Friday 31 August 2018

ननिहाल का अनमोल खजाना


अपने अइया-बाबा के साथ, आशीर्वाद को लेकर हम जितने सौभाग्यशाली रहे, नाना-नानी (श्री मथुरा सिंह क्षत्रिय-श्रीमती राधा रानी)  के साथ को लेकर उतने ही दुर्भाग्यशाली रहे. अपने पैतृक गाँव जाने की तुलना में, वहाँ खेलने-कूदने की तुलना में अपने ननिहाल खूब जाना हुआ. ननिहाल में खेलना, कूदना, खेतों में टहलना, खलिहान की सैर, बगिया में शैतानियाँ, बम्बा का स्नान, तालाब में मस्ती खूब की गई. कई-कई मामा-मामियों के बीच लाड़ले भांजे के रूप में खूब प्यार-दुलार मिला. ननिहाल में बचपन में बड़े भाइयों की सुरक्षा मिली और बड़े में भाभियों का स्नेह भी मिला. इन सबके बीच कमी खलती है तो नाना-नानी का साथ बहुत लम्बे समय तक न मिल पाने की.

बचपन की उस अवस्था में, जिसको होश सँभालने वाली कहा जाता होगा, उसके पहले ही नाना-नानी हमसे दूर चले गए थे. नानी की तो कई बातें याद हैं मगर नाना की मात्र एक छवि याद है और वो भी बहुत धुंधली सी. कई बार लगता है कि नाना की वो छवि वाकई हमें याद है या फिर सबके द्वारा सुन-सुनकर, उनकी फोटो देख-देखकर एक छवि का निर्माण दिल-दिमाग में हो गया है. कुछ भी हो मगर नाना की एक हल्की, धुंधली सी छवि मात्र इतनी सी मन-मष्तिष्क में बसी है जिसमें वे गाँव में घर के पास बने चबूतरे पर बैठे हैं, नीम के पेड़ के नीचे. हम बच्चे वहाँ धमाचौकड़ी करने में लगे हैं. उसी में से वे किसी को तेज आवाज़ में बुला रहे हैं. वे हमसे भी कुछ कहते हैं पर हमें याद नहीं कि उन्होंने तेज़ आवाज़ में किसे बुलाया? हमसे उन्होंने क्या कहा? हाँ, नानी की दो-तीन घटनाएँ याद हैं.

नानी उन दिनों उरई में हमारे तीसरे नंबर वाले मामा जी श्री जयनारायण सिंह क्षत्रिय, उनके होटल चलाने के कारण हम सब उनको होटल वाले मामा कहकर पुकारते थे, के घर रुकी हुईं थीं. कुछ घटनाएँ वहां की याद हैं मगर वे भी धुंधली सी. उन्हीं दिनों या फिर किसी और समय में नानी का हमारे पाठकपुरा वाले घर आना हुआ. गर्मियों के दिन थे. हम तीनों भाई बैठक में नानी के साथ ही खेलने में लगे थे. उस समय की घटना इसलिए भी और याद है क्योंकि उसी समय गली में शोर सुनाई दिया तो पिताजी निकल कर बाहर आये. मोहल्ले के कुछ लड़के किसी चोर की तलाश में भागदौड़ करने में लगे थे. उनके जाने के बाद पिताजी ने अंदेशा जताया कि कहीं वह चोर घर के बगल की पतली गली, जो कई घरों के गंदे पानी निकलने के लिए बनी हुई थी, उसमें तो नहीं छिपा है. छत पर चढ़कर देखने से वह व्यक्ति दिखाई दिया, जिसे पिताजी ने बुलाकर सुरक्षित बैठक के बगल में बने कमरे में बिठाया. पिताजी की वकील दृष्टि ने और नानी की अनुभवी नजर ने उस व्यक्ति को निर्दोष बताया. वो युवक बहुत देर हम लोगों के संरक्षण में काँपते-डरते बैठा रहा. इस दौरान नानी ने कई बातें हम लोगों को बहुत धीमी आवाज़ में बताईं. उनकी बताईं बातें आज स्मरण नहीं हैं मगर उनकी छवि स्पष्ट रूप से हमें याद है.

इसी तरह हमारे नाना मामा (श्री सुल्तान सिंह क्षत्रिय) जब भी उरई आते तो घर अवश्य आया करते. कई बार वे रात को घर पर ही रुक जाते. संध्या करना उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल था. हम देखते कि वे छत पर दरी बिछा उस पर ध्यान की अवस्था में बैठते. ऐसा वे कभी रात का भोजन करने का पहले करते तो कभी भोजन करने के बाद. एक दिन हमने उनसे बालसुलभ जिज्ञासा में पूछ लिया कि मामा, आप क्या करते हैं शांत बैठे-बैठे? आज भी याद है कि उन्होंने हँसकर हमें अपनी गोद में बिठा लिया. इसके बाद उनकी कही बात आज तक अक्षरशः याद है और एक सीख की तरह दिल-दिमाग में बसी है.

मामा बोले, तुम्हारी माँ हमारी सबसे छोटी बहिन है. वह हमारे लिए खाना बनाती है, रोटी-सब्जी बनाती है. चूल्हे की आग से उसको गर्मी लगती होगी. ऐसे में हम भोजन करने के पहले भगवान से कहते हैं कि हमारी बिट्टी को गर्मी न लगने देना. कभी-कभी खाना खाने के पहले ऐसा नहीं कर पाते तो उसके बाद शांत बैठकर भगवान से कहते हैं कि हमें माफ़ करना क्योंकि हमारे कारण बिट्टी को आज खाना बनाते में गर्मी लगी होगी. उसके कष्ट को दूर करना.

नाना मामा की उस दिन की बात हमारे दिल में चिरस्थायी बस गई. आज भी हो सकता है कि किसी के बने भोजन की हम तारीफ न कर पायें मगर किसी के भी बनाये भोजन में कभी कमी नहीं निकालते. बचपन की उस सीख से यह ज्ञान मिला कि भोजन बनाने वाला कष्ट के साथ अन्नपूर्णा की भूमिका का निर्वहन करता है.

अपने नाना-नानी का प्यार-दुलार आज हमें भले ही याद न हो मगर ननिहाल में एकमात्र नानी का स्नेह और समय के साथ तीन-तीन नाना-नानियों का प्यार-दुलार, विशेष रूप से कानपुर वाले नाना-नानी का आशीर्वाद, प्यार आज भी बहुत अच्छे से याद है, हमें आज भी मिल रहा है. मामा-मामी लोगों का स्नेह, दुलार भी बराबर से मिलता रहा है, आज भी मिलता है. कानपुर, ग्वालियर, हमीरपुर कहीं भी जाना होता हो या फिर मामा-मामी से मुलाकात होती है तो अपनेपन से रचा-पगा प्यार-दुलार हमारे हिस्से भरपूर रूप से आता है. जाने कितनी यादें हैं, जो ननिहाल पक्ष की तरफ से भी हमें समृद्ध करती हैं. 

शायद इसी को प्रकृति का, परम सत्ता का न्याय कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति के जीवन में उसके द्वारा कोई कमी की जाती है तो कहीं न कहीं उसके द्वारा उसकी पूर्ति भी कर दी जाती है. नाना-नानी की कमी को उसने नाना-नानी के द्वारा ही पूरा किया. खूब जमकर पूरा किया.

Friday 17 August 2018

अटल जी का मजाकिया सवालिया अंदाज


मौत से कई बार ठनी और हर बार मौत को सामने से वार करने की चुनौती देकर वापस लौटाते रहे. इस बार फिर मौत से ठनी. इस बार की ठना-ठनी कुछ गंभीरता से हो गई. अबकी न मौत वापस जाने को तैयार दिखी और न ही राजनीति के अजातशत्रु हारने को राजी हुए. भाजपा के ही नहीं वरन राजनीति के भीष्म पितामह रूप में स्वीकार अटल जी विगत लगभग एक दशक तक अटल बने रहे. महाभारतकालीन भीष्म पितामह की भांति अटल जी ने कोई प्रतिज्ञा तो नहीं ले रखी थी किन्तु भाजपा रुपी हस्तिनापुर को वे सुरक्षित देखना चाहते थे; भारत माता को सुरक्षित हाथों में देखना चाहते थे; संसद में किसी समय संख्याबल को लेकर हुए उपहास पर दिए गए जवाब को सार्थक देखना चाहते थे; अंधियारी रात में हवा-पानी के किनारे किये गए हुँकार कि कमल खिलेगा, अवश्य खिलेगा को साकार होते देखना चाहते थे; इसी कारण पिछले एक दशक से अधिक का समय वे नितांत एकांतवास की स्थिति में व्यतीत करने के बाद भी आमजनमानस के बीच पूरी तरह रचे-बसे रहे. मौत से ठना-ठनी होने के बाद भी मौत के साथ चलने को तब तक तैयार नहीं हुए जब तक कि वह सब नहीं देख लिया जो वे देखना चाहते थे. ऐसा लगा मानो भीष्म पितामह की भांति समय का इंतजार करने के बाद उन्होंने मौत को सीधे-सीधे हराने के बजाय उसे जिताकर हराने का विचार बनाया. 

मौत से उनकी वर्षों पुरानी ठना-ठनी बंद हुई. वे मौत को जिताने का भ्रम पैदाकर खुद जीतकर अनंत यात्रा पर उसके साथ निकल गए. लगभग एक दशक तक सार्वजनिक जीवन से लगभग विलुप्त, दूर रहने के बाद भी जब वे तिरंगे का आँचल लपेट मौत के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चले तो वे अकेले नहीं थे. उनका विशाल भाजपा परिवार उनके साथ था. उनकी भारतमाता की संतानें उनके साथ थीं. उनके सहृदय व्यवहार के कायल सभी धर्म, जातियाँ, वर्ग उनके साथ थे. उनकी राजनैतिक शुचिता के प्रशंसक अनेक राजनैतिक दल, व्यक्ति उनके साथ थे. अपनी कार्यप्रणाली और निर्भीक निर्णय क्षमता का वैश्विक स्तर पर लोहा मनवाने वाले देशों के लोग उनके साथ थे. सारा देश ही नहीं वरन समूचा विश्व उनके साथ चल रहा था. ये सब उनकी वो थाती है जो मौत के जीत जाने के बाद उसे हारा साबित कर रही थी. 

वे अब एक शरीर के रूप में नहीं, एक व्यक्ति के रूप में नहीं, एक कवि के रूप में नहीं, एक राजनेता के रूप में नहीं वरन एक-एक व्यक्ति के रूप में जीवित हो उठे थे; एक-एक नागरिक के रूप में जिन्दा दिख रहे थे; एक-एक साँस में जीवन निर्वहन करते दिख रहे थे; अपनी अंतिम यात्रा में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शामिल एक-एक व्यक्ति में वे एक एहसास के सहारे जिंदा दिखे. यह देखकर मौत खुद हतप्रभ दिखी. जीतने के बाद भी हारी हुई लगी. उनके लम्बे एकांतवास को तोड़कर मौत जब उन्हें बाहर लेकर आई तो सोचा होगा कि वे खामोश ही रहेंगे. उनका बाहर आना हुआ तो उनकी कविताएँ बोलने लगीं, उनके संसद में दिए गए चुटीले अंदाज के कथन बोलने लगे, सार्वजनिक सभाओं में दिए गए उनके भाषण बोलने लगे, समरसता, मानवता, शांति के लिए किये गए उनके प्रयास बोलने लगे.

आज भी याद है उनका वो बोलना. हास-परिहास के उसी चिर-परिचित अंदाज में उनका बोलना. परिवार के बुजुर्ग की तरह से पढ़ाई के बारे में पूछना. ढाई दशक से अधिक समय पहले उनका पहली बार स्पर्श. उनके चरणों का स्पर्श. उनका प्यार से सिर पर हाथ फिराना. खुश रहो का आशीर्वाद देना. उस समय भी और आज भी अटल जी सम्मोहित व्यक्तित्व दिखे. ग्वालियर के शैक्षिक प्रवास के दौरान अनेकानेक गतिविधियों में सहभागिता बनी ही रहती थी. ऐसी ही एक सहभागिता के चलते पता चला कि अटल जी का एक कार्यक्रम है. हम हॉस्टल वालों को कुछ जिम्मेवारियों का निर्वहन करना है. कोई मंच की व्यवस्था में, को खानपान की व्यवस्था में, कोई जलपान की व्यवस्था में, कोई यातायात की व्यवस्था में, कोई अतिथियों के व्यवस्थित ढंग से आने-जाने की व्यवस्था में. 

सहज आकर्षित करने वाले, सम्मोहित करने वाले, मुस्कुराते चेहरे के साथ अटल जी मंचासीन हुए. सामान्य सा मंच, सामान्य सी व्यवस्था, गद्दे-मसनद के सहारे टिके, अधलेटे, बैठे मंचासीन अतिथि. अटल जी से मिलने का लोभ हम हॉस्टल के भाइयों में था. व्यवस्था हमारे ही हाथों थी सो कभी कोई किसी बहाने मंच पर जाता, तो कभी कोई किसी और बहाने से. आज की तरह कोई तामझाम नहीं, कोई अविश्वास नहीं, फालतू का पुलिसिया रोब नहीं. मंचासीन अतिथियों से मिलने का सबसे आसान तरीका था पानी के गिलास पहुँचाते रहना. तीन-चार बार की जल्दी-जल्दी पानी की आवाजाही देखने के बाद अटल जी ने मुस्कुराते हुए बस इतना ही कहा कि क्या पानी पिला-पिलाकर पेट भर दोगे? भोजन नहीं करवाओगे? 

अपने पसंदीदा व्यक्ति से बातचीत का अवसर, बहाना खोजते हम लोगों से पहला वार्तालाप इस तरह मजाकिया, सवालिया अंदाज में हो जायेगा, किसी ने सोचा न था. हम सब झेंपते हुए मंच से उतर आये मगर कार्यक्रम के बाद भोजन के दौर में खूब बातें हुईं. खुलकर बातें हुईं. 

काश कि वे आज भी वैसे ही बोल देते. काश कि आज उनको पानी पिलाने के बहाने उनके पास तक जाना हो पाता तो शायद वे वही सवाल दोहरा बैठते. काश कि वे आज चरण स्पर्श करने पर उसी तरह आशीर्वाद भरा हाथ सिर पर फिरा देते. अब तो बस काश ही काश है, याद ही याद है.