Wednesday, 14 November 2018

आधी रात और खिड़की वाला भूत


रात गहरा चुकी थी और हम मित्रों द्वारा बातों के बताशे बनाने भी बन्द किये जा चुके थे, सो नींद के आगोश में मजबूरीवश जाना ही था. सभी ने विदा ली और अपने-अपने कमरों की ओर चल दिये. ठण्ड के दिन होने के कारण रजाई में घुसते, लेटते ही नींद का आना तो होना नहीं था, दोस्त-यारों के साथ हुई बातों को सोच-सोच मन ही मन हँसते-मुस्कराते सोने का उपक्रम करने लगे. सोचते-विचारते, हँसते-मुस्कराते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला.

एकाएक खर्र-खर्र की आवाज ने चौंक कर उठा दिया. हाथ बढ़ा कर मेज पर रखे टेबिल लैम्प को रोशन किया. आवाज बन्द. इधर-उधर, कमरे में निगाह मारी कि कहीं बिल्ली या फिर कोई चूहा आदि न घुस आया हो पर कहीं कुछ नहीं. सपना समझ कर सिर को झटका और टेबिल लैम्प की लाइट को बुझा कर रजाई में फिर से घुस गये. खर्र-खर्र की आवाज आनी फिर शुरू. जैसे ही हाथ बढ़ा कर लाइट जलाई आवाज आनी बन्द.

एक-दो मिनट लाइट को जलने दिया तो आवाज नहीं हुई. अबकी पलंग पर बैठे ही रहे और लाइट बन्द कर दी. जैसे ही रोशनी गई आवाज आनी शुरू हुई. वहीं डरावनी सी खर्र-खर्र. बिना टेबिल लैम्प को जलाये आवाज को सुनने का प्रयास किया कि आ कहाँ से रही है? अगले ही पल समझ में आ गया कि आवाज खिड़की की तरफ से आ रही है. टेबिल लैम्प जलाया तो आवाज आनी बन्द हो गई. लगा कि दोस्त लोग डराना चाह रहे हैं क्योंकि आज हमारे रूम-पार्टनर, राजीव त्रिपाठी भी नहीं थे. उसके होने पर होता भी क्या, हमारे साथ-साथ वो भी डरता. असल में हॉस्टल में किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि के किस्से सुनाये जाते थे. किसी कमरे को भुतहा बनाया जाता, किसी पेड़ पर भूत का निवास बताया जाता. इससे डर का माहौल बना ही रहता. यह सब लगभग रोज का नियम होता था. आज भी महफिल जमी थी बातों-बातों में डरावने किस्से भी तैर चुके थे.

खिड़की की तरफ मुँह करके एक-दो आवाजें दीं पर कोई आहट भी नहीं मिली. लाइट जलता छोड़कर रजाई ओढ़ कर लेटे पर आवाज नहीं आई. लाइट बन्द की और आवाज आनी शुरू. हम चुपचाप बिना आहट के यह समझने और देखने की कोशिश करने लगे कि कहीं खिड़की पर कोई है तो नहीं? लगभग चार-पाँच मिनट की कोशिश के बाद भी कोई समझ न आया और कोई आहट भी नहीं समझ आई, हाँ, खर्र-खर्र की आवाज लगातार होती रही. अब थोड़ा सा डर लगा. एक तो अकेले होने का डर और ऊपर से हॉस्टल के चर्चित भूतों का डर. हालांकि हमें कभी भी भूत-प्रेत जैसी बातों से डर नहीं लगा किन्तु माहौल का नया-नया होना और फिर रोज-रोज के वहीं किस्सों ने आज मन में डर पैदा कर दिया. हॉस्टल में हम कुछ लोगों के कमरों में विशेष हथियार सुशोभित होते रहते थे. उसी में से एक हथियार पलंग में गद्दे के नीचे से निकाल खुद को मजबूती प्रदान की. आवाज़ होते ही लाइट जलाई और एकदम से कूद कर खिड़की पर आ गये. यह सोचा कि यदि भूतों के हाथों मरना लिखा होगा तो यही सही और यदि दोस्त लोग हैं तो उनको सीधे-सीधे पकड़ा जा सकता है. 

खिड़की से जो देखा उसने डर तो दूर कर दिया पर चौकीदार बाबा के ऊपर गुस्सा ला दिया. चिल्ला कर बाबा को बुलाया. खर्र-खर्र की आवाज को पैदा करने वाला कोई भूत नहीं और न ही हमारे कोई मित्र वगैरह थे. एक गाय हमारे कमरे के ठीक नीचे खड़े होकर वहाँ लगे पेड़ के तने से अपना सींग रगड़ती थी तो खर्र-खर्र की डरावनी सी आवाज होने लगती थी. जैसे ही लाइट जलती वह सींग रगड़ना रोक देती और जैसे ही लाइट बन्द होती वैसे ही उसका सींग पेड़ के तने पर रगड़ना शुरू हो जाता. चौकीदार बाबा ने आकर उस गाय को वहाँ से दूर भगाया और हम भी अपने मन में एक पल को बिठा चुके भूत को भगा कर फिर से रजाई में दुबक गये.