Monday, 8 February 2016

चवन्नी की जमींदारी


जीवन में कोई व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर निरंतर सजग रहता है, लगातार आगे बढ़ने का प्रयास करता है और इस यात्रा में, अपनी सजगता में वो अपने अतीत को विस्मृत नहीं कर पाता है. ये और बात है कि जिंदगी की आपाधापी में इन्सान ने अपने अतीत को स्वतः याद करना बंद सा कर दिया है किन्तु बहुत सी घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अक्सर मन-मष्तिष्क में उभर कर बीते दिनों की सैर कराने लगती हैं. 

ऐसा ही कुछ उस समय हुआ था जबकि एक समाचार पढ़ने को मिला था कि सरकार ने स्टील की मंहगाई और अन्य कारणों से पच्चीस पैसे के सिक्के को बनाना बंद कर दिया है. इस बंदी के साथ-साथ इसके चलन को भी समाप्त कर दिया गया. हालाँकि सरकारी आदेश के बहुत पहले से पच्चीस पैसे और पचास पैसे का चलन समाज ने स्वतः ही बंद कर रखा था. अब भले ही ये सिक्के लेन-देन के दौरान चलन में न दिखते हों मगर शौकिया तौर पर बनाये गए संग्रह में से कभी-कभार ये सिक्के और अन्य पुराने सिक्के सामने आकर बचपन में ले जाते हैं. कुछ ऐसा ही अपने संग्रह का अवलोकन करते समय पच्चीस पैसे के सिक्के को देखकर हुआ और बचपन की वो ख़ुशी आँखों के सामने चमक उठी जो एक पच्चीस पैसे के सिक्के के द्वारा मिल जाया करती थी.

ये बात सन् 83-84 की है, जब हम राजकीय इंटर कालेज, उरई के छात्र थे. उस समय हमको स्कूल जाने पर नित्य जेबखर्च के रूप में पच्चीस पैसे मिला करते थे. चार आने का मूल्य होने के कारण आम बोलचाल की भाषा में पच्चीस पैसे के सिक्के को चवन्नी कहकर पुकारा जाता था. आज के बच्चों को यह बहुत ही आश्चर्य भरा लगेगा कि रोज का जेबखर्च मात्र पच्चीस पैसे अर्थात चवन्नी, पर हमारे लिए उस समय यह किसी करोड़पति के खजाने से कम नहीं होता था. उस समय इस एक छोटे से सिक्के के साथ एक छोटी सी पार्टी भी हो जाया करती थी. इसके अलावा हम दो-तीन दोस्त हमेशा एकसाथ रहा करते थे और सभी के ऐसे छोटे-छोटे सिक्के मिल-मिलाकर एक ग्रांड पार्टी का आधार तैयार कर दिया करते थे.

विशेष बात तो यह होती थी घर से स्कूल जाते समय अम्मा ही चवन्नी दिया करती थीं. कभी-कभार ऐसा होता था कि थोड़ी बहुत देर होने के कारण अथवा किसी और वजह से हमें स्कूल छोड़ने के लिए पिताजी साइकिल से जाया करते थे. उनकी हमेशा से एक आदत रही थी कि स्कूल के गेट पर हमें साइकिल से उतारने के बाद हमसे पूछा करते थे कि पैसे मिले? झूठ बोलने की हिम्मत तो जुटा ही नहीं पाते तो ऐसे समय में हम या तो चुप रह जाते या फिर कह देते कि हाँ हैं. इसके बाद भी पिताजी अपनी जेब से पच्चीस पैसे का उपहार हमें दे ही देते. चूँकि पिताजी कभी-कभी ही छोड़ने आते थे और जिस दिन उनका आना होता उस दिन हमारा जेबखर्च पच्चीस से बढ़कर पचास हो जाया करता था. समझिए कि उस दिन तो बस चाँदी ही चाँदी होती थी. क्या कुछ ले लिया जाये और क्या कुछ छोड़ा जाये, समझ में ही नहीं आता था. चूँकि उस समय स्कूल परिसर में ऐसी कोई सामग्री बेचने भी नहीं दी जाती थी जो हम बच्चों के लिए हानिकारक हो, इस कारण से घरवाले भी निश्चिन्त रहते थे.

हमारी पच्चीस पैसे की नवाबी उस समय और तेजी से बढ़ गई जब हमारे साथ पढ़ने के लिए हमारा छोटा भाई पिंटू (श्री हर्षेन्द्र सिंह सेंगर) भी साथ जाने लगा. अब हम दो जनों के बीच पचास पैसे की जमींदारी हो गई जो हमारी मित्र मंडली में किसी के पास नहीं होती थी. हम दो भाइयों के बीच एकसाथ आये पचास पैसे के मालिकाना हक से हम अपनी मित्र मंडली पर रोब भी जमा लेते थे पर भोजनावकाश में सारी हेकड़ी आपस में खान-पान को लेकर छूमंतर हो जाती थी. सबके सब अपने-अपने छोटे से करोडपतित्व को आपस में मिला कर हर सामग्री का मजा उठा लेते थे. 

आज जब भी अपने सिक्कों के संग्रह को देखते हैं तो बरबस ही उस चवन्नी की याद तो आती ही है साथ में उन बीस पैसे के, दस पैसे के, पाँच पैसे के सिक्कों की भी याद आ गई जो न जाने कब अपने आप ही चलन से बाहर हो गये. वाह री चवन्नी! तुम्हारी याद तो हमेशा मन में रहेगी जिसने उस छोटी सी उम्र में ही नवाबी का एहसास करा दिया था, धन की अहमियत को समझा दिया था.