Saturday 31 October 2015

कोई स्कूल नहीं हमारे उस स्कूल जैसा

पहले स्कूल से पहले ही दिन वापसी के कितने दिनों तक हम घर में बैठे, ये याद नहीं. ऐसी कोई चर्चा भी नहीं की गई हमसे, हाँ, इसकी चर्चा अवश्य हुई कि हमें स्कूल में भेजे जाने को लेकर घर में उच्च स्तरीय शिखर वार्ताएँ शुरू हो गईं थीं. ऐसा अम्मा जी अक्सर अपनी बातों में जिक्र किया करती हैं. उन दिनों उरई में गिने-चुने स्कूल हुआ करते थे. उस समय का एकमात्र अंग्रेजी माध्यम का मिशन स्कूल आज भी है. घर से बहुत दूर होने के कारण उस स्कूल में हमारे एडमीशन को लेकर आमराय पारिवारिक वार्ताओं में न बन सकी. घर के पास एक स्कूल था पर घर और स्कूल के बीच पड़ता एक विकट नाला उस स्कूल में हमारे प्रवेश में बाधक बना. इसी विचार-विमर्श के बीच हमारे मोहल्ले में ही एक नए स्कूल का उदय हुआ. घर के सभी सदस्यों को लगा जैसे इस स्कूल का खुलना सिर्फ हमारे लिए ही हुआ था. घर से बहुत दूर नहीं, बीच में नदी, नाला, सड़क, यातायात जैसा कुछ नहीं. सो एक दिन निश्चित करके हमारा प्रवेश उस नवोन्मेषी स्कूल में करवा दिया गया.

पं० उमादत्त मिश्र बालिका विद्यालय के नाम से आरम्भ वह स्कूल वर्तमान में भी पं० उमादत्त मिश्र जूनियर हाई स्कूल के नाम से संचालित है. उस समय छोटा सा वह स्कूल अपने आसपास खेलने का मैदान समेटे हुआ था, जो अब कुछ हद तक सिकुड़ सा गया है. शिक्षिकाएँ, जिन्हें हम दीदी कहकर पुकारते थे और प्रधानाचार्या को बड़ी दीदी. सभी का स्नेह, प्यार, दुलार, आशीर्वाद तब भी मिला, आज भी मिल रहा है. बड़ी दीदी के रूप में मधु दीदी के साथ शीला दीदी, सुमन दीदी, सरोजनी दीदी, रेखा दीदी, स्नेहलता दीदी और इनके साथ-साथ शुक्ला आचार्य जी और प्रह्लाद आचार्य जी आदि ने हमारी नींव को भली-भांति तैयार किया. इस नींव की सुरक्षा का दायित्व बहुत दिनों तक लक्ष्मीआया माँ ने उठाया. बाद में हमारे दोनों छोटे भाइयों का प्रवेश भी उसी स्कूल में करवाया गया. जिनकी सुरक्षा का दायित्व हीरा आया माँ के जिम्मे किया गया.

उस समय विशेष बात यह थी कि स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या कम थी. नया-नया स्कूल होने और बच्चों की संख्या कम होने के कारण सभी बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता था. ऐसे में वे सभी बच्चे जो पढ़ने-लिखने के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में आगे रहते थे, अपने आप ही शिक्षिकाओं और अन्य बच्चों की निगाह में आ जाते थे. अपनी कक्षा सम्बन्धी गतिविधियों के अलावा अन्य दूसरी गतिविधियों में भी हम बराबर सहभागिता करते, आगे रहने का प्रयास करते. इसके चलते न केवल अध्यापकों के वरन समूचे स्कूल के बच्चों के चहेते बने रहते थे. ये तो नहीं कहेंगे कि आज के बच्चों की तरह हीरो टाइप रहन-सहन रहा हो, वेशभूषा रही हो पर अघोषित हीरो तो बने ही थे. हमारी इस हीरोगीरी को हमारे प्यारे-प्यारे से दोस्त और हवा दिए रहते थे. अश्विनी, अनिरुद्ध, रॉबिन्स, मनोज, हरकिशोर, राजीव, संतोष, श्यामबाबू, सौरभ, इरफ़ान, संजय, रोहिणी, स्नेहलता, सुचित्रा, अन्नपूर्णा, रेनू, मनोरमा आदि दोस्तों में से बहुत से आज भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. कुछ इसी दुनिया में बहुत दूर-दूर हैं जो बराबर याद आते रहते हैं. कुछ तो रूठकर हमेशा को दूसरी दुनिया में चले गए, उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.

आज भी उस स्कूल के प्रति आकर्षण बना हुआ है. उस स्कूल के शिक्षक, आया माँ, साथी बराबर याद आते हैं, स्मृति में बसे हुए हैं. उस समय के कुछ लोग आज भी साथ हैं. आये दिन उनसे मुलाकात होती रहती है. उस समय को याद करते हैं तो घर-परिवार जैसी अनुभूति होती है, जो आज के स्कूलों में देखने को नहीं मिल रही है.