पहली बार जब शब्द
सुना था शाखा तो कुछ समझ नहीं आया था. घर के पास के पुलिस चौकी वाले मैदान में
खेलते समय मोहल्ले के पुराने बच्चों ने शाखा चलने के लिए कहा. चूँकि मोहल्ले में आये
अभी महीना भर हुआ था और उस पर ये शाखा चलना, घर से पूछकर आने की कहकर उस दिन शाखा जाना टाल दिया. घर आकर अम्मा
से बताया और बात पिताजी तक पहुँची. घर में अनुशासन था मगर बेबात रोकटोक नहीं,
सो पिताजी ने बिना अनुमति दिए कहा कि पहले उनको घर बुलाओ. अगले दिन हमने
बात ज्यों की त्यों कह दी. शाखा लगाने वाले भाईसाहब मोहल्ले के ही थे और हमारे घर से
परिचित. पिताजी से मिलने आये. पिताजी की अपनी सामाजिक, राजनैतिक
सक्रियता के चलते सभी लोग उनसे परिचित थे. मोहल्ले के नाते पिताजी भी उन भाईसाहब लोगों
के नाम से परिचित थे. आज भी याद है कीर्ति दीक्षित भाईसाहब, दिगम्बर भाईसाहब, स्वतंत्रदेव भाईसाहब (जो कांग्रेस सिंह के नाम से भी जाने जाते हैं) अजय भाईसाहब,
कमलेश भाईसाहब, कौशल किशोर भाईसाहब के साथ और भी तीन-चार लोगों का घर आना हुआ.
अगले दिन से सायं
शाखा, जो घर के पास बने पाठक के
बगीचा में लगती थी, हम तीनों भाइयों का जाना शुरू हो गया. भगवा
ध्वज को देखकर तब भी दिल में हिलोरें उठती थी, आज भी उठती हैं.
शुरू में वंदना याद करने में दिक्कत आई मगर एक बार याद वंदना अब भी भली-भांति याद है.
एक बात जो वहाँ विशेष लगी जिसे आज के माहौल में बार-बार याद करने की आवश्यकता है
कि शाखा में किसी एक दिन भी ऐसी कोई बात नहीं सुनाई दी जिससे विभेद दिखाई दे,
जिससे प्रेम-सौहार्द्र में तनाव दिखाई दे, जिससे
कटुता फैले. शाखा में समय-समय पर बड़े भाइयों द्वारा बौद्धिक भी दिया जाता. उसमें
भी किसी रूप में किसी धर्म, मजहब, जाति के विरुद्ध किसी तरह की कोई बात नहीं की
जाती. इसके उलट समय-समय पर सामाजिक कार्यों में सहभागिता करवाई जाती रही. सामाजिक
विद्वेष को दूर करने सम्बन्धी कदम उठाये जाने की सीख दी जाती. कैसे समाज में लोगों
की मदद की जा सकती है इसके बारे में बताया-समझाया जाता.
बहरहाल, तब से शाखा के संस्कार उसी तरह चले आ रहे हैं.
समाज में स्वयंसेवक कहलाना आज भी गर्व का विषय है. कतिपय राजनीति के चलते लोगों ने
संघ को बदनाम करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, ये उनका चरित्र
है. हमने अपनी सामाजिकता नहीं छोड़ी, ये हमारा चरित्र है.