राफ में बढ़ोत्तरी दिख रही थी. कुछ ग्राफ बनाये हुए और कुछ ग्राफ काल्पनिक. 

ग्वालियर में कदम रखते हुए सोचा कि अब लड़ाई-झगड़ा बंद. किसी से कोई दुर्व्यवहार नहीं. सोचते-विचारते, आगे की योजनायें बनाते चले जा रहे थे कि तभी कानों में किसी वृद्ध व्यक्ति का कातर स्वर पड़ा. पलटकर देखा तो एक ऑटो वाला एक वृद्ध से लड़ने में लगा हुआ था. कदम एकबारगी उस तरफ बढ़ने को हुए कि रास्ते भर लिए गए तमाम निर्णयों में से एक निर्णय ने अपना सिर उठाया कि नहीं, लड़ना नहीं है. 

अपने बैग को कंधे पर लटका, हमें क्या करना है, जो हो रहा है होने दो, सोचकर टैम्पो पकड़ने की राह चल दिए. मुश्किल से दो-तीन कदम ही चले होंगे कि ऐसा लगा जैसे वह बूढ़ा व्यक्ति रो रहा है. मन न माना और पलट कर देखा तो उस ऑटो वाले ने उस वृद्ध के दोनों झोले अपने कब्जे में ले रखे हैं और बूढ़ा व्यक्ति दोनों हाथ जोड़े वाकई रो रहा है. एकदम दिमाग में विचार कौंधा कि यदि कहीं हमारे बाबा कभी ऐसे अकेले परेशानी में पड़ जाते तो? बस जैसे ही ये विचार उभरा वैसे ही रास्ते भर लिए गए तमाम सारे निर्णयों पर परदा पड़ गया.

बूढ़े व्यक्ति की तरफ तेजी से बढ़े कदम रुकते-रुकते तीन-चार तेज तमाचे ऑटो वाले के चेहरे को लाल कर चुके थे और दोनों झोले बूढ़े बाबा के हाथ में थे. आनन-फानन हुई इस ठुकाई कार्यवाही से ऑटो वाला हड़बड़ा गया. इससे पहले कि हम उन बूढ़े बाबा को प्लेटफॉर्म की तरफ ले जा पाते, आसपास खड़े चार-पांच ऑटो वालों ने हमें घेर लिया और चिल्लाने लगे. हमारे कुछ बोलने-कहने से पहले ही एक सैन्य वर्दीधारी व्यक्ति ने पीछे से आकर तेज आवाज़ में उस चिल्लाहट का कारण जानना चाहा. हमारे पूरी बात बताते ही उसने कहा, बेटा, तू बाबा को छोड़कर आ. इसे मैं देखता हूँ. उस वृद्ध व्यक्ति को प्लेटफॉर्म की तरफ पहुँचाते हुए पलट कर देखा तो ऑटो वाला उस सैन्य वर्दीधारी से दो-तीन तमाचे और खाता नजर आया.