Monday 23 February 2015

रोता-बिलखता छोड़ चली गईं अइया हमारी

पिछले लगभग एक महीने से दिन-रात हॉस्पिटल में बीत रहे थे. पहले छोटी बहिन प्रीतू का दुर्घटना में घायल होना उसके घर आते ही अइया (दादी) का बाथरूम में गिरकर घायल हो जाना. अइया को उरई से लाकर कानपुर में एडमिट करवाना पड़ा. उनका गुल्ला (कमर के नीचे जाँघ की हड्डी) टूट गया था, जिसके चलते उरई में उनको ट्रेक्शन लगवा दिया गया था. उनको कानपुर में कुलवंती हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया था. हम सब उनकी कुछ मेडिकल जांचों के आधार पर उनके स्वास्थ्य के सही होने के बाद होने वाले उनके ऑपरेशन का इंतजार कर रहे थे.

कई रातों लगातार जागने की थकान पता नहीं क्यों उस दोपहर चेहरे पर, देह पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी. दोपहर को नहाने, खाने के लिए चाचा के घर आने पर हमने कुछ देर सोने की बात कहकर तुरंत नर्सिंग होम जाने की इच्छा न दिखाई. थकान के बाद भी सोने का मन नहीं हो रहा था क्योंकि अच्छे से पता था कि अइया हमें एक मिनट को सामने न देखकर हमारी ही रट लगा देती थीं. नहाने, खाने के लिए एक तरह की उनकी अनुमति लेकर ही आते थे. वे भी जैसे नर्सिंग होम के पलंग पर लेटे-लेटे समय का आकलन करती रहती थीं.

यही सोचकर कि यदि देर हो गई तो अइया परेशान होने लगेंगी, नींद नहीं आ रही थी. पता नहीं क्यों मन भी कुछ परेशान सा लग रहा था. इधर-उधर करवट बदलने के बाद भी जब नींद न लगी तो छोटी बहिन दीपू से चाय बनाने को कहकर उठ बैठे. चाय की चुस्कियों के बीच बैठे-बैठे फोन उठाया और उरई का एक बेसिक नंबर डायल कर बैठे. मन में क्या था, दिमाग कहाँ काम कर रहा था, उंगलियाँ कहाँ काम कर रही थीं कुछ पता नहीं. फोन वहीं लगा, जहाँ लगाना चाहते थे. बात हुई, दिल की बात कही, दिल की बात सुनी. कुछ हल्का सा महसूस किया और उसी हलके-फुल्के एहसास के साथ नर्सिंग होम पहुँच गए.

थकान, नींद न आना, फोन पर दिल की बात करना, अइया के पास जल्दी पहुँचने की आकुलता आदि जैसे पूर्व-निर्धारित सा था. अइया के पास बैठे. उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर इधर-उधर की मजाकिया बातें की. हमारी शादी, अपने पंती को खिलाने की बात सुनते ही उनके चेहरे पर गज़ब की हँसी, अलौकिक चमक आ जाती. उनको दिन भर में कई बार चिढ़ाते कि देखभाल को आने वाली तमाम सारी नर्सों में से किसी एक को पसंद कर लो. नतबहू भी मिल जाएगी और सेवा करने वाली भी, जो इंजेक्शन भी लगा देगी. एक प्यार भरी झिड़की वे लगातीं और मुस्कान उनके होंठों पर तैर जाती. उस दिन भी ऐसी ही चुहल उनके साथ हो रही थी. मीठा खाने की शौक़ीन हमारी अइया ने उस दिन नबीपुर की बदनाम गुझिया का स्वाद लिया, जो पिताजी उरई से आते समय अपने साथ लेकर आये थे.

इधर-उधर की तमाम बातों के दौर चले, अइया से हलके-फुल्के चुहल भरे दौर चले, उरई चलने की चर्चा हुई. उसी दौरान उनको दो-तीन बार हलकी सी खांसी जैसी समझ आई. आवाज़ में खड़खड़ाहट सी महसूस हुई. उन्होंने इशारे से अपनी तकलीफ बतानी चाही. लगा जैसे कुछ कहने की कोशिश कर रही हैं मगर गले में कुछ फँसा होने के कारण शब्द बाहर नहीं आ रहे, आवाज़ बाहर नहीं आ रही. हम उनके दाहिने हाथ पर खड़े थे. अम्मा हमारे पीछे और पिताजी अइया के पैरों के पास पड़ी बैंच पर बैठे थे. उनकी घबराहट सी देख कर उनके सीने पर, गले पर हमने हाथ फिराया. अइया, अइया, क्या बात है, क्या दिक्कत है, क्या कहना है की आवाज़ दी उनको.

उनकी आवाज़ रुंधती सी नजर आई. इससे पहले कि अइया कुछ बोल पातीं, कोई शब्द निकाल पातीं उनको उलटी हो गई. खून की उलटी. उनके सीने पर जल्दी-जल्दी पम्प किया. उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर हथेलियाँ मलने का काम किया. एक उलटी और हुई और इससे पहले कि हम लोग कुछ समझ पाते, डॉक्टर नर्स को आवाज़ दे पाते अइया हमेशा को खामोश हो गईं. उनका हाथ हमारे हाथों में बेजान सा होकर थम गया. गर्दन एक तरफ लुड़क गई. आँखें अपने आप बंद हो गईं.

दो दिन पहले ही उनकी मेडिकल जाँच रिपोर्ट के आधार पर ऑपरेशन होना मुश्किल समझ आ रहा था. इसी बात पर डॉक्टर से, घर पर हमारी बहस भी हुई थी कि यहाँ नर्सिंग होम में नहीं रुकायेंगे अइया को. उरई ले जायेंगे. जब तक वे रहेंगी, उनकी सेवा करेंगे. पलंग पर ही उनकी सारी दिनचर्या का निर्वाह करवाएंगे. क्या पता था कि दो दिन बाद उनको उरई लेकर तो जायेंगे मगर जीवित नहीं. उनकी सेवा के लिए नहीं वरन अंतिम संस्कार के लिए. उरई में जिस दिन अइया को ट्रेक्शन लगा था, उनका बोलना, हँसना उसी दिन से सीमित हो गया था. ऐसा महसूस होने लगा था जैसे वे अपने अंतिम समय को देख रही हैं. लगभग दस दिन तक सीमित हँसने-बोलने वाली अइया को हम लोग पूर्णतः ख़ामोशी की अवस्था में उरई लेकर लौट आये.

जनवरी के अंतिम सप्ताह से शुरू हुआ पारिवारिक संकट अइया के देहांत के बाद समाप्त होता दिखा. अइया के देहांत के लगभग एक महीना पूर्व कानपुर से चाचा जी ने प्रीतू की दुर्घटना की खबर सुनाई. उसकी स्थिति गंभीर बताई गई थी, सो हम आनन-फानन तैयारी करके कानपुर को चल दिए. कानपुर मेडिकल सेंटर में गंभीर हालत में भर्ती छोटी बहिन को खतरे से बाहर तो बताया गया किन्तु सिर में लगी चोट ने उसको गंभीर बनाये रखा था. दवाइयों के सहारे सिर की चोट के असर को कम करने का प्रयास बराबर किया जा रहा था. रात-रात भर उसके पैरों में मचती झुनझुनाहट को पंजे को हथेलियों से मलते-सहलाते बीत जाती. कुछ मिनट का रुकना भी प्रीतू को असहज कर देता. भाई जी, झुनझुनी मच रही का एक बहुत धीमा सा स्वर उभरता और हाथ स्वतः उसके पंजों को मलने लगते. पंद्रह-बीस दिन बाद उसकी हालत में सुधार को देखते हुए उसे घर जाने की अनुमति दे दी गई.

अब हम सब उरई में ही थे. अइया भी उरई में थीं मगर एकदम खामोश. उनकी यात्रा अगले दिन सुबह फिर शुरू हुई. बैंड-बाजों के साथ. चार काँधों के साथ. आँखों में नतबहू देखने का, पंती खिलाने का सपना लिए हमारी दबंग, अपने समय के हिसाब से आधुनिक, तेज-तर्रार किन्तु हम भाइयों की प्यारी, दुलारी अइया हम सबको रोता-बिलखता छोड़कर बाबा जी के पास चली गईं थीं.