हँसते-खेलते-कूदते
कब हाईस्कूल पास कर लिया पता ही नहीं चला. बोर्ड परीक्षाओं का हौवा भी हम मित्रों को
डरा न सका था. हाईस्कूल की परीक्षाओं की समाप्ति को हँसते-खेलते-कूदते इसलिए कहा क्योंकि
किसी भी विषय की परीक्षा समाप्त होते ही तय हो जाता था कि कितनी देर में खेल के मैदान
पर पहुँचना है? कहाँ खेलने पहुँचना है? उस समय दयानंद वैदिक महाविद्यालय
और सनातन धर्म इंटर कॉलेज के मैदानों पर खेलने वालों का जमावड़ा लगता था. बस ये तय हो
जाता कि कहाँ पहुँचना है, क्या खेलना है.
हाईस्कूल परीक्षा
पास कर लेने की ख़ुशी के साथ इसकी भी ख़ुशी थी कि अब विषय विशेषज्ञ बनने का मौका मिलेगा.
जी हाँ, उस समय यह अपने आपमें किसी विशेषज्ञ से कम नहीं था, हम
लोगों के लिए कि अब आगे की पढ़ाई विज्ञान वर्ग, कला वर्ग या वाणिज्य
वर्ग से होनी है. ये भी उस समय आपस में विमर्श का विषय बना हुआ था, हम दोस्तों के बीच कि विज्ञान विषय की पढ़ाई के लिए कौन गणित का चयन करेगा और
कौन जीवविज्ञान की तरफ जायेगा. ऐसा होने, करने के पीछे भी हम
लोगों के अपने तर्क रहते थे.
हम सभी मित्रों
ने हाईस्कूल में विज्ञान वर्ग को ले रखा था. इस कारण सभी दोस्तों के बीच सहज रूप से
ये स्वीकारोक्ति थी और सहमति भी थी कि हम सभी विज्ञान विषय से ही आगे की पढ़ाई करेंगे.
इसी सम्भावना और शत-प्रतिशत सहमति के बीच कुछ अचंभित करने जैसा भी हुआ. नए सत्र में
कॉलेज खुला. सभी मिले, एक दूसरे के विषयों की जानकारी का आदान-प्रदान हुआ. कोई गणित विषय का चयन कर
चुका था, किसी ने जीवविज्ञान को चुना था. हम सभी दोस्तों को ये
जानकर आश्चर्य हुआ कि हमारे बीच के ही एक होनहार मित्र राजीव त्रिपाठी ने कला
वर्ग में एडमीशन ले लिया था. गर्मियों की पूरी छुट्टियों में लगभग रोज ही उससे मुलाकात
होती थी मगर उसने कभी न तो इसका जिक्र किया और न ही अपनी किसी बात से हम लोगों को आभास
होने दिया कि वह विज्ञान वर्ग को छोड़कर कला वर्ग से आगे की पढ़ाई करेगा. व्यक्तिगत हमारे
लिए आश्चर्य इसलिए भी था क्योंकि वह बचपन से हमारा मित्र था और उसकी तीव्र इच्छा इंजीनियर
बनने की थी. अकेले में उसे कई-कई दिन समझाने, कुदेरेने के बाद
उसने बताया कि उसके पिताजी की इच्छा उसे प्रशासनिक अधिकारी बनाने की है. उन्होंने ही
उसके विषय निर्धारित करके उनके सहारे ही आगे पढ़ने को कहा है. हँसने-मजाक करने वाला,
सीधा-साधा, हंसमुख हमारा मित्र राजीव अपने पिता
की इच्छा के दवाब में उदास, गुमसुम रहने लगा.
उसके पिता का सख्त
अनुशासन हम बचपन से ही देख रहे थे. किसी भी दोस्त का उसके घर जाना लगभग न के बराबर
होता था. उसका भी बहुत कम किसी दोस्त के घर जाना होता था. बाहर खेलने की अनुमति भी
उसको बहुत कम मिलती थी. यदि कभी उससे मिलने के लिए उसके घर जाना भी होता तो वह अपने
कमरे की सड़क पर खुलने वाली खिड़की से बात करता. हम लोग सड़क पर और वह घर के अन्दर से.
ऐसे में भी वह अपने पिता की आहट होते ही हम लोगों को वहां से जाने को कहकर खिड़की बंद
कर लेता.
समय बीतता रहा.
पिता के सख्त अनुशासन और सिविल सेवा में जाने की जिद जैसी सनक में राजीव सिविल सेवा
में तो चयनित न हो सका किन्तु अपना दिमागी संतुलन अवश्य खो बैठा. परास्नातक कर लेने
के बाद उसे अपने सिविल सेवा में चयनित होने का भ्रम हो गया. हम मित्रों से मिलने पर
उसमें कभी सामान्य राजीव नजर आता तो उस सीधे-साधे मासूम से राजीव की जगह कोई घनघोर
सख्त प्रशासनिक अधिकारी दिखाई देने लगता. उसकी बातचीत, उसके हावभाव, उसका अंदाज
सबकुछ अलहदा लगता. धीरे-धीरे उसकी स्थिति और ख़राब होती रही. कभी कॉलेज के कार्यक्रम
में उसके द्वारा की गई उठापटक की खबर सुनाई देती. कभी उसके द्वारा उरई में कई लोगों
संग मारपीट किये जाने की घटनाएँ सामने आने लगीं. आये दिन, दिन
हो या रात, सूट-बूट में तैयार होकर किसी मीटिंग, बैठक, दौरे के नाम पर उरई की सड़कों पर उसका भटकना आम
बात हो गई थी.
एक दिन खबर मिली
कि राजीव को किसी दूसरे शहर में किसी मनोरोग चिकित्सालय में भर्ती करा दिया गया है.
उसके बाद की उड़ती-उड़ती अनेक खबरों के बीच पुष्ट किन्तु अत्यंत दुखद खबर मिली राजीव
के देहांत की. आघात सा लगा, असमय अपने दोस्त का जाना खला. न केवल एक प्रतिभा का क्षरण होना
बल्कि एक मासूम व्यक्तित्व का शांत हो जाना व्यथित कर गया. लगा कि उसके पिता का अनुशासन
उसका हत्यारा निकला. न सिर्फ उसका हत्यारा बल्कि उसके बड़े दो भाइयों का भी. उसके पिता
का अनुशासन इसलिए भी हत्यारा क्योंकि उनकी प्रशासनिक अधिकारी बनाने की सनक के चलते
राजीव के दो भाइयों ने आत्महत्या कर ली थी. इससे संदर्भित एक घटना अन्दर तक हिला देती
है जबकि उनके शादीशुदा एक बेटे ने उरई से कहीं दूर अपने नौकरी करने वाले शहर में आत्महत्या
कर ली थी. ऐसे में भी उनके हत्यारे अनुशासन से डरी उनकी पुत्रवधू उनको फोन करके अनुमति
माँगती है, अपने दिवंगत पति के कार्यालय के सहकर्मियों संग अपने
पति की पार्थिव देह तक जाने की.
उफ़! अनुशासन का
अपना महत्त्व है किन्तु उसे हत्यारा तो न बनाया जाये.
No comments:
Post a Comment