Wednesday 12 November 2014

हत्यारा अनुशासन


हँसते-खेलते-कूदते कब हाईस्कूल पास कर लिया पता ही नहीं चला. बोर्ड परीक्षाओं का हौवा भी हम मित्रों को डरा न सका था. हाईस्कूल की परीक्षाओं की समाप्ति को हँसते-खेलते-कूदते इसलिए कहा क्योंकि किसी भी विषय की परीक्षा समाप्त होते ही तय हो जाता था कि कितनी देर में खेल के मैदान पर पहुँचना है? कहाँ खेलने पहुँचना है? उस समय दयानंद वैदिक महाविद्यालय और सनातन धर्म इंटर कॉलेज के मैदानों पर खेलने वालों का जमावड़ा लगता था. बस ये तय हो जाता कि कहाँ पहुँचना है, क्या खेलना है.

हाईस्कूल परीक्षा पास कर लेने की ख़ुशी के साथ इसकी भी ख़ुशी थी कि अब विषय विशेषज्ञ बनने का मौका मिलेगा. जी हाँ, उस समय यह अपने आपमें किसी विशेषज्ञ से कम नहीं था, हम लोगों के लिए कि अब आगे की पढ़ाई विज्ञान वर्ग, कला वर्ग या वाणिज्य वर्ग से होनी है. ये भी उस समय आपस में विमर्श का विषय बना हुआ था, हम दोस्तों के बीच कि विज्ञान विषय की पढ़ाई के लिए कौन गणित का चयन करेगा और कौन जीवविज्ञान की तरफ जायेगा. ऐसा होने, करने के पीछे भी हम लोगों के अपने तर्क रहते थे.

हम सभी मित्रों ने हाईस्कूल में विज्ञान वर्ग को ले रखा था. इस कारण सभी दोस्तों के बीच सहज रूप से ये स्वीकारोक्ति थी और सहमति भी थी कि हम सभी विज्ञान विषय से ही आगे की पढ़ाई करेंगे. इसी सम्भावना और शत-प्रतिशत सहमति के बीच कुछ अचंभित करने जैसा भी हुआ. नए सत्र में कॉलेज खुला. सभी मिले, एक दूसरे के विषयों की जानकारी का आदान-प्रदान हुआ. कोई गणित विषय का चयन कर चुका था, किसी ने जीवविज्ञान को चुना था. हम सभी दोस्तों को ये जानकर आश्चर्य हुआ कि हमारे बीच के ही एक होनहार मित्र राजीव त्रिपाठी ने कला वर्ग में एडमीशन ले लिया था. गर्मियों की पूरी छुट्टियों में लगभग रोज ही उससे मुलाकात होती थी मगर उसने कभी न तो इसका जिक्र किया और न ही अपनी किसी बात से हम लोगों को आभास होने दिया कि वह विज्ञान वर्ग को छोड़कर कला वर्ग से आगे की पढ़ाई करेगा. व्यक्तिगत हमारे लिए आश्चर्य इसलिए भी था क्योंकि वह बचपन से हमारा मित्र था और उसकी तीव्र इच्छा इंजीनियर बनने की थी. अकेले में उसे कई-कई दिन समझाने, कुदेरेने के बाद उसने बताया कि उसके पिताजी की इच्छा उसे प्रशासनिक अधिकारी बनाने की है. उन्होंने ही उसके विषय निर्धारित करके उनके सहारे ही आगे पढ़ने को कहा है. हँसने-मजाक करने वाला, सीधा-साधा, हंसमुख हमारा मित्र राजीव अपने पिता की इच्छा के दवाब में उदास, गुमसुम रहने लगा.

उसके पिता का सख्त अनुशासन हम बचपन से ही देख रहे थे. किसी भी दोस्त का उसके घर जाना लगभग न के बराबर होता था. उसका भी बहुत कम किसी दोस्त के घर जाना होता था. बाहर खेलने की अनुमति भी उसको बहुत कम मिलती थी. यदि कभी उससे मिलने के लिए उसके घर जाना भी होता तो वह अपने कमरे की सड़क पर खुलने वाली खिड़की से बात करता. हम लोग सड़क पर और वह घर के अन्दर से. ऐसे में भी वह अपने पिता की आहट होते ही हम लोगों को वहां से जाने को कहकर खिड़की बंद कर लेता.

समय बीतता रहा. पिता के सख्त अनुशासन और सिविल सेवा में जाने की जिद जैसी सनक में राजीव सिविल सेवा में तो चयनित न हो सका किन्तु अपना दिमागी संतुलन अवश्य खो बैठा. परास्नातक कर लेने के बाद उसे अपने सिविल सेवा में चयनित होने का भ्रम हो गया. हम मित्रों से मिलने पर उसमें कभी सामान्य राजीव नजर आता तो उस सीधे-साधे मासूम से राजीव की जगह कोई घनघोर सख्त प्रशासनिक अधिकारी दिखाई देने लगता. उसकी बातचीत, उसके हावभाव, उसका अंदाज सबकुछ अलहदा लगता. धीरे-धीरे उसकी स्थिति और ख़राब होती रही. कभी कॉलेज के कार्यक्रम में उसके द्वारा की गई उठापटक की खबर सुनाई देती. कभी उसके द्वारा उरई में कई लोगों संग मारपीट किये जाने की घटनाएँ सामने आने लगीं. आये दिन, दिन हो या रात, सूट-बूट में तैयार होकर किसी मीटिंग, बैठक, दौरे के नाम पर उरई की सड़कों पर उसका भटकना आम बात हो गई थी.

एक दिन खबर मिली कि राजीव को किसी दूसरे शहर में किसी मनोरोग चिकित्सालय में भर्ती करा दिया गया है. उसके बाद की उड़ती-उड़ती अनेक खबरों के बीच पुष्ट किन्तु अत्यंत दुखद खबर मिली राजीव के देहांत की. आघात सा लगा, असमय अपने दोस्त का जाना खला. न केवल एक प्रतिभा का क्षरण होना बल्कि एक मासूम व्यक्तित्व का शांत हो जाना व्यथित कर गया. लगा कि उसके पिता का अनुशासन उसका हत्यारा निकला. न सिर्फ उसका हत्यारा बल्कि उसके बड़े दो भाइयों का भी. उसके पिता का अनुशासन इसलिए भी हत्यारा क्योंकि उनकी प्रशासनिक अधिकारी बनाने की सनक के चलते राजीव के दो भाइयों ने आत्महत्या कर ली थी. इससे संदर्भित एक घटना अन्दर तक हिला देती है जबकि उनके शादीशुदा एक बेटे ने उरई से कहीं दूर अपने नौकरी करने वाले शहर में आत्महत्या कर ली थी. ऐसे में भी उनके हत्यारे अनुशासन से डरी उनकी पुत्रवधू उनको फोन करके अनुमति माँगती है, अपने दिवंगत पति के कार्यालय के सहकर्मियों संग अपने पति की पार्थिव देह तक जाने की.

उफ़! अनुशासन का अपना महत्त्व है किन्तु उसे हत्यारा तो न बनाया जाये.


Friday 10 October 2014

प्यार भरे दिल में प्यार की कहानी


प्रेम को लेकर लोगों के कांसेप्ट बड़े ही विचित्र हैं. उसमें भी पहले प्यार को लेकर और भी गजब धारणाएँ बनी हुई हैं. प्यार एक बार ही होता है. पहले प्यार के बाद प्यार होता ही नहीं. पहला प्यार ही आखिरी प्यार होता है वगैरह-वगैरह. प्रेम को लेकर इतनी रूढ़िवादी सोच अपनी कभी नहीं रही. हमेशा से मानना रहा है कि यदि व्यक्ति जिंदादिल है, खुशमिजाज है, सकारात्मक सोच वाला है तो उसे सदैव प्यार होगा, सबसे प्यार होगा.

हमने भी सबसे प्यार किया. कई-कई से प्यार किया. हर उम्र में प्यार किया. ये और बात है कि वर्तमान सोच के चलते प्यार का अंजाम विवाह नहीं बना. इसके चलते ये भी तो नहीं कहा जा सकता कि प्यार असफल रहा. आखिर प्रेम के सफल, असफल होने का पैमाना क्या है? क्या सिर्फ विवाह ही किसी प्रेम की सफलता है? यदि यही अंतिम सत्य है तो वाकई हमारा प्रत्येक प्रेम असफल कहा जायेगा. लगातार असफलता के बाद भी हम प्रेम करते रहे या कहें कि हमसे भी प्रेम करने वाले मिलते रहे. (इसे मिलती रही भी पढ़ा जा सकता है.)

कुछ ऐसा ही उन दिनों हुआ जबकि हम प्रेम की कई-कई सीढियाँ अकेले चढ़ते हुए अपने कैरियर की इमारत बनाने की कोशिश कर रहे थे. जिस तरह हम अपने प्रेम को समाज की परिभाषा के अनुसार में सफलता की मंजिल तक नहीं पहुँचा पा रहे थे उसी तरह कैरियर की इमारत बनने की स्थिति में नहीं दिख रही थी. इस ओर से उस ओर तक हर स्थिति हमारे ऊपर असफल होने का ठप्पा लगाने को आतुर थी. उन्हीं विषम दिनों में उससे लगभग रोज ही सामान्य सी औपचारिक मुलाकात हो जाती थी. सामान्य सी बातचीत, सामान्य सा हंसी-मजाक. मुलाकात के चंद दिन ही गुजरे होंगे कि एक दिन उसने समाचार-पत्र में लिपटी एक डायरी देते हुए उसमें अपने बारे में कुछ लिखने को कहा. आग्रह जैसा कुछ नहीं, निवेदन जैसा कुछ नहीं, प्यार जैसा भी नहीं कह सकते मगर दोस्ती जैसा भी समझ नहीं आया. कुछ अधिकार सा समझ आया, उसके कहने में, उसके कुछ बताने में. डायरी अब उसके हाथों से गुजरती हुई हमारे हाथों में थी. दो-चार दिन इसी सोच-विचार में गुजर गए कि कुछ लिखने को आखिर हम ही क्यों? और यदि हम ही तो फिर लिखा क्या जाये? लिखने का अर्थ कुछ और न समझा जाये. बहरहाल, जो मन में था, जो दिल में था, लिखा. समय गुजरता रहा. बातें गुजरती रहीं. मुलाकातें गुजरती रहीं. इसे आरम्भ कहा जा सकता था किन्तु अपनी वास्तविकता को जानते-समझते हुए दिल को धड़कने से रोके रखा गया. 

समय गुजरता रहा. मुलाकातें होती रहीं. बातचीत चलती रही. आँखों ने आँखों से भले ही कुछ कहा हो मगर कुछ बंधन रहे जिन्होंने शब्दों को आज़ाद न होने दिया. ऐसी स्थिति में भी अपने सामने उसको खुद में सिमटते देखा. अपने सामने उसे खुलकर बिखरते देखा. अपने सामने हमारे लिए उसे निश्चिन्त देखा. अपने सामने हमारे लिए उसे चिंतित देखा. प्यार का उमड़ना देखा. अपने लिए उसके होंठों पर मुस्कराहट भी देखी. अपने लिए उसकी आँखों का नम होना भी देखा. यह सब तभी हो पाता है जबकि दिल की गहराइयों में किसी को बसा लिया जाये. इसे भले ही प्यार का नाम दे दिया जाये मगर कई बार लगता है कि यह प्यार से अधिक विश्वास का भाव होता है.

ऐसे ही विश्वास या कि प्यार का सिमटना देखा. कदम-कदम आगे बढ़ते-बढ़ते कदमों को कदम-कदम पीछे होते देखा. भावनाओं को शब्दों में बदलने से रुकते देखा. एहसासों का आभास होने के बाद भी उनको स्वीकार न करते देखा. सबकुछ कहने के बाद भी खामोशियों भरा मौन का मंजर देखा. मजबूरियाँ दोनों तरफ से थी, जो स्पष्ट रूप से सामने दिख रही थी. उसके सामने सामाजिक बंधन जैसी स्थिति थी या कुछ और पता नहीं पर हमारे सामने कैरियर बनाने जैसी स्थिति खड़ी थी. इसी बढ़ते-सिमटते में उसका चले जाना हुआ. वर्षों गुजर गए. वो आज भी दिल में है. इस छोर पर सबकुछ है, उस छोर पर क्या, कितना है पता नहीं. फिर वही बात कि आधुनिक मानकों पर प्रेम असफल रहा. एक और प्रेम कहानी हमारी नजर में पूर्ण पवित्र रही भले ही समाज की नजर से अधूरी रह गई हो.


Thursday 25 September 2014

बिना गलती सजा स्वीकार नहीं

नई दिल्ली के विकासशील समाज अध्ययन केन्द्र (सीएसडीएस) से जुड़ना नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में डॉ० आदित्य कुमार जी के कारण हुआ. इस संस्था द्वारा कराये जाते चुनाव सर्वे में बुन्देलखण्ड टीम का हिस्सा बनने का अवसर कई बार मिला. अपनी तरफ से पूरी ईमानदारी और निष्ठा भाव से कार्य को सदैव सपन्न करते रहे. सन 2004 में सीएसडीएस द्वारा एशियाई बैरोमीटर निर्धारण करने वाली टीम में उत्तर प्रदेश की तरफ से शामिल होने का मौका मिला. इसकी तैयारियों से संदर्भित दो दर्ज़न राज्यों के सदस्यों की एक कार्यशाला नोएडा में आयोजित हुई, जिसमें शामिल होने का अवसर मिला. वहाँ क्या, कैसे हालात बने, क्या कुछ सीएसडीएस को हमारे बारे में बताया-सुनाया गया कि हमारे खिलाफ मौखिक निर्देश निर्गत किया गया, टीम से बाहर किये जाने का. ऐसा सब हुआ बिना हमारा पक्ष सुने. यदि यह शांति से स्वीकार कर लिया जाता तो कहीं न कहीं अपनी उस गलती को स्वीकारना था जो न तो हमने की और न ही हमें बताई गई. 

इसी सन्दर्भ में निम्न पत्र सीएसडीएस को भेजा गया. जिसके बाद अगली वर्कशॉप में ससम्मान बुलाये जाने जैसा कदम सीएसडीएस द्वारा उठाया गया.

श्रीमान जी,
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें
आशा एवं विश्वास है कि ‘अब’ आप लोग ‘ज्यादा’ प्रसन्न होंगे.

वैसे नववर्ष पर एशियाई बैरोमीटर का निर्धारण करने वाली स्वप्निल सीएसडीएस टीम के बेदखल सदस्य का ‘पत्र’ पाकर आप लोगों की खीझ भरी औचक प्रतिक्रिया तो मन में उभरी ही होगी. चलिए समय की बर्बादी न करते हुए सीधे मुद्दे पर आया जाये, (वैसे भी आप लोगों क पास समय की ही कमी है.) वो यह कि किसी भी निर्णय को ख़ामोशी से स्वीकार लेना उसमें छिपे दोषों की स्वीकार्यता को बढ़ाता है वहीं सही समय पर किसी निर्णय पर ओढ़ी गई ख़ामोशी को तोड़ना बुद्धिमत्ता का परिचायक तो कहा ही जा सकता है. हमारे ऊपर निर्णय लेने में समूची सीएसडीएस टीम लग जाएगी, यह कभी सोचा भी नहीं था किन्तु निर्णय लेने की अतिशय जल्दबाजी और अत्यधिक अहं भाव ने आप लोगों को कुछ महत्त्वपूर्ण पलों से वंचित कर दिया. हालाँकि बेदखल करने का हमारा उदाहरण देकर आपने कुछ हित अवश्य ही साधने का प्रयास किया है किन्तु बहुत कुछ आप लोगों ने खो भी दिया है. क्या खोया है यह आप लोग सोचिये.

कुछ बातें हम तक छन कर पहुँची और कुछ सीधे पहुँची तो सार निकला कि ‘ऑफ़ दरिकॉर्ड’ बातों को रिकॉर्ड करने में आपके कथित सहयोगियों का जवाब नहीं. क्या कुछ हमने कहा, क्या कुछ आपके भेदियों ने सुना और क्या कुछ आपके कानों को सुनाया गया, पता नहीं पर परिणाम यह कि ‘कुमारेन्द्र इस सर्वे में काम नहीं करेंगे’ के रूप में सामने आया. यहीं आकर सवाल खड़ा होता है कि आगे कौन काम करना चाहेगा? आप लोगों की अपने बारे में सोच अच्छी होगी (होनी भी चाहिए) पर कभी यह सोचा है कि इस अच्छी सोच का कारण क्या है? हम जैसे तमाम investigators जो आप लोगों की तरह एसी में बैठकर नीति निर्धारण का काम नहीं करते हैं; बातों के बताशे नहीं फोड़ते हैं.

आपकी ओर से बात आई कि हमने आपकी (सीएसडीएस) की पॉलिसी पर सवाल उठाये हैं. क्या आप लोगों को अपनी पॉलिसी निर्विवाद लगती है? आप लोग खुद कहेंगे ‘नहीं’ फिर अपने दोषों का ठीकरा औरों के सिर क्यों फोड़ा जाता है? नॉएडा वर्कशॉप में तो किसी तरह की चर्चा ही नहीं हुई थी (होती भी तो खुलकर होती क्योंकि अपनी आदत चुगली करना नहीं है, जो कहते हैं खुलकर कहते हैं, सभी के सामने कहते हैं. यह तो आप प्रश्नावली पर चर्चा के दौरान देख ही चुके हैं.) पर अब जब यह आरोप लग ही गया है तो थोड़ा खुलकर दौर चलें तभी सही मजा है.

1- पहली बात तो यह कि आप लोग अपने सच्चे हितैषी लोगों को भूलने की परम्परा का निर्वाह करते हैं. यह बात तो सिंह साहब आप स्वीकारेंगे क्योंकि आपको हर बार ‘फ्रेशर’ ही चाहिए होते हैं. इसके अलावा स्व० प्रदीप जी तो याद होंगे ही आपको, जिनके देहांत के बाद आयोजित कार्यशाला में दो शब्द भी सीएसडीएस की ओर से नहीं निकल सके थे. (पता नहीं प्रदीप जी अब आप लोगों की स्मृति में हैं भी या नहीं?)

2- बात जब फ्रेशर की आई तो आपको बताते चलें कि आपको ‘काम करने वालों’ की जरूरत है न कि सहयोगियों की. जैसे किसी इमारत को बनाने में मजदूरों की अहमियत सामान ढोने तक है, किसी भी तरह की सही-गलत परिभाषा देना उसकी सीमा में नहीं आता है. इसके उलट सहयोगियों द्वारा प्रत्येक दोष को दूर करने का प्रयास होता रहता है. (पता नहीं आ कब इस तथ्य-सत्य को समझेंगे?

3- पॉलिसी मेकर्स को सबसे बुरा तब लगता है जब उसकी पॉलिसी पर ही सवाल खड़े होने लगें. सीएसडीएस को समूचे विश्व के सामने खड़ा करने की ललक में कुछ कमियों को नजरअंदाज किया जा सकता था किन्तु जब बात purity और surity की हो और ‘बैरोमीटर’ का निर्धारण हो तो किसी भी तरह की हीलाहवाली नहीं होनी चाहिए. इसके बदले हमारे सिंह साहब कहते हैं कि पिछले सर्वे को भूल जाइए, फ्रेशर की जरूरत है. क्या यह सही पॉलिसी है? सोचियेगा, गलती कौन बताएगा? विश्व समुदाय के सामने गलत डाटा के साथ सिर ऊँचा करेंगे या सिर ऊँचा रखने को रिजल्ट (मनमाफिक) पहले से ही तैयार रहता है?

4- आपका एशियाई बैरोमीटर का प्रोजेक्ट पिछले कई वर्षों से मात्र धन के अभाव में रुका पड़ा था (जैसा कि आपका कहना था). सोचने वाली बात है कि इतने बड़े सर्वे में खर्च हो रहे करोड़ों रुपयों के बाद शुद्धता और शत-प्रतिशतता को सिद्ध करने के लिए आप लोग investigators के क्षेत्र में री-सर्वे करवाने की बात करते हैं. क्या यह investigators पर अविश्वास नहीं? और आप गलत आँकड़े (किसी भी कारण से) लेकर विश्व समुदाय के सामने जायेंगे तो क्या कोई आप लोगों को re-check करने वाला वहां होगा? नहीं होगा न..!! (विश्वास या मजबूरी या धन की अधिकता)

5- धन देने वाली बड़ी-बड़ी फंडिंग एजेंसीज को अपने धन को खपाने वाला कोई माध्यम चाहिए और उस माध्यम के ऊपर एक प्रकार का विश्वास. आप लोग investigators के लिए न तो बड़ी फंडिंग कर पाते हैं और न ही उन पर विश्वास कर पाते हैं और न ही उन्हें सुरक्षा ही दे पाते हैं. क्या यह स्थिति महज कामगार मजदूरों के साथ लागू नहीं होती?

6- जहाँ तक investigators की सुरक्षा का प्रश्न है तो वह केवल अपनी ही सुरक्षा व्यवस्था के सहारे क्षेत्र में जाता है. किसी भी तरह की institutional सुरक्षा के बिना क्षेत्र में उतर कर अलग-अलग व्यक्तियों से बात करना आसान तो नहीं. आप लोग कहते हैं कि आपने भी संवेदनशील विषयों पर संवेदनशील जगहों पर सवालों को उठाया है पर क्या उनकी भाषा-शैली और शब्दावली उतनी ही ‘सरल’ (पता नहीं कितनी सरल) रहती है जितनी कि आपके सर्वे की आपकी प्रश्नावलियों की होती है?

7- आगे बात आती है आप लोगों की नीति निर्धारण को लेकर दिए गए कोरे आश्वासनों की. प्रथमतः तो आइडेंटिटी कार्ड और investigators की सुरक्षा को लेकर बात करना बंद करें (वैसे भी इस पर अधिक चर्चा न होकर बैग और उसकी क्वालिटी पर चर्चा होती है). इस बार का आइडेंटिटी कार्ड जबरदस्त आश्वासनों के बाद भी थर्ड क्लास ही कहा जायेगा (किसी की निगाह में और गिरावट हो तो पता नहीं). वह भी छपे हुए हस्ताक्षरों वाला, जिसकी कोई भी कीमत नहीं. तब investigators की सुरक्षा?

8- यह तो आप भली-भांति जानते होंगे कि किसी भी सर्वे एजेंसी को अपने कार्यकर्ताओं को फील्ड में भेजने के पूर्व उनका बीमा करवाना आवश्यक हो गया है. आप लोग इस प्रकार का रिस्क लेना नहीं चाहते और investigators भी पता नहीं क्यों खामोश है? या तो उसे पता नहीं या वह किसी पर्सनल रिलेशन के कारण सर्वे कर रहा है. क्या यह बिंदु आपकी पॉलिसी का खोखला हिस्सा नहीं है?

9- क्या कभी सोचा है कि एक investigators जो लड़का, लड़की कुछ भी हो, मात्र एक-दो हजार के मानदेय के लिए फील्ड में रिस्क लेने को तैयार होता है या और कोई कारण होता है? आप लोगों की संस्था की साख (credit) समूचे देश और विश्व (बैरोमीटर के निर्धारण के बाद) के सामने बढ़ाने वाला investigator उसी तरह क्षेत्र में भागदौड़ करता गौरवान्वित (झूठे ही) होता रहता है और आप लोग एसी का मजा लूटते हैं. क्या यह सब अच्छी पॉलिसी की निशानी है?

10- आपकी सच्ची  पॉलिसी का निर्धारण तो हमें हटाने के बाद ही हो गया. आप लोगों की भृकुटी तनी थी, उत्तर प्रदेश की टीम में किसी लड़की के न होने से. (आप लोग महिलाओं को प्राथमिकता क्यों देते हैं, पता नहीं.) पर हमें निकाले जाने के बाद क्या आप लोगों को लड़कियाँ मिल गईं? सिंह साहब कहते हैं कि जो इस बार नॉएडा वर्कशॉप को ज्वाइन नहीं कर रहे हैं वह इस सर्वे में काम नहीं करेगा. क्या हमारे स्थान पर किसी नॉएडा वर्कशॉप वाले को ही जोड़ा गया? (कोई जवाब नहीं आपके पास क्योंकि आपकी पॉलिसी ही लाजवाब है.)

11- कहिये, इतना पर्याप्त है या और गिनाएं आपकी पॉलिसी की उपलब्धियाँ क्योंकि हम तो काफी समय से आप लोगों के लिए काम कर रहे हैं (साथ काम नहीं कर रहे). आप लोगों को तो ख़ुशी होनी चाहिए थी कि आप लोगों के साथ पुरानी टीम है, (सिंह साहब, क्या कभी आपने अपने स्थान पर किसी फ्रेशर की बात सोची या आप ही सन 60 में सर्वे कर रहे थे और अब ‘मात्र’ आप ही वर्कशॉप में प्रश्नावली पर चर्चा कर रहे हैं. हमेशा खुद को ही फ्रेशर बनाते रहेंगे?) जो अपने अनुभवों से आपके डाटा को और अधिक सत्य के पास ले जा रही है. (क्या इसमें भी कुछ खतरा है आपकी प्रतिष्ठा को? शायद..!!)

12- डाटा की सत्यता की बात शायद आप लोग करते हैं (परिणाम की सत्यता तो पहले से आपके कंप्यूटर में फीड है) किन्तु चाहते नहीं हैं क्योंकि इससे असली सत्यता ज़ाहिर हो जाएगी. यही कारण है कि प्रश्नावली के प्रश्नों का रूप किस कदर उलझाऊ और क्लिष्ट होता है जो पढ़े-लिखे लोगों की समझ में तो आता नहीं (आपकी समझ में आता है? नहीं न..!!) अनपढ़ गाँव की समझ में क्या आता होगा? अब आप इसी क्लिष्टता को लेकर लोकतंत्र और सुरक्षा पर चर्चा कर रहे हैं. प्रश्नों के सरल रूप में तो मुंहफट भोला ग्रामीण सही बात कहकर आपके परिणामों में उथल-पुथल पैदा भी कर सकता है. (क्लिष्ट सवालों में ऐसा डर आपको नहीं है.)

13- प्रश्नावली पर हम चर्चा बाद में करेंगे, उस पर भी बहुत कुछ है कहने को. (वैसे श्री वी०बी० सिंह साहब हमारे द्वारा इसके भुक्तभोगी हैं क्योंकि हम तो भोजनावकाश और टी ब्रेक में भी उनको नहीं छोड़ते थे) अभी पॉलिसी पर ही बात हो तो अच्छा है, क्यों ठीक है न?

14- आप लोग आइडेंटिटी कार्ड पर से investigator, researcher शब्द अगली बार हटवा दीजियेगा क्योंकि investigator वही होता है जो कुछ investigate करे, कुछ खोज सके. आपकी प्रश्नावली और एक संकुचित दायरे में कोई व्यक्ति कुछ खोज नहीं कर सकता है तो investigator या researcher का कोई तात्पर्य ही नहीं. वह तो आपके लिए डाटा मात्र एकत्र करता है तो वह हुआ डाटा कलेक्टर. तो आगे से प्रश्नावली, परिचय-पत्र पर शोधार्थी, investigator, researcher के स्थान पर डाटा collector, आँकड़ा संग्राहक जैसे शब्द छपे हों तो व्यक्ति को अपनी ‘असली औकात’ पता रहेगी. (हमारी तरह किसी टीम का researcher होने के मुगालते में, धोखे में नहीं रहेगा.)

15- पॉलिसी को लेकर एक बात अब आपके सीएसडीएस नई दिल्ली के किसी सदस्य की जानकारी के अनुसार कि समूचे देश का व्यक्ति पेन्सिल से उत्तरों पर गोले बनाता है पर दिल्ली टीम के लड़के पेन से गोले बनाते हैं या निशान (कुछ भी) लगाते हैं. यह किस पॉलिसी के तहत है? इसके अलावा जब आप वर्कशॉप में किसी  की बात को अहमियत नहीं देते तो वर्कशॉप की आवश्यकता क्या है? (कहीं यह भी फंडिंग एजेंसी के धन को खपाने का एक रास्ता तो नहीं?)

16- अंतिम किन्तु अंत यहाँ भी नहीं कि आप लोग जिस मानसिकता के तहत कार्य करते हैं वहां डाटा कुछ भी हो पर परिणाम वही होगा जो आप लोग चाहते हैं. आपकी फंडिंग एजेंसी चाहती है. इसके पीछे का कारण ये है कि शिवसेना और भाजपा के लोग ‘जय श्री राम’ बोलकर दंगा कर सकते हैं, हुल्लड़ करवा सकते हैं किन्तु आपके मुस्लिम भाई (कथित अल्पसंख्यक) अल्लाहो-अकबर बोलकर शांति का पैगाम ही लाते हैं. मात्र एक-दो दिनों के कथित विरोध के बाद जनसँख्या के आँकड़ों को सरकार बदल सकती है तो किसी प्राइवेट सर्वे संस्था (आपकी भी) इतनी हिम्मत नहीं कि सही रुख (लाभकारी रुख) के विरुद्ध चल सकें.

कहने, बताने को बहुत कुछ है किन्तु एकबार में ही कह दिया तो आप लोगों का हाजमा ख़राब हो जायेगा क्योंकि आप लोगों की पाचन क्षमता अच्छी नहीं है (उदाहरण तो हम देख ही चुके हैं). आगे आने वाला समय हम और आपको पुनः मिलवायेगा, यह हमारा विश्वास है. रही बात आपके re-check करवाने की तो स्टेटिस्टिक्स के विद्यार्थी, अनेक सर्वे कर चुके एक व्यक्ति और पत्रकारिता से जुड़े सामान्य जागरूक नागरिक का ‘उद्घोष’ कहें, ‘चैलेन्ज’ कहें कि किसी भी स्थिति में इस तरह की प्रश्नावलियों के सवालों को re-check कोई भी नहीं कर सकता है (भाषा शैली सरल अधिक जो है). और respondent और उसके back ground data से सम्बंधित सवाल द्वितीयक आँकड़ों की श्रेणी में आते हैं (लिंग, शिक्षा, व्यवसाय को छोड़कर) और द्वितीयक आँकड़ों का गलत होना सांख्यिकी के अनुसार भारी गलती नहीं है. (वैसे यह तो आप भी जानते होंगे) फिर आप लोग भी क्या re-check करेंगे?

आप लोगों की समय की कमी के बाद भी इतना सब लिख दिया. आगे से समय निकाल कर रखियेगा क्योंकि अभी आपको और सारे पत्रों का सामना करना होगा. वैसे आप तो जवाब देंगे नहीं क्योंकि हमें निकालने की ‘हिम्मत’ तो सीएसडीएस टीम ने कर ली पर लिखित में कोई सूचना प्रेषित करने की ‘ताकत’ न जुटा सके. यदि अब ताकत आ जाये तो पत्र अवश्य डालियेगा क्योंकि आगे के लिए भी कुछ न कुछ प्राप्त होता रहेगा. वैसे कहा भी है-

“रिश्ते छूटें मगर दिल नहीं तोड़ा करते”

अगले एक और धमाकेदार पत्र की घोषणा के साथ सीएसडीएस एशिया बैरोमीटर तय करती (आँकड़े बटोरती कामगार मजदूर की टोली) टीम का बेदखल सदस्य-



Friday 19 September 2014

प्रिंट के साथ-साथ इंटरनेट पर भी लेखन आरम्भ

पहली बार की घटनाओं का एक मीठा सा एहसास सभी को हो यही सोच कर एक ब्लॉग प्रारम्भ किया था. अब चूँकि बात ब्लॉग की हो रही है तो सोचा कि क्यों न अपने पहली बार ब्लॉग पर आने के बारे में आप लोगों से बात की जाये. घर पर इंटरनेट कनेक्शन लिए लगभग पाँच माह होने को आ गये थे. अपने काम की कुछ साइट पर घूमने के साथ साथ ऐसी साइट भी देखा करते थे जिन पर अपने लेख, कविता, कहानी आदि को भेज कर प्रकाशित करवा सकें. 

किसी भी लेखक के लिए छपास रोग बहुत ही विकट रोग है. हमारे ख्याल से वे दिन तो हवा हो गये जब लोग स्वान्तः सुखाय के लिए लिखा करते थे. अब तो छपास रोग के कारण लिखना पड़ता है. यही छपास रोग हममें भी था पर शायद इसकी बहुत हद तक पूर्ति इस रूप में हो चुकी थी कि माँ सरस्वती और बड़ों के आशीर्वाद से उस समय से ही छपना शुरू हो गये थे जब हमें बच्चा कहा जाता था. उम्र रही होगी कोई नौ-दस वर्ष की. तबसे कागज पर तो छपते रहे. अब घर में इंटरनेट हो और लेखन भी होता हो तो छपास का कीड़ा दूसरे रूप में कुलबुलाया. बहुत खोजबीन की पर समझ नहीं आया कि इंटरनेट पर इस रोग का निदान कैसे हो? खोजी प्रवृति ने हिन्दी खोज के दौरान यह तो दिखाया कि बहुत से लोग हिन्दी में अपने मन का विषय लिखते दिख रहे हैं पर कैसे यह समझ से परे था?

एक दिन टीवी पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिस पर चर्चा हो रही थी ब्लॉग से सम्बंधित. बस दिमाग ने क्लिक से इस शब्द को पकड़ा. ब्लॉग की बातें सुनी जो ब्लॉग बनाने को लेकर तो नहीं पर किसी सेलीब्रिटी को लेकर हो रहीं थीं. इससे पहले अमिताभ बच्चन के ब्लॉग की बातें सुनते रहते थे सो एक दिन बिग अड्डा पर जाकर पंजीकरण करवा दिया मगर कुछ पल्ले न पड़ा था. ब्लॉग की बात सुनते ही तुरन्त कम्प्यूटर ऑन किया, गूगल पर जाकर सर्च किया Create Blog. अब एक दो हों तो समझ में भी आये, वहाँ तो ढेरों साइट. न समझ आये कि इस वेबसाइट पर बनाना है, न समझ में आये कि उस वेबसाइट पर बनाना है. दिमाग पर जोर डाल कर देखा तो बहुत सी साइट के एड्रेस पर या तो ब्लॉगपोस्ट लिखा मिला या फिर वर्डप्रैस. बस हिम्मत करके ब्लॉगर पर गये और ब्लाग बना डाला. इसके बाद वर्डप्रेस पर भी जाकर एक ब्लॉग बना डाला. नाम भी बड़ा जबरदस्त रखा रायटोक्रेटकुमारेन्द्र. ब्लॉग बनाने के बाद वर्डप्रेस पर कम लिखना हुआ. ब्लॉगर पर खूब लिखा गया, खूब सारे ब्लॉग बना कर लिखा गया. 

अब दोनों जगह ब्लाग बन गये पर पोस्ट कहीं नहीं किया. दोनों जगह जाकर देखा पर हिम्मत नहीं हुई कुछ भी पोस्ट करने की. सोचा कहीं पोस्ट करने के बाद कोई पंजीकरण की कोई शर्त न हो? डर लगा कि कहीं इसका कोई भुगतान न करना पड़े? ऐसा बहुत होता है, किसी स्टार के निशान के नीचे छिपी हुई स्थिति में. इस सम्बन्ध में और जानकारी के लिए अपने एक मित्र को फोन किया, अपने भाई को फोन किया. पूरी तरह से आश्वस्ति के बाद हमने अपनी पहली पोस्ट लिखी. अब यह भी समस्या थी कि इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ेंगे कैसे? फिर सोचा कि ये समस्या बाद की है, पहले कुछ लिख लिया जाये. तो बैठ गए लिखने, जो दिमाग में आया, अपनी पहली ब्लॉग पोस्ट के रूप में. पहली पोस्ट जो लिखी, वो यहाँ साथ में दी गई है, आप भी जरूर पढ़ें.

दलित विमर्श को समझने की जरूरत है

साहित्य में समाज की तरह दलित विमर्श को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है. देखा जाए तो दलित विमर्श को अभी भी सही अर्थों में समझा नहीं गया है. दलित विमर्श के नाम पर कुछ भी लिख देना विमर्श नहीं है. साहित्यकार को ये विचार करना होगा की उसके द्वारा लिखा गया सारा समाज देखता है. दलित साहित्यकार दलित विमर्श को स्वानुभूती सहानुभूति के नाम देकर विमर्श की वास्तविक धार को मोथरा कर रहे हैं. अपने समाज का मसीहा मानने वाले महात्मा बुद्ध को क्या वे स्वानुभूती या समनुभुती अथवा सहानुभूति के द्वारा अपना रहे हैं? महात्मा बुद्ध तो एक राजपरिवार के सदस्य थे उनहोंने न तो दुःख देखा था न ही किसी तरह का कष्ट सहा था फ़िर दलितों के लिए निकली उनकी आह को दलित अपना क्यों मानते हैं? दलित विमर्श के बारे में यदि गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो यह अपनी धार खो देगा.

Sunday 10 August 2014

कुछ सच्ची कुछ झूठी के बहाने जुड़िए हमसे


आत्मकथा लेखन शुरू किया जा चुका है. शीर्षक कुछ सच्ची कुछ झूठी के साथ. संभव हो कि आप लोगों को शीर्षक देखकर हैरानी हुई हो. शीर्षक निर्धारण के बाद बहुत लोगों से इस सम्बन्ध में चर्चा होती रही, सोशल मीडिया के द्वारा भी इसके बारे में लोगों को जानकारी होती रही. कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने इस शीर्षक पर आश्चर्य व्यक्त न किया हो. होना भी चाहिए था क्योंकि एक आमधारणा है कि आत्मकथा में सबकुछ सच ही होता है. उसमें झूठ का कोई स्थान नहीं होता है. ऐसे में कुछ सच्ची तो समझ आता है मगर कुछ झूठी से आशय स्पष्ट नहीं होता है. चूँकि आप सब हमारी इस कहानी के द्वारा हमसे किसी न किसी रूप में जुड़ चुके हैं, ऐसे में हमारा दायित्व भी बनता है कि आपको बहुत ज्यादा हैरान-परेशान न करवाते हुए शीर्षक के कुछ झूठी के बारे में बता दें.

पहली बात तो यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि हमने अपनी इस कहानी के लिए अपने आरम्भिक चालीस वर्षों के जीवनकाल (1973-2013) का ही चयन किया है. ऐसा किसी कारण विशेष से नहीं बस कुछ सच्ची कुछ झूठी को विस्तार से रोकने के लिए ऐसा किया गया है. यद्यपि इन चालीस वर्षों में ही अनुभव की इतनी विराट यात्रा की जा चुकी है कि संस्मरणों, स्मृतियों का एक विस्तृत खजाना हमारे पास सुरक्षित है. यह अनुभव निश्चित ही हमारी अपनी थाती है मगर ऐसा अनुभव किया है कि सामाजिक जीवन से जुड़े लोगों का जीवन उनका निजी अथवा व्यक्तिगत नहीं रह जाता है. उसे भी उनके कार्य-व्यवहार की तरह सामाजिक होना पड़ता है. ऐसा होना भी चाहिए, तभी किसी सामाजिक व्यक्ति के कहने और करने के बीच किसी तरह का विरोधाभास दिखाई नहीं देता है.

सामाजिक जीवन से आये, मिले अनुभवों के अपने लाभ हैं तो अपनी हानियाँ भी हैं. उनके अपने खतरे भी हैं. यहाँ हमने तो आत्मकथा लिखने के बहाने कई तरह के खतरे उठाने का मन बना लिया है मगर हमें यहीं रुक कर सोचना पड़ेगा कि क्या वे लोग खतरा उठाने की मानसिकता बना पाए हैं अथवा खतरा उठा पाएंगे जिनका जिक्र इसमें होने वाला है? यही वह बिंदु है जिसने सोचने को मजबूर किया कि अपने अनुभवों की थाती में से किसी के जीवन का एक छोटा सा पल भी यदि सामने लाया जा रहा है तो क्या यह उचित होगा कि अपनी कहानी कहने भर के लिए किसी दूसरे के जीवन में उथल-पुथल मचा दी जाये?

आत्मकथा लिखने के पहले यहीं रुककर विचार किया कि यदि सत्य को छिपाया जाता है अथवा उस पर झूठ का आवरण ओढ़ाया जाता है तो फिर आत्मकथा में सत्यता के साथ खिलवाड़ हो जायेगा. ऐसे में दोनों स्थितियों के बीच सामंजस्य निकालते हुए एक ऐसे आवरण को तैयार किया गया जो झूठ नहीं है बस सत्य को किसी और तरीके से प्रस्तुत करता है. एक ऐसा आवरण जो सामने वाले को प्रदर्शित करने के साथ-साथ उसका आभूषण भी बनता है. बस, हमारे अनुभवों में शामिल अनेकानेक लोगों को उनकी उथल-पुथल से बचाने के लिए यही आवरण कुछ झूठी के रूप में प्रयोग किया गया है. इस तरह कुछ सच्ची कुछ झूठी की रचना-प्रक्रिया आरम्भ हुई.

अब कुछ थोड़ी सी बातें, विशुद्ध आपसे ही, अपने सन्दर्भ में, कुछ सच्ची कुछ झूठी के सन्दर्भ में. हमारी अपनी इस कहानी में कोई दर्शन नहीं है, कोई आदर्श नहीं है, कोई प्रवचन नहीं है. अपनी कहानी आपसे बाँटने के पीछे न तो अपने आपको किसी आदर्शात्मक रूप से प्रस्तुत करना है और न ही यह अभिलाषा है कि इसमें किसी भी तरह का आदर्श तलाशा जाये. यह विशुद्ध रूप से हमारे अपने जीवन की वह कहानी है जो हमने बचपन से लेकर अभी तक देखी और महसूस की है. जीवन के सुखद और दुखद पक्षों को देखा है. स्याह और उजले पक्षों को भोगा है. कुछ सच्ची कुछ झूठी उनकी ही एक कथात्मक प्रस्तुति है.

इसके साथ ही एक बात विशेष रूप से गौर करने वाली यह है कि अभी तक किसी परिदृश्य में हम उस स्थिति में स्थापित नहीं हो सके हैं जहाँ से हमारा जीवन आदर्श माना, समझा जाये. ऐसा कुछ भी विशेष नहीं किया है, जिससे प्रेरित होकर लोग हमारा अनुसरण कर सकें. अपने पूर्वजों के बने-बनाये रास्तों, आदर्शों पर चलते हुए स्वयं अपने लिए ही रास्तों, आदर्शों को खोजने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं. इसलिए आप लोग यदि किसी आदर्शात्मक स्थिति, किसी अनुसरण करने वाली स्थिति के विचारार्थ हमारी कहानी को पढ़ने-सुनने की कोशिश करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी. हाँ, विशुद्ध मनोरंजक रूप में जिन्दगी को एक कहानी समझ, हमारी कहानी में उतरने का प्रयास करेंगे तो आनंद अवश्य ही महसूस करेंगे. यहाँ जीवन से सम्बंधित हमारा अपना ऐसा कुछ है जो समय-समय पर हमें गुदगुदाता है, हँसाता है, रुलाता है, परेशान करता है, दुखी करता है. इसी सबमें से खूब सारी गुदगुदी, ढेर सारी हँसी, बेलौस मस्ती, थोड़े से आँसू, जरा सी परेशानी, हल्का सा दुःख आपके साथ बाँटने आ गए हैं.

Tuesday 5 August 2014

इंतजार उस एक फोन का


कुछ बातें व्यक्ति के जीवन में बहुत प्रभावी न होने के बाद भी प्रभावी बनकर रहती हैं. ऐसी बहुत सी बातें होती हैं जिनका सम्बंधित व्यक्ति के अलावा किसी और के लिए कोई महत्त्व नहीं होता है. हमसे ही सम्बंधित बहुत सी बातों का किसी और के लिए हो सकता है कोई महत्त्व न हो मगर प्रत्येक बात का अपना एक सन्दर्भ होता है, उसका अपना एक प्रभाव होता है. यही बातें ही हैं जो व्यक्ति के अंतर्संबंधों का, सह-संबंधों का आकलन करती हुई उनका विश्लेषण करती हैं. ऐसी ही बातों में अगस्त का पहला रविवार, जिसे फ्रेंडशिप डे के नाम से जाना जाता है, हमारे साथ जुड़ा हुआ है. कोई विशेष बात न होने के बाद भी एक अलग तरह की सुगंध का एहसास उस दिन होता है.

उस दिन रविवार था, अगस्त का पहला रविवार. उन दिनों मोबाइल सपने में भी सोचा नहीं गया था. बेसिक फोन की घंटी घनघनाई. रविवार होने के कारण सभी लोग घर में ही थे. घनघनाती फोन की घंटी रुकी और उधर से हमको पुकारते हुए अम्मा बोली, किसी लड़की का फोन है. 

दिमाग की सारी घंटियाँ घनघना गईं. हैलो के साथ हैप्पी फ्रेंडशिप डे की खनकती आवाज़ कानों में घुल गई. कोई विशेष दिन मनाये जाने का न चलन था और अपनी आदत के अनुसार हम ऐसे किसी दिन के प्रति सजग-सचेत नहीं थे, सचेत-सजग तो आज भी नहीं रहते हैं. सेम टू यू कहने के बाद कुछ और आगे कहते उससे पहले ही दूसरी तरफ से उलाहना आकर कानों में गिरा, आप पहले फोन करके विश नहीं कर सकते थे? 

उलाहना देने का अंदाज़ भी इतना गज़ब कि अपनी आदत के अनुसार ठहाका मारते हुए हमने इतना कहा, दोस्ती में ऐसी औपचारिकता हम नहीं करते. 

दो-तीन मिनट के बाद जब फोन रखा तो समझ नहीं आया कि इस तरह की हलकी-फुलकी मधुर नोंक-झोंक के बाद बात समाप्त हुई या बात शुरू हुई? समय गुजरता रहा. वक्त बदलता रहा. स्थितियाँ-परिस्थितियाँ बदलती रहीं मगर बात ख़तम होकर जहाँ शुरू हुई थी वो न बदली. अगस्त आता रहा. अगस्त का पहला रविवार आता रहा. हर बार की तरह फोन उधर से ही आता रहा. हर बार विश करने के बाद वही मधुर उलाहना दिया जाता रहा, आप पहले फोन करके विश नहीं कर सकते थे? हमारा वो ठहाकेदार जवाब वैसे ही निकलता रहा.

सबकुछ बदलने के बाद भी लगता है जैसे कुछ न बदला. दोस्ती की नोंक-झोंक न बदली. दोस्ती का वो बेलौस अंदाज़ न बदला. अगस्त बार-बार आता रहा. अगस्त में पहला रविवार बार-बार आता रहा. एक आदत सी हो गई अगस्त के पहले रविवार को फोन आने की, एक उलाहना दिए जाने की. आने वाले न जाने कितने वर्षों तक अगस्त आता रहेगा, अगस्त का पहला रविवार भी आता रहेगा, उसका उलाहना भरा फोन भी आता रहेगा.


Wednesday 30 July 2014

खौफ भरी छोटी सी यात्रा

हमको अपने छोटे भाई हर्षेन्द्र के साथ आगरा से एक परीक्षा देकर कानपुर आना था. रेलवे स्टेशन पहुँचकर पता लगा कि उस समय कानपुर के लिए कोई ट्रेन नहीं है. यदि आगरा से टुंडला पहुँच कर वहाँ से आसानी से कानपुर के लिए ट्रेन मिल जायेगी. आगरा से टुंडला तक बस से आने के बाद टुंडला स्टेशन पर जैसे ही पहुँचे पता लगा कि एक ट्रेन आ रही है. पैसेंजर ट्रेन थी और इसके बाद दो-तीन घंटे कोई ट्रेन भी नहीं थी, कानपुर पहुँचना अत्यावश्यक था. इस कारण से पैसेंजर ट्रेन में बैठने के अलावा कोई और रास्ता भी नहीं था. 

टिकट खिड़की पर जबरदस्त भीड़ होने के चलते टिकट मिलता संभव न लगा. पहले सोचा कि बिना टिकट ही चढ़ जायें पर कभी बिना टिकट यात्रा न करने के कारण से हिम्मत नहीं हो रही थी. सोचा-विचारी में समय न गँवा कर हमने तुरन्त सामने दरवाजे पर खड़े एक टिकट चेकर से अपनी समस्या बताई. 

उस ने बिना कोई तवज्जो दिये पूरी लापरवाही से कहा कि बैठ जाओ, पैसेंजर में कोई नहीं पकड़ता.

भाईसाहब कोई दिक्कत तो नहीं होगी? हमने शंका दूर करनी चाही.

उसको लगा कि कोई अनाड़ी हैं जो पहली बार बिना टिकट यात्रा करने की हिम्मत जुटा रहे हैं. सो उसने थोड़ा सा ध्यान हम लोगों की ओर दिया और बताया कि वैसे बिना टिकट जाने में कोई समस्या नहीं फिर भी यदि टिकट लेना है तो दो स्टेशन के बाद यह गाड़ी थोड़ी देर तक रुकती है, वहाँ से ले लेना.

उनके इतना कहते है जैसे हमें कोई संजीवनी मिल गई हो. हम दोनों भाई तुरन्त लपके क्योंकि गाड़ी भी रेंगने लगी थी. डिब्बे के अन्दर पहुँचते ही बैठ भी गये, सीट भी मिल गई पर इसके बाद हमारी जो हालत हुई कि पूछिए मत. आने-जाने वाला हर आदमी लगे कि टिकट चेक करने वाला आ गया. कभी इस तरफ देखें, कभी उस तरफ देखें. लगभग 45 मिनट की यात्रा के बाद वह स्टेशन आया जहाँ से टिकट लिया जा सकता था. तुरत-फुरत में दो टिकट लिए गए. अब सुकून मिला और कानपुर तक आराम से आये. आज भी छोटी सी मगर बिना टिकट यात्रा याद है.

Monday 14 July 2014

बचपन के वे सुहाने दिन

बचपन की ढेर सारी यादें आज भी साथ हैं. बचपन के दोस्त याद हैं. बचपन की शरारतें याद हैं. बचपन में मिलता प्यार-दुलार याद है. कुछ भी तो ऐसा नहीं जिसे भूला जाये और आखिर क्यों भूला जाये? यही एक ऐसी सम्पदा है जो ताउम्र साथ रहती है और कोई चाह कर भी न इसे भूल पाता है, न ही भुला पाता है. मासूम सा, निश्छल सा, प्यारा सा, शरारती सा, हँसता सा, उड़ता सा बचपन. बहुत कुछ ऐसा है जो हमें आज भी याद है. स्वतः की गई अनुभूति के कारण याद है. इसके साथ ही बहुत कुछ ऐसा है जो घर-परिवार के सदस्यों के द्वारा सुनते रहने के कारण याद है.

याद रखना, याद रखे रहना भी बड़ी गज़ब स्थिति है. क्या याद रखते-रखते क्या भूल जाएँ कह नहीं सकते. व्यक्ति अपने जीवन भर बहुत कुछ याद रखता है, बहुत कुछ भूलता भी है. इस याद रखने और भूलने के बीच वह अपने बचपन को कतई नहीं भूल पाता. इसी कारण वह बच्चों के साथ घुल-मिल कर अपने बचपन के दिनों को याद करने लगता है. हम भी इससे बच नहीं सके हैं. आज भी अपना वो पुराना घर, वो बरगद का विशाल पेड़, जिसके मैदान में हम बच्चे खूब धमाचौकड़ी मचाया करते थे, वो स्कूल, वे साथी और न जाने कितनी-कितनी कहानियाँ इधर लेखन के दौरान उभरती रहीं, मन में घुमड़ती रहीं. हर बार कोई कहानी याद आती, हर बार कलम रुककर फिर उसी बचपन में ले जाती. नवरात्रि का रात्रि जागरण, टेसू-झिंझिया का विवाह, मामुलिया का लोकोत्सव, रामलीला का आयोजन, निर्मित मकानों के बालू के ढेरों पर कूदना, पत्थर मार-मार कर बेर, इमली का गिराना, होली का हुल्लड़, दीपावली का धमाल जाने कितना-कितना है जो बार-बार बचपन में घसीट ले जाता है.

बचपन के वे दिन बहुत शिद्दत से याद आते हैं जबकि सभी चाचा-चाची, सभी भाई-बहिन होली, दीपावली उरई इकठ्ठा हुआ करते थे. उस हंगामी मस्ती में न दिन समझ आता था, न रात. न सुबह, न शाम. न खाने की सुध, न सोने की चिंता. बस चौबीस घंटे मस्ती ही मस्ती. ऐसा नहीं कि इसमें सिर्फ हम भाई-बहिन ही शामिल रहते थे. चाचा लोग भी एकदम से बच्चे बने हम सबके साथ उसी बेलौस अंदाज में मस्त रहते थे. घर का खुला हुआ लॉन, पास में बनी पुलिस चौकी का या फिर कॉलेज का ग्राउंड हम सबकी मस्ती का गवाह बनता. कभी पुराने कपड़ों पर साईकिल के ट्यूब को काटकर बनाये छल्लों के सहारे गेंद बनाई जाती तो कभी पॉलीथीन को जला-जलाकर.
घर के बाहर की मस्ती से अलग घर के अन्दर की धमाचौकड़ी भी कुछ अलग तरह की होती. कभी सैनिक बनकर देश की रक्षा की जाती, कभी अधिकारी बन कर जनता के काम किये जाते, कभी पुलिस वाला बनकर चोरियां रोकी जाती तो कभी शिक्षक बनकर पढ़ाने का काम किया जाता, कभी वकील-जज बनकर मुक़दमे निपटाए जाते. पलंग, चारपाई, कुर्सियाँ कार में बदल जाया करते थे. चम्मचें, कटोरियाँ, कंघे आदि घरेलू सामान सम्बंधित खेल के साजो-सामान के रूप में इस्तेमाल किये जाने लगते. 

होली के मस्ती भरे माहौल में क्या घर के लोग, क्या सड़क चलते लोग सभी को रंग लगाया जाता, सभी के साथ उसकी उम्र के हिसाब से अभिवादन करते हुए मिल जाता. दीपावली आती तो देर रात पटाखे चलाने के बाद अलस्सुबह उठकर अधचले, चलने से बचे पटाखों को छत पर बीनने का काम शुरू हो जाता. लालजी की चाट, छुटकन की मटर, संपत की दूध की बोतल, लालमन की जलेबी, स्टेशन के रसगुल्ले, सड़क किनारे लगे पानी के बताशे आदि कितनी-कितनी संख्या में हम बच्चों के पेट के अन्दर चले जाते, कुछ अंदाजा न होता.

आज भी त्योहारों पर अथवा किसी अन्य अवसरों पर सभी का मिलना, इकठ्ठा होना होता है मगर अब वो धमाल नहीं होता. मस्ती-हुड़दंग आज भी होता है मगर कतिपय सामाजिक स्थितियों ने सबकुछ एक निश्चित दायरे में समेट कर रख दिया है. बदलते दौर के इस सामाजिक परिवेश में आज भी वही परिवेश लगातार याद आता है. एक हमें ही नहीं घर में सबके इकठ्ठा होने पर न सही व्यावहारिक रूप में मगर बातचीत में वही माहौल फिर जन्म ले लेता है. हँसी-मजाक, यादें, स्मृतियाँ, पुराने किससे फिर सबको उन्हीं दिनों में सैर कराने निकल पड़ते हैं. भूल कर भी वे दिन फिर-फिर याद आ जाते हैं. इसी याद रखने, भूल जाने, रह-रह कर याद आने का नाम है कुछ सच्ची कुछ झूठी.


Wednesday 25 June 2014

बच्चों के स्नेह, सम्मान ने ले लिया पहला ऑटोग्राफ


बचपन में लगभग नौ-दस वर्ष की उम्र में ही घरवालों, पड़ोसियों, स्कूल वालों, दोस्तों आदि की तरफ से खूब जमकर प्रशंसा पाई थी, जबकि उस समय हमारी स्व-रचित एक कविता दैनिक भास्कर, स्वतंत्र भारत में बच्चों वाले पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी. उस कविता प्रकाशन पर सभी ने खूब प्रशंसा की थी. हमें खूब सारा आशीर्वाद भी मिला था. उसके बाद पढ़ाई के बोझ ने लेखन क्षमता को पूरी तरह से पनपने न दिया. इस बीच पेंटिंग, स्केचिंग, निर्देशन, फोटोग्राफी आदि सहित अन्य और भी शौक गले लग गए.

स्कूल से निकल कर कॉलेज पहुँचने के क्रम में लिखना लगातार हुआ, भले ही कम रहा हो परन्तु प्रकाशन नहीं हो सका. स्नातक उपाधि के बाद लेखन की तरफ पुनः मुड़ना हुआ. पत्रिकाओं को रचनाएँ भेजने के साथ ही समाचार-पत्रों में पत्र कॉलम में नियमित रूप से लिखना शुरू किया. पत्रिकाओं में सीमित प्रकाशन स्थान मिलता किन्तु समाचार-पत्रों ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया. अमर उजाला ने तो हमारे बहुत सारे पत्रों का प्रकाशन ख़ास ख़त कॉलम के अंतर्गत भी किया. इन पत्रों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित भी करवाया जा चुका है.  

अमर उजाला के साथ-साथ दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, आज, राष्ट्रीय सहारा आदि में भी नियमित प्रकाशन होने लगा. जनपद जालौन में हमको हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि से इतर हमारे दो कार्यों ने हमारी पहचान की आधारभूमि निर्मित की. इनमें एक तो पत्र कॉलम में नियमित पत्रों का प्रकाशन और दूसरा कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम का तब आरम्भ करना जबकि इस दिशा में किसी भी तरह का कार्य जनपद में नहीं हो रहा था. फिलहाल तो अपनी मूल बात से न भटकते हुए आपको अपनी उस ख़ुशी की तरफ ले चलते हैं जो हमें हमारे प्रशंसकों से प्राप्त हुई.

नेहरू युवा केंद्र की ओर से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण वाहिनी परियोजना जिले में संचालित हो रही थी. परियोजना समन्वयक प्रवीण सिंह जादौन छोटे भाई के मित्र हैं और हमारे लिए भी छोटे भाई के समान ही हैं. सामाजिक कार्यों से जुड़े होने के कारण हमको भी परियोजना की एक समिति का सदस्य मनोनीत किया गया था. सौ स्वयंसेवकों का दस दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम उरई से लगभग सात-आठ किमी दूर बोहदपुरा गाँव के राजकीय प्रशिक्षण संस्थान में चल रहा था. वहां के कार्यक्रम के सञ्चालन, स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित करने की, उनको विविध विषयों पर जानकारी देने जिम्मेवारी हमें भी दी गई थी.

शिविर के दस दिनों तक स्वयंसेवकों के साथ रहने से उनके साथ आत्मीय सम्बन्ध बन गए थे. दस दिनों तक सञ्चालन करने, कई विषयों पर जानकारी देने के कारण बहुत से स्वयंसेवक काफी करीब से जुड़ गए थे. आये दिन किसी न किसी विषय पर वे अलग से मिलकर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान चाहते. वो शिविर का अंतिम दिन था. परम्परानुसार समापन समारोह हुआ. समापन समारोह के बाद लोगों को अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करने जाना था. स्पष्ट था कि अब सभी का इस तरह से एकसाथ मिलना शायद ही कभी-कभी हो पाए. स्वयंसेवक, अधिकारीजन, अतिथिजन एक-दूसरे से मिलते हुए चलने की तैयारी में थे. 

हम भी सबसे मिलते हुए चलने की तैयारी किये थे. उसी समय चार-पाँच लड़के-लड़कियों का एक समूह आया. लड़कियों ने सम्मानपूर्वक नमस्कार किया और लड़कों ने एकदम से पैर छू लिए. इस तरह के कृत्य का अंदाजा न होने के कारण हम खुद एकदम से हड़बड़ा गए. कुछ बातचीत हो पाती इससे पहले ही उन सभी बच्चों ने अपनी-अपनी डायरी हमारे सामने करके ऑटोग्राफ की माँग कर दी. हमने पहले तो हँसकर उन बच्चों को टालने की कोशिश की. उनको समझाया कि हम ऐसे व्यक्ति या व्यक्तित्त्व नहीं कि हमारे ऑटोग्राफ लिए जाएँ. उन बच्चों ने बड़ी ही शालीनता से, सम्मान से हमारे लेखन, समाचार-पत्रों में हमारे पत्र प्रकाशन का हवाला देते हुए उनसे बहुत कुछ सीखने की बात कही. विगत दस दिनों में हमारे सञ्चालन, विषयों पर दिए गए प्रस्तुतिकरण से प्रभावित होना बताया.

अपने प्रति उनका स्नेह, सम्मान देखकर मन बहुत प्रसन्न हुआ. बच्चों में उत्साह दिख रहा था हमारा ऑटोग्राफ लेते समय और उन सभी बच्चों को अपने जीवन का पहला ऑटोग्राफ देते समय हमें भी खुद में रोमांच हो रहा था. अपने आपको किसी विशिष्ट व्यक्तित्व से कम न समझते हुए लगा कि अभी तक पत्र कॉलम में जो भी लिखा-छपा वो निरर्थक नहीं गया. विचारों की शक्ति सामाजिक परिवर्तन करती है, मानसिक परिवर्तन करती है. हमारे विचारों से उन बच्चों ने क्या सीखा ये तो वही जानें मगर अपने लिए उनके मन में सम्मान की भावना देखकर सुखद अनुभूति हुई.


Tuesday 10 June 2014

कुछ सच्ची कुछ झूठी के आवरण में


अपने बारे में कुछ लिखने का, अपने बारे में सबको बताने का विचार बहुत दिनों से या कहें कि बहुत वर्षों से मन में था पर अभी इस उम्र में ही अपने बारे में कुछ लिखने-कहने के बारे में सोचा नहीं था. कई-कई जीवनियों, कई-कई संस्मरणों, कई-कई महानुभावों को पढ़ने के दौरान मन कहता था कि कभी लोग हमारे बारे में भी ऐसे ही पढ़ेंगे. हमारे बारे में भी ऐसे ही चर्चा करेंगे. यह भी सोचा करते थे कि जब हम अपनी कहानी लिखेंगे तो उसको किस शीर्षक के भीतर समेटेंगे? जब हमारी बात किसी पुस्तक के रूप में सामने आएगी तो लोगों के सामने उसे किस नाम से लायेंगे? जितनी बड़ी समस्या अपने बारे में लिखने-बताने की थी, उससे कहीं बड़ी समस्या पुस्तक के शीर्षक को लेकर थी. 

समस्या का समाधान कोई और कर भी नहीं सकता था क्योंकि समस्या किसी के सामने प्रकट भी नहीं की गई थी. यार-दोस्तों के बीच रखी भी नहीं थी. ऐसे में हमारी ही समस्या और हमारा ही समाधान जैसी बात होने के कारण उसका समाधान हमें ही निकालना था. समस्या का समाधान यह निकला कि जब आत्मकथा लिखी जाएगी, जब अपनी कहानी कही जाएगी तो उसका नामकरण उसी समय कर दिया जायेगा. अपनी कहानी लिखना भविष्य का प्रोजेक्ट था, सो उसका नामकरण भी भविष्य के गर्भ में डाल दिया गया. 

समय बदलता रहा, परिस्थितियाँ बदलती रहीं, उम्र बदलती रही, हम बदलते रहे और इस अदला-बदला में विचार भी बदलते रहे. उम्र के तीन दशकों की यात्रा के बाद सोचा कि अब कुछ लिखा जाये पर लगा कि अभी कुछ ज्यादा ही जल्दी हो जाएगी. इतनी जल्दी भी लोगों का सिर नहीं खाना चाहिए. लोगों को पकाना नहीं चाहिए. इसके बाद एक दशक के इंतजार के बाद इस पड़ाव पर आकर सोचा कि अब न देर है और न ही जल्दी. अब कुछ लिखा जा सकता है. लोगों को अपने बारे में बताया जा सकता है. 

क्या लिखा जाये? क्या बताया जाये? क्यों बताया जाये? कैसे बताया जाये? कितना बताया जाये? इस तरह के न जाने कितने प्रश्नों ने अपना सिर उठाया. एक पल में चार दशकों की यात्रा आँखों के सामने से घूम गई. बहुत कुछ सुखद, बहुत कुछ दुखद, कितना अपनापन, कितना बेगानापन, कितनी सफलताएँ, कितनी असफलताएँ, कितने आरोप, कितने प्रत्यारोप, कितनों का मिलना, कितनों का बिछड़ना, क्या-क्या सीखना, क्या-क्या सिखाना, क्या-क्या बनाना, क्या-क्या बिगाड़ना, क्या-क्या हासिल हुआ, क्या-क्या खो दिया, कितना लाभ, कितनी हानि आदि का हिसाब-किताब दिमागी कैल्क्यूलेटर पर होने लगा.

क्यों? क्या? कैसे? किसको? आदि ने डराया भी. बहुत से नकाब उतरने का संकट दिखाई दिया. खुद अपने को भी कमजोर देखा. अपनों की टूटन दिखाई देने लगी. विचार काँपे. हाथ काँपे. कलम ने चलने को मना किया पर वर्षों की मनोच्छा को पूरा करना था, सो हिम्मत बांधी. विचारों को थाम विचारों को ही टटोला. शीर्षक के बहाने एक आवरण खोज निकाला और फिर कुछ सच्ची कुछ झूठी कहने बैठ गए.