Saturday, 21 November 2015

कूड़े के ढेर पर पड़े केले के छिलकों से मिटती भूख


इंसान की जिन्दगी में बहुत सी स्थितियाँ ऐसी होतीं हैं जब वह एकदम असहाय स्थिति में होता है और इस तरह की स्थितियों से बाहर आने के लिए वह कुछ भी कर बैठता है. ऐसी विषम स्थिति किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने के कई कारण होते हैं, भूख उनमें से एक कारण होती है. कहा भी जाता है कि पेट जो न कराये वो कम है. भूख में आदमी को दम तोड़ते भी सुना है, किसी भी स्थिति तक गिरते देखा है, चोरी करते सुना है, अपना जिस्म बेचते भी सुना है. भूख और गरीबी की विकट स्थिति से लड़ने-जूझने की, जिन्दा रहने की मारामारी में कुछ भी कर गुजरने के लिए उठाये गये कदमों में प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी के बारे में पढ़ रखा है कि वे किसी न किसी बहाने से पुलिस की पकड़ में आने की कोशिश करते थे. इससे उनके खाने और रहने की समस्या कुछ हद तक निपट जाया करती थी. 

यह एक दशा है जो हमने पढ़ रखी है. कुछ इसी तरह की दशा से हमें रूबरू होने का कुअवसर उस समय मिला जब हम अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए सन् 1990 में ग्वालियर गये. हमारा रहना हॉस्टल में होता था और ग्वालियर में ही हमारे सबसे छोटे चाचाजी के रहने के कारण हफ्ते में एक-दो बार घर भी जाना होता था. उरई जैसे छोटे शहर से निकल कर ग्वालियर जैसे शहर में आने पर घूमने का अपना अलग ही मजा आता था. इसी कारण से चाचा के घर पर हमेशा रास्ते बदल-बदल कर जाया करते थे.

एक दिन अपनी साईकिल यात्रा रेलवे स्टेशन की ओर से करने का फैसला किया. रेलवे स्टेशन के पास के ओवरब्रिज पर चढ़ते समय रेलवे स्टेशन का नजारा और सामने खड़े किले का दृश्य बहुत ही मजेदार लगता था. विशालकाय किला लगातार पास आते दिखता और फिर उसके नीचे से गुजरना अद्भुत एहसास कराता था. इसी रास्ते पर रानी लक्ष्मी बाई का समाधिस्थल होना और भी गौरवान्वित कर जाता था. उस दिन जैसे ही ओवरब्रिज पर चढ़ने के लिए अपनी साइकिल को मोड़ा तो उसी मोड़ पर लगे कूड़े के ढ़ेर में एक बारह-तेरह साल के लड़के को बैठे देखा. ऐसे दृश्य हमेशा ही किसी न किसी कूड़े के ढ़ेर पर दिखाई देते थे कि छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ कुछ न कुछ बीनते नजर आते. उस दिन भी कुछ ऐसा ही लगना था किन्तु ऐसा लगा नहीं. वह लड़का बजाय कूड़ा-करकट बीनने के कुछ और ही करता नजर आया. वह कूड़े के ढेर में पड़े केले के छिलकों को खा रहा था. 

आँखों का धोखा समझ कर दिमाग को झटका दिया और अपनी साइकिल की रफ्तार बढ़ाने के लिए पैडल पर जोर लगाया. मुश्किल से तीन या चार कदम ही साइकिल चल पाई होगी कि मन में उथल-पुथल मचने लगी. ब्रेक लगाये और वहीं खड़े हो गये अब न तो समझ में आये कि आगे बढ़ें या फिर उस लड़के की तरफ जाएँ. जो देखने का भ्रम हुआ था, कहीं सच तो नहीं? जैसे ही यह विचार कौंधा अगले ही पल मन में कुछ विचार किया और साइकिल को घुमा कर उस लड़के के पास खड़ा कर दिया. दिमाग भन्ना गया कि वह अभी भी निर्विकार भाव से केले के छिलके को खुरच-खुरच कर खाने में लगा है. 

क्यों क्या कर रहे हो? की आवाज सुनकर उस लड़के के हाथ से केले का छिलका छूट गया, उसको लगा कि कहीं यह भी अपराध न कर रहा हो. आँखों ने जो देखा था वह सच था. उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली, बस वह चुपचाप खड़ा हो गया. हमने उससे खाना खाने के लिए पूछा तो उसने सिर हाँ की स्थिति में हिला दिया. उसको अपने साथ लेकर स्टेशन के बाहर ही तरफ बने होटलों की तरफ ले कर चल दिए. अब समस्या यह थी कि उसको होटल में बिठाकर तो खिलाने को कोई भी तैयार नहीं था. एक होटल में सोलह रुपये में भोजन की एक थाली मिलती थी. उससे एक थाली देने को कहा तो उसने बाहर देने से मनाकर दिया. इधर-उधर निगाह दौड़ा कर कुछ समाचार-पत्र और कुछ पॉलीथीन इकट्ठा किये और उस भूखे बच्चे के लिए भोजन प्राप्त किया. सड़क के दूसरी तरफ एक जगह बिठाकर उसे अपने सामने खाना खिलवाया. सामने इसलिए ताकि कोई और उसे परेशान न कर सके.

जीवन में तब से लेकर आज तक बहुत सी अच्छी बुरी घटनाओं को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देखा-सुना है किन्तु आज भी वह घटना दिमाग से निकाले नहीं निकलती है. तब से लेकर आज तक एक नियम सा बना लिया है कि कभी भी माँगने वालों को, स्टेशन पर, ट्रेन में भीख माँगने वाले को, कूड़ा बीनने वाले बच्चों को रुपये देने की बजाय उनको खाना खिला देते हैं.