अपने गाँव बचपन
से ही जाना होता रहता था. गर्मियों की छुट्टियाँ कई बार गाँव में ही बिताई गईं. इसके
अलावा चाचा लोगों के साथ भी अक्सर गाँव जाना होता रहता था. हमारे गाँव जाने के क्रम
में कोई न कोई साथ रहता था मगर उस बार अकेले जाना हो रहा था. बिना किसी कार्यक्रम के,
बिना किसी पूर्व-निर्धारित
योजना के. स्नातक की पढ़ाई के लिए हमारा ग्वालियर जाना निर्धारित हो गया था. जाने का
दिन भी लगभग तय हो गया था. अचानक बैठे-बैठे दिमाग में आया कि ग्वालियर जाने के पहले
अईया-बाबा से मिल आया जाये. उस समय अईया-बाबा गाँव में ही हुआ करते थे. उनका उरई आना
दशहरे-दीपावली के आसपास होता था. इसके बाद होली के बाद खेती वगैरह के काम से गाँव चले
जाया करते थे.
बहुत छोटे से लगातार
अईया-बाबा के संपर्क में रहने के कारण लगाव भी था. बहरहाल,
उस दिन दोपहर बाद
घर पहुँच नीचे से जैसे ही आवाज़ लगाई, अईया ख़ुशी से चहक उठीं. बाबा भी आश्चर्य
में पड़ गए कि हम अचानक कैसे आ गए, वो भी अकेले. आश्चर्य होने का कारण ये और
था कि हम अकेले आये थे बिना किसी सूचना के. उस समय आज की तरह मोबाइल तो थे नहीं,
फोन भी नहीं थे
कि खबर कर दी जाती हमारे आने की. उस समय खबरों के आदान-प्रदान का स्त्रोत पत्र हुआ
करते थे या फिर गाँव से आने-जाने वाले लोग. इसके साथ-साथ आश्चर्य का एक कारण हमारा
नितांत अकेले आना भी था. परिवार में किसी समय लम्बे समय तक चलने वाली जमींदारी और गाँव
क्षेत्र की अपनी अलग ही स्थितियों के चलते बाबा इस तरह की स्थितियों से बचाया करते
थे. आज भी हम लोगों की ये स्थिति है कि गाँव आने-जाने के दौरान निश्चित समय,
रास्ता कभी न बताया
जाता है.
दो-तीन गाँव में
रुकना हुआ. उन दो-तीन दिनों में बाबा से बहुत सी बातें हुईं. वैसे तो बाबा का साथ हम
भाइयों को बहुत छोटे से मिला, जिसके कारण उनके द्वारा बहुत सी जानकारियाँ,
शिक्षाएँ हमें मिलती
रहीं. जीवन जीने के ढंग, समस्याओं से निकलने के रास्ते,
परेशानियों से बचने
के तरीके, खुद पर नियंत्रण रखने की स्थिति,
अनुशासन में रहने
का मन्त्र, सामाजिक रूप से खुद को स्थापित करने की कार्यशैली आदि पर उनके
द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से लगातार हम लोगों को बताया जाता रहता.
गाँव में अपने अल्प-प्रवास
के दौरान बाबा जी ने कई बातें समझाईं, घर से बाहर अकेले रहने के दौरान आने वाली
समस्याओं, उनसे निपटने के तरीके आदि भी समझाए,
बिना घबराए,
संयम से काम लेटे
हुए आगे बढ़ने के रास्ते भी बताए. बाबा जी स्वयं बहुत कम आयु में ही पढ़ने के लिए घर
से बाहर निकल आये थे. अपनी पढ़ाई के दौरा उन्होंने स्वयं बहुत संघर्ष किया था. इसका
जिक्र वे कई बार हम लोगों के सामने किया करते थे और उदाहरण के लिए समझाया भी करते थे.
उनके पढ़ाई के दौरान के संघर्ष को महज ऐसे समझा जा सकता है कि तत्कालीन स्थितियों में
एक जमींदार परिवार के बेटे को पढ़ने के लिए बिठूर से उन्नाव ट्रक चलाना पड़ता था. बाबा
जी अक्सर उस समय का बना हुआ ड्राइविंग लाइसेंस दिखाया करते थे. असल में बाबा जी के
बड़े भाई नहीं चाहते थे कि बाबा जी आगे की पढ़ाई करें. उनका कहना था कि मैट्रिक तक की
पढ़ाई ठीक है अब घर वापस आकर खेती और अन्य कामों में सहयोग करें. ऐसे में बाबा जी अपनी
जिद से कानपुर में पढ़ाई कर रहे थे. बड़े बाबा जी घर से प्रतिमाह भेजी जाने वाली सामग्री
में सबकुछ भेजते, बस रुपये नहीं भेजते थे. ऐसे में धन की कमी को बाबा जी अपने
एक मित्र की ट्रांसपोर्ट कंपनी का ट्रक चलाकर पूरा किया करते मगर उन्होंने कभी घर में
इसकी शिकायत न की.
उन्हीं बातों के
दौरान बाबा जी की एक बात आज तक जैसे कंठस्थ है. उस बात ने या कहें कि जीवन की सबसे
बड़ी सीख ने हमें व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक तनाव, संघर्ष से बचाए रखा है. पिताजी के देहावसान
और अपनी दुर्घटना के बाद की स्थितियों में भी यदि मनोबल कमजोर न हुआ तो बाबा जी की
नसीहतों के चलते.
गाँव से वापस लौटने
वाले दिन के ठीक पहले दोपहर में खाना खाने के बाद बाबा जी के पैर की उंगलियाँ चटका
रहे थे. बाबा ने कहा कि स्नातक की पढ़ाई करने जा रहे हो,
आगे भी खूब पढ़ना.
शिक्षा ही एकमात्र ऐसी पूँजी है जिसके द्वारा संसार की किसी भी स्थिति को प्राप्त किया
जा सकता है. गाँव, खेती, जमीन, मकान आदि की चर्चा करते हुए उन्होंने समझाया
कि हमेशा एक बात याद रखना कि गाँव की जमीन, मकान, खेत न हम लेकर आये थे,
न तुम्हारे पिताजी.
ये सब हमारे पुरखों के द्वारा कई पीढ़ियों से अगली पीढ़ी को स्वतः मिलता रहा है. ऐसे
में इन्हें लेकर कभी लड़ाई नहीं करना.
बाबा जी का कहना था कि गाँव की लड़ाई,
मुक़दमेबाजी से दूर
रखने के लिए तुम्हारे पिताजी-चाचा लोगों को बाहर निकाला है,
तुम लोग इसके लिए
लौटकर गाँव न आना. मुक़दमेबाजी, लड़ाई, पुलिस आदि झगड़ों से दूर ही रहना. दुर्भाग्य
से कभी ऐसा हो भी जाये कि कोई गाँव की जमीन, घर, खेत आदि पर कब्ज़ा कर ले तो अपने अधिकारों
का पूरा उपयोग करो. अपनी संपत्ति को वापस लेने के लिए संघर्ष करो मगर इसके लिए खून-खराबा
करने की, फौजदारी करने की आवश्यकता नहीं है. वापस गाँव लौटने की जरूरत
नहीं है. शिक्षा तुमको इससे ज्यादा सम्मान, इससे ज्यादा संपत्ति प्रदान करवाएगी. पुरखों
की इस संपत्ति की रक्षा करना तुम सबका दायित्व है मगर इसके लिए अपने भविष्य को,
अपने परिवार को,
आने वाली पीढ़ियों
के भविष्य को बिगाड़ देना समझदारी नहीं होगी.
और भी बहुत सी बातें
बाबा जी द्वारा बहुत गंभीरता से कही गईं. असल में हमारे बाबा जी स्वयं इस स्थिति के
भुक्तभोगी रहे थे. अपनी सरकारी नौकरी को वे छोड़कर गाँव के घर,
जमीन,
खेत के लिए वापस
गाँव आये थे. मुकदमेबाजी, आपसी तनाव,
झगड़ों के बीच उन्होंने
समय की, पढ़ाई की महत्ता को समझा-जाना था. उस समय तो बाबा जी की उन बातों
सा न तो हम सन्दर्भ पकड़ पा रहे थे और न ही उनका आकलन कर पा रहे थे कि ऐसा क्यों बताया-समझाया
जा रहा. बाबा जी उसके बाद बस एक वर्ष और हमारे बीच रहे,
शायद वे समय की
सीख देना चाह रहे थे. और यह संयोग ही कहा जायेगा कि कभी गाँव अकेले न जाने वाले हम
उस दिन अचानक बिना किसी कार्यक्रम के बाबा-अईया के पास पहुँच गए.
लगभग तीन दशक का
समय हो गया बाबा जी को हम लोगों से दूर गए हुए. कम नहीं होता इतना समय,
इसके बाद भी लगता
है जैसे उनका जाना कल की ही बात हो. उस दिन का समूचा घटनाक्रम आज भी ज्यों का त्यों
दिल-दिमाग में छाया हुआ है. उनकी बहुत सी बातें आज भी हम गाँठ बाँधे हैं. उनकी शिक्षाओं
ने, उनकी नसीहतों ने कभी हमें परेशान न होने दिया, कभी हमें समस्या में न पड़ने दिया,
कभी आत्मविश्वास
न डिगने दिया. आज बाबा जी की पुण्यतिथि पर उनको सादर नमन.