Thursday 22 February 2018

आँसुओं को मुस्कान में बदलने वाली यादें


समय लगातार गुजरता जाता है. बहुत कुछ इस यात्रा में बदलता जाता है. कुछ नया जुड़ता है, कुछ छूट जाता है. इस जुड़ने-छूटने में, मिलने-बिछड़ने में सजीव, निर्जीव समान रूप से अपना असर दिखाते हैं. इस क्रम में बहुत सी बातें स्मृति-पटल का हिस्सा बन जाती हैं. कुछ अपने दिल के करीब होकर, दिल में बसे होकर भी आसपास नहीं दिखते. उनकी स्मृतियाँ, उनके संस्मरण उनकी उपस्थिति का एहसास कराते रहते हैं. यही एहसास उनके प्रति हमारी संवेदनशीलता का परिचायक है. बरस के बरस गुजरते जाते हैं, दशक के दशक गुजरते जाते हैं मगर इन्हीं स्मृतियों के सहारे लगता है जैसे सबकुछ कल की ही बात हो. 

पीछे पलट कर देखते हैं तो लगभग दो दशक की यात्रा दिखाई देती है. दिखाई देता है बहुत से अपने लोगों का साथ चलना, बहुत से अपने लोगों का ही साथ होना. साथ होकर साथ न दिखने वालों में हमारी अइया  भी हैं. जी हाँ, अइया  यानि कि हमारी दादी. वो दिन आज भी ज्यों का त्यों दिल-दिमाग में अंकित है. चिकित्सा कारणों से अइया  को एक नर्सिंग हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था. लगभग एक सप्ताह से उनकी शारीरिक प्रक्रिया को सामान्य रूप में लाने की कोशिश की जा रही थी ताकि उनका ऑपरेशन किया जा सके. उनकी अवस्था चिकित्सकों को अनुमति नहीं दे रही थी कि वे अइया  का ऑपरेशन कर सकें. अइया  भी अपनी अवस्था से चिर-परिचित थीं और कष्टों के बाद भी लगातार सबके साथ समन्वय बनाये हुए थीं.

हमारी अइया  लगातार हम लोगों के साथ रहने के चलते एक आदत स्वरूप में हम सबके लिए बनी हुईं थीं और हम सब भी जैसे उनकी आवश्यकता से ज्यादा अनिवार्यता के रूप में थे. हमारे न दिखने पर या फिर अम्मा के न दिखने पर वे उसी समय आवाज लगाना शुरू कर देतीं. हमारे तीनों चाचा लोगों यानि कि उनके तीनों बेटों के वहां होने, बहुओं, नाती-नातिनों के वहाँ होने के बाद भी यदि उनकी जरूरत किसी से पूरी होती तो बड़ी बहू यानि कि हमारी अम्मा से या फिर हमसे.

नर्सिंग होम में किसी दिन यदि वे उदास दिखतीं तो उनको हमारा सन्दर्भ देते हुए चिढ़ा दिया जाता कि अभी कैसे जाओगी हम सबको छोड़ कर. अभी नत-बहू देखना है, पंती खिलाना है. नर्सिंग होने के पलंग पर, पैर में ट्रेक्शन का भार लिए, हाथों में ड्रिप निडिल की चुभन समेटे अइया  खुलकर मुस्कुरा देतीं. उनकी हलकी सी मुस्कराहट भी हम सबको प्रसन्न कर देती. उस आखिरी दिन उरई से पिताजी का आना हुआ. उन भर्ती के दिनों में वे बड़ी मुश्किल से खाना खाने को राज़ी होतीं मगर मिठाई की परम शौक़ीन अइया  को जैसे ही बताया गया कि पिताजी बदनाम गुझिया लाये हैं तो वे झट से खाने को राजी हो गईं.

गुझिया उस दिन उनका अंतिम खाद्य-पदार्थ बना. उसके कुछ घंटों बाद उनके गले में घरघराहट सी हुई. हम बगल में ही उनका हाथ पकड़े बैठे हुए थे. ऐसा इस कारण से कि एक तो उनको हमारे होने का भान रहे, दूसरा जैसे ही उनका हाथ छोड़ो वे तुरंत हाथ मोड़ लेतीं. इससे अनेक बार ड्रिप चढाने के लिए लगाई गई वीगो को बदलना पड़ा. उनके हाव-भाव देखकर लगा जैसे उनको साँस लेने में दिक्कत हो रही है. उनके गले को धीरे से सहलाया, सीने पर हाथ फिराया किन्तु उनको आराम समझ नहीं आया. और बस अगले पल ही एक खांसी-हिचकी सी मिश्रित स्थिति बनी. उसी के साथ मुंह से काले तरल पदार्थ की पलटी हुई और बस अइया  दूसरे लोक को चल दीं.

संसार में आने वाले व्यक्ति को जाना होता ही है, ये विधान है. अवस्था कैसी भी हो अपने सदस्य के जाने का दुःख होता ही है. अइया  के जाने का दुःख तो था ही. संतोष इसका था कि उनके अंतिम समय में पूरा परिवार उनके सामने था, उनके साथ था, जैसा कि बाबा के साथ न हो सका था. अइया  के चले जाने के लगभग दो दशक होने को आये मगर एक-एक घटना, एक-एक बात जीवंत है. उनके कमरे के साथ, उनके सामान के साथ, उनकी यादों के साथ. 

जिस दिन उनको पेंशन मिलती, हम तीनों भाइयों को वे कुछ न कुछ देतीं मगर उस नाती को कुछ ज्यादा धनराशि मिलती जो उनको लेकर जाता था. खाने-पीने को लेकर होती चुहल, उनके पुराने दिनों को लेकर होती बातें, उनकी कुछ बनी-बनाई धारणाओं पर हँसी-मजाक बराबर होता रहता, जो उनके बाद बस याद का जरिया है. 

अपने अंतिम समय तक वे इसे मानने को तैयार न हुईं कि सीलिंग फैन कमरे की हवा को ही चारों तरफ फेंकता है, उसमें किसी तरह का बिजली का करेंट नहीं होता है. वे अपनी त्वचा दिखाकर बराबर कहती कि ये पंखा बिजली से चलता है और बिजली फेंकता है. तभी हमारी खाल जल गई है. इसी तरह की धारणा रसोई गैस को लेकर बनी हुई थी. गैस की शिकायत होने पर वे कहती कि गैस की रोटी, सब्जी, दाल खाई जाएगी तो पेट में गैस ही बनेगी. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो अइया  की याद में आये आँसुओं को मुस्कान में बदल देतीं हैं.