Thursday 9 March 2017

जो गुजर गई सो गुजर गई

होश संभालने के बाद से खुद को खुद से ही अलग पाया. अतीत को लादकर चलने की आदत नहीं रही और भविष्य के लिए परेशान नहीं रहे. वर्तमान को अपना समझा और उसको खूब मौज-मस्ती के साथ जिया भी. इसका अर्थ यह भी नहीं कि अतीत से कुछ सीखा नहीं और भविष्य के लिए कोई सपना देखा ही नहीं. सीखने वाली बातों को सीखा और सपनों के लिए बिना परेशान हुए सपनों को देखा, खूब देखा और उन्हें पूरा करने का प्रयास भी किया. 

आँख खुलने के साथ नए दिन का आरम्भ और फिर कोई नया सपना. कभी खुद से जुड़ा हुआ, कभी अपनों से जुड़ा हुआ, कभी समाज के लिए, कभी देश के लिए. सपनों की कोई कीमत तो अदा करनी न थी सो खूब सारे सपने देखे. मौज-मस्ती के सपने देखे, कुछ विशेष करने के सपने देखे. तमाम सारे सपनों के बीच कभी भी एक सपना नहीं देखा, वो था शादी करने का, परिवार बसाने का. कारण कभी समझ भी नहीं आया कि जिस उम्र में प्रत्येक युवक-युवती अपने विवाह, अपने जीवनसाथी के बारे में सपने सजाते रहते हैं, उस उम्र में भी हमने शादी के बारे में, अपने जीवनसाथी के बारे में नहीं सोचा था.

ऐसा नहीं कि हमारे मित्रों की सूची में लड़कियाँ न रही हों; लड़कियों के प्रति आकर्षण न हो; लड़कियों की तरफ से प्रेम-प्रस्ताव न मिले हों; हमें प्रेम न हुआ हो मगर किसी के प्रति उसको जीवनसाथी के रूप में देखने का भाव नहीं जागा. हाँ, एक के प्रति ऐसा भाव जागा भी तो इतनी देर से कि वो सामने होकर भी सामने न थी; पास होकर भी बहुत दूर थी. जब कभी अपने शादी सम्बन्धी सपने न देखने का कारण सोचते, उस पर विचार करते तो लगता कि जो कुछ करने का हमारा मन है, जिस तरह का हमारा स्वभाव है वह किसी बंधन को स्वीकार नहीं कर पायेगा. यदि किसी भी तरह से उस बंधन को स्वीकार किया भी तो जिम्मेवारी की भावना के चलते शेष सपनों के प्रति अवरोध सा उत्पन्न हो जायेगा.

हो सकता है, विवाह बहुत से लोगों के लिए बंधन न हो, आवश्यक अथवा अनिवार्य प्रक्रिया हो पर हमारे लिए बंधन इस दृष्टि से है कि कोई एक लड़की अपने समूचे घर-परिवार को छोड़कर, सारे रिश्तों को एक रिश्ते पति के लिए पीछे छोड़कर आती है. दो लोगों से आरम्भ परिवार समय के साथ विकास करता है. यही वे सारी स्थितियाँ होती हैं जो जिम्मेवारी की माँग करती हैं. जब सपनों की दुनिया में हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया का दर्शन रहा हो; समूची धरती को दो कदमों से नाप लेने की मंशा हो; सारे सौन्दर्य को कैमरे के सहारे अपनी मुट्ठी में कैद करने की अकुलाहट हो; कभी हसरत थी आसमां छूने की, अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की जैसा दर्शन हो तब कोई भी अनचाही जिम्मेवारी बंधन ही महसूस होती है.

घर में सबसे बड़े होने के नाते न चाहते हुए भी अंततः उस बंधन को स्वीकार करना पड़ा, जिसके बारे में कभी विचार भी नहीं किया था. एक निर्णय से सारे के सारे सपने ध्वस्त होते दिखे. अस्थिर आर्थिक आधार पर तो खुद खड़े थे और अब एक लड़की को उसी अस्थिरता पर लाने वाले थे. कुछ अलग सा करने की दुनिया अब बंधे-बंधाये तरीकों से संचालित होने वाली थी. हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाने की दम रखने वाला व्यक्ति फिक्रमंद होने जा रहा था. भविष्य की परवाह न करने वाले को भविष्य की चिंता सताने लगी. आखिर अब सवाल सिर्फ खुद के अस्तित्व का नहीं, उसके अस्तित्व का अधिक था जिसे हमारे भरोसे आना था. उनके अस्तित्व का था जिनको हम दोनों के भरोसे जन्मना था. ऊहापोह में रहकर अपनी सपनीली दुनिया को पीछे कर परिवार की ख़ुशी में शामिल हो गए. अम्मा-पिताजी सहित बाकी परिवार की ख़ुशी अपने सपनों से बहुत-बहुत बड़ी लगी. पल-पल सरकती ज़िन्दगी आखिरकार 08 दिसम्बर 2003 को आकर रुक गई जबकि हम दोनों ने एकदूसरे को जयमाला पहनाकर अग्नि के सात फेरे लिए.

परिजनों, इष्ट मित्रों, सहयोगियों की भीड़ होने के बाद भी अकेले से इलाहाबाद पहुँचे और 09 दिसम्बर को एक जिम्मेवारी, एक बंधन लेकर वापस लौटे. नहीं पता था कि साथ आने वाला कितना सहयोगी बनेगा? नहीं मालूम था कि आने वाला हमारे सपनों की दुनिया को कितना आगे ला पायेगा, ला भी पायेगा या नहीं? नहीं पता था कि उसके साथ उसके कौन-कौन से सपने आ रहे हैं? नहीं मालूम था कि उसके सपनों की सम्पूर्णता हमारे द्वारा किस तरह, कैसे होगी? रौशनी के बीच सबकुछ अँधेरे में था. पहली रात एक शाल, एक चाँदी का सिक्का जीवन-संगिनी निशा के हाथों में रखकर उससे अपनी अपेक्षा व्यक्त की कि तुमको कभी सुख-सुविधाओं की कमी नहीं होने देंगे बस पारिवारिकता का धन तुम संभाले रहना.

समय गुजरता रहा, इस बीच पिताजी का देहांत, हमारी दुर्घटना, छोटे भाई-बहिनों की शादी, बच्चों का जन्म, परिवार के अन्य मांगलिक कार्यक्रमों सहित अनेक छोटी-बड़ी घटनाएँ हम दोनों के बीच से गुजरीं. तमाम सारे विषयों पर सहमति भी बनी, तमाम असहमतियाँ भी रहीं. प्रेम-स्नेह भी दिखा, कहा-सुनी भी हुई. इसके बाद भी विगत एक दशक की दाम्पत्य यात्रा का हम अपनी दृष्टि से जब खुद का आकलन करते हैं तो अपने आपको असफल ही पाते हैं. सामाजिक जिम्मेवारियों, लेखकीय दायित्व आदि के बीच पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वहन करने के बाद भी इस जिम्मेवारीपूर्ण निर्वहन में खुद में कुछ कमी पाते हैं. अनेकानेक बार ये निर्णय अपने ही कदमों में बंधन महसूस होता है. पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ पूर्ण न्याय सा नहीं दिखता है. शादी के लिए हाँ कहने का निर्णय कभी न सुधार सकने वाली गलती दिखाई देती है.

कभी लगता है कि एक बार परिवार के इस निर्णय का तीव्र विरोध कर लिया होता तो अधिक से अधिक क्या होता, तमाम सारी अच्छाइयों के बाद भी परिवार में बनी हमारी विरोधात्मक छवि, लड़ाकू छवि, न दबने की छवि, विद्रोही प्रकृति की छवि, जिद्दी छवि में थोड़ी सी और बढ़ोत्तरी हो जाती. फिलहाल, जो हो गया सो हो गया, जो गुजर गई सो गुजर गई.