Saturday 26 December 2015

वीडियो चलवाना भी सामूहिक पर्व हुआ करता था

बड़ा सा टीवी जो लकड़ी के बक्से में बंद. काले-सफ़ेद, झिलमिल करते चित्र, एक जगह स्टैंड पर रखा, छत पर लगे हवाई जहाजनुमा एंटीना के तार से बंधा. अभी इस आश्चर्य से पूरी तरह मुक्ति भी न पा सके थे कि वीडियो के अवतार ने रोमांचित कर दिया. काले-सफ़ेद की जगह रंगीन चित्र. बड़े से भारीभरकम एंटीना का कोई चक्कर नहीं. किसी एक घर की जागीर नहीं, आज इसके घर तो कल उसके घर.

पूरे मोहल्ले में जोश भर जाता था. आज कोई व्यक्ति वीडियो चलवा रहा है तो कल कोई दूसरा व्यक्ति. आज बरगदिया तरे (नीचे) तो कल पीली कोठी पर पाखर के पेड़ के नीचे. बरगदिया हमारे पाठकपुरा मोहल्ले में वो प्रसिद्द जगह थी जहाँ एक विशालकाय बरगद का पेड़ लगा हुआ था. ये वृक्ष आज भी उसी तरह मौजूद है. उसके किनारे एक मंदिर और आसपास मकान बने हुए थे. ये जगह हम बच्चों के खेलने-कूदने की जगह हुआ करती थी तो बड़ों के विमर्श का मंच. सभी लोग उस जगह को बरगदिया तरे अर्थात बरगद के पेड़ के नीचे से ही जानते-पहचानते-संबोधित करते थे. हाँ, तो बात हो रही थी वीडियो की. किसी दिन सामूहिक चंदा करके वीडियो चलता तो किसी दिन कोई अपनी रईसी दिखाते हुए सारा खर्चा खुद ही करता.

मोहल्ले में लगभग रोज ही वीडियो पर फिल्मों का चलना होता किन्तु हम भाइयों को किसी-किसी दिन ही विशेष परिस्थितियों में, कुछ शर्तों के अनुपालन के बाद किसी बड़े के संरक्षण में फिल्म देखने को मिल पाती. ऐसी सुविधा भी हमें दिखाई जाने वाली फिल्मों के चरित्र के आधार पर उपलब्ध करवाई जाती थी.  ऐसी अनुशासनात्मक बंदिशों के बाद भी कई बार चोरी से फिल्मों का दिख जाना हो जाता था. ऐसा गर्मियों की रातों में ही हो पाता था जबकि रात में छत पर सोने के दौरान आसपास के घरों की छतों पर चलते वीडियो हमें भी लाभान्वित कर जाते. चारपाई को अपने छत की छोटी सी चहारदीवार के सहारे टिका कर उसी पर बैठकर वीडियो क्रांति का चोरी-चोरी लाभ उठा लेते.

वीडियो के उस क्रांतिकारी प्रदर्शन के दौर में मोहल्ले के बच्चों में फिल्म देखने की प्रतियोगिता सी चल पड़ी. कौन सी फिल्म कितनी बार देखी गई, इस बात को लेकर आपस में होड़ लग गई. शहंशाह, नगीना, शराबी, संतोषी माता, प्रेम रोग जैसी फिल्मों को कुछ बच्चों द्वारा पंद्रह-बीस बार देखने का ऐलान सा कर दिया गया. उधर मोहल्ले के बच्चों की फिल्म देखने की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी और इधर हमारे खाते में सीमित संख्या बनी हुई थी. पारिवारिक अनुशासन और माहौल का नुकसान भले ही ये रहा हो कि मोहल्ले के बच्चों के साथ फिल्मों की संख्यात्मक प्रतियोगिता में हम फिसड्डी बने रहे पर गुणात्मक रूप में अपने समय की बेहतरीन फ़िल्में देखने का अवसर हमको बचपन में ही मिल गया था. फिल्म जगत के तमाम नामचीन कलाकारों द्वारा अभिनीत बेहतरीन फिल्मों को देखने का मौका मिला. उनमें से बहुत सी फ़िल्में तो समझ आ जाती और बहुत सी ऐसी होती जिन्हें बस देखते ही रहते, देखते ही रह जाते. तब देखते रह जाने वाली ऐसी फिल्मों का अर्थ, उनके कथ्य को अब जाकर समझा.