Wednesday 19 September 2018

कन्या भ्रूण हत्या वाले कुमारेन्द्र


जब काम मनमाफिक न हो तो उसमें मन नहीं लगता. कुछ ऐसा ही हमारे साथ प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर हो रहा था, नौकरी को लेकर हो रहा था. सपना था सिविल सेवा में जाने का मगर वो हकीकत में न बदल सका. किसी और नौकरी के प्रति किसी तरह की दिलचस्पी नहीं थी. प्राइवेट नौकरी का मन अपने स्वभाव के कारण कभी नहीं हुआ. क्या किया जाये, क्या नहीं, इस ऊहापोह में सिर्फ समय ही बर्बाद हो रहा था. इसी तरह के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच 1998 में अजन्मी बेटियों को बचाने की मुहिम छेड़ दी. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के दौरान इस सम्बन्ध में बहुत से आँकड़े मिले जो निराशा पैदा करते थे. आश्चर्य तब हुआ यह जानकर कि जिले में कार्यरत तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं में से कोई भी कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कार्य नहीं कर रही थी. 

जिले में जब काम शुरू किया तो अपनी तरह का पहला काम होने के कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये, कैसे किया जाये. इसके साथ ही सामान्यजन को भी समझ नहीं आ रहा था कि हम उसके साथ किस मुद्दे पर बात कर रहे हैं. जनता सहयोग करने की इच्छा रख रही थी मगर उसकी समझ से परे था कि सहयोग क्या और कैसे किया जाये? प्रशासन, मुख्य चिकित्सा अधिकारी, अन्य चिकित्सा अधिकारियों से भी इस सम्बन्ध में कोई सहयोग नहीं मिल रहा था. समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के माध्यम से तमाम जानकारियाँ, आँकड़े जुटाए और जनपद में लोगों को इस बारे में जागरूक करने का प्रयास किया.

इस प्रयास में बहुत से खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए. एक महिला चिकित्सक द्वारा जेल भिजवाने तक की धमकी दी गई.  बुजुर्ग महिलाओं-पुरुषों द्वारा इस बारे में पुरानी धारणाओं पर अडिग रहने की मानसिकता दिखी तो युवाओं द्वारा परिवर्तन करने की सोच परिलक्षित हुई. उसी दौरान महिला चिकित्सालय में एक जागरूकता कार्यक्रम के दौरान लोगों को पीएनडीटी के नियमों, दंड आदि को बताया-समझाया जा रहा था. उसी समय एक बुजुर्ग महिला ने अपना अनोखा सुझाव दिया. उसने कहा कि बेटा, सरकार से कहो कि जिसके दो-तीन बेटियाँ हैं उनको यह जांच फ्री करे कि पेट में लड़का है या लड़की है. उसे पकड़े नहीं, न ही जेल में डाले. जब उस बुजुर्ग महिला को समझाया कि ऐसा करने दिया तो लोग लड़कियों को मार डालेंगे. तमाम तरह के उदाहरणों से उस महिला को समझाया कि बेटियाँ भी अब परिवार का नाम रोशन करती हैं, वंश-वृद्धि करती हैं. बहुत देर तक उस महिला से बात करने पर अंततः उस वृद्ध महिला को एहसास हुआ कि बेटियों को भी जन्म दिया जाना चाहिए. इसके बाद उस महिला ने हमारे सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया. ऐसे एक-दो नहीं अनेक घटनाएँ इस कार्यक्रम के सञ्चालन में हमारे साथ घटीं.

कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम का आधार हमने इंटरमीडिएट के विद्यार्थियों, महाविद्यालय के विद्यार्थियों, युवाओं को बनाया हुआ था. इसके अलावा एनसीसी और एनएसएस के बच्चों के बीच इस कार्यक्रम को लगातार किया जाता. हमारा मानना है कि यदि नई पीढ़ी जागरूक हो जाये तो आने वाले समय में बेटियों को बोझ समझना अपने आप समाप्त हो जायेगा. इन नवजवानों के साथ-साथ बुजुर्गजनों को भी अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाया और उनको बेटियों के महत्त्व को समझाया.

बेटियों को बचाने का जूनून सा था. काम करना था, कहीं से कोई फंडिंग नहीं थी, प्रशासनिक सहयोग किसी भी तरह से नहीं मिल रहा था. तमाम खर्चों की पूर्ति मित्रों और समाज के कतिपय शुभचिंतकों द्वारा हो जाती थी. इसी दौरान एक कार्यक्रम के माध्यम से लखनऊ की संस्था वात्सल्य से संपर्क हुआ, जो कन्या भ्रूण हत्या निवारण पर कार्य कर रही थी. वात्सल्य को हमारा अभी तक का कार्य बहुत पसंद आया और उसी के आधार पर उनके कोपल प्रोजेक्ट से हमारा जुड़ना हुआ. इस प्रोजेक्ट से जुड़ने से कुछ आर्थिक सहयोग अवश्य मिला किन्तु उसी दौरान हुई अपनी दुर्घटना के कारण यह प्रोजेक्ट हाथ से निकल गया. एक साल बिस्तर पर ही निकल गया. योजनायें बनती रहीं, संपर्क बनाये रखे गए और अंततः अपनी सबसे प्रिय छोटी बहिन दीपू (दीपशिखा) के नाम पर संचालित अपनी संस्था दीपशिखा के तत्त्वावधान में सन 2006 से राष्ट्रव्यापी अभियान बिटोली आरम्भ कर दिया.

जनपद में पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते, बाबाजी, पिताजी के नाम से जो पहचान मिली वो आज भी हमारा आधार बनी हुई है. इसके अलावा व्यक्तिगत रूप से हमारी पहचान को विस्तार देने का कार्य हमारे सामाजिक कार्यों, सांस्कृतिक अभिरुचि, लेखकीय क्षमता के साथ-साथ कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम ने किया. यदि कहा जाये कि सबसे अधिक पहचान कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम से मिली तो अतिश्योक्ति न होगी. इसका एक पहलू ये भी सामने आया कि जनपद में बहुतायत लोग त्रुटिवश कन्या भ्रूण हत्या वाले कुमारेन्द्र का संबोधन कर जाते हैं. हमसे, हमारे कार्यों से अनभिज्ञ लोग ऐसा सुनकर भले ही हमारे प्रति कोई नकारात्मक विचार बनायें, हम उसी समय हँसकर सुधार करवा देते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या वाले कुमारेन्द्र नहीं बल्कि कन्या भ्रूण हत्या निवारण वाले कुमारेन्द्र.

आज भी यदाकदा वे परिवार, वे बच्चियाँ मिल जाती हैं जो हमारे जागरूकता कार्यक्रम के कारण इस संसार में हैं तो ख़ुशी होती है. ये और बात है कि उनको हम मर्यादावश सार्वजनिक रूप से सामने नहीं ला सकते. बहुत सी बेटियों को बचा सके और बहुत सी बेटियों को बचा भी न सके. सैकड़ों परिवारों को जागरूक किया पर सैकड़ों को समझा भी न सके. आज कई साल इस अभियान को संचालित करते हुए गुजर गए मगर अभी तक संतोषजनक स्थिति का एहसास नहीं हो सका है. बेटियाँ आज भी असुरक्षित हैं, न सही जन्मने के पहले, जन्मने के बाद ही सही पर वे असुरक्षित हैं.



Monday 17 September 2018

बाबा जी की दूरगामी सोच भरी शिक्षा


अपने गाँव बचपन से ही जाना होता रहता था. गर्मियों की छुट्टियाँ कई बार गाँव में ही बिताई गईं. इसके अलावा चाचा लोगों के साथ भी अक्सर गाँव जाना होता रहता था. हमारे गाँव जाने के क्रम में कोई न कोई साथ रहता था मगर उस बार अकेले जाना हो रहा था. बिना किसी कार्यक्रम के, बिना किसी पूर्व-निर्धारित योजना के. स्नातक की पढ़ाई के लिए हमारा ग्वालियर जाना निर्धारित हो गया था. जाने का दिन भी लगभग तय हो गया था. अचानक बैठे-बैठे दिमाग में आया कि ग्वालियर जाने के पहले अईया-बाबा से मिल आया जाये. उस समय अईया-बाबा गाँव में ही हुआ करते थे. उनका उरई आना दशहरे-दीपावली के आसपास होता था. इसके बाद होली के बाद खेती वगैरह के काम से गाँव चले जाया करते थे.

बहुत छोटे से लगातार अईया-बाबा के संपर्क में रहने के कारण लगाव भी था. बहरहाल, उस दिन दोपहर बाद घर पहुँच नीचे से जैसे ही आवाज़ लगाई, अईया ख़ुशी से चहक उठीं. बाबा भी आश्चर्य में पड़ गए कि हम अचानक कैसे आ गए, वो भी अकेले. आश्चर्य होने का कारण ये और था कि हम अकेले आये थे बिना किसी सूचना के. उस समय आज की तरह मोबाइल तो थे नहीं, फोन भी नहीं थे कि खबर कर दी जाती हमारे आने की. उस समय खबरों के आदान-प्रदान का स्त्रोत पत्र हुआ करते थे या फिर गाँव से आने-जाने वाले लोग. इसके साथ-साथ आश्चर्य का एक कारण हमारा नितांत अकेले आना भी था. परिवार में किसी समय लम्बे समय तक चलने वाली जमींदारी और गाँव क्षेत्र की अपनी अलग ही स्थितियों के चलते बाबा इस तरह की स्थितियों से बचाया करते थे. आज भी हम लोगों की ये स्थिति है कि गाँव आने-जाने के दौरान निश्चित समय, रास्ता कभी न बताया जाता है.

दो-तीन गाँव में रुकना हुआ. उन दो-तीन दिनों में बाबा से बहुत सी बातें हुईं. वैसे तो बाबा का साथ हम भाइयों को बहुत छोटे से मिला, जिसके कारण उनके द्वारा बहुत सी जानकारियाँ, शिक्षाएँ हमें मिलती रहीं. जीवन जीने के ढंग, समस्याओं से निकलने के रास्ते, परेशानियों से बचने के तरीके, खुद पर नियंत्रण रखने की स्थिति, अनुशासन में रहने का मन्त्र, सामाजिक रूप से खुद को स्थापित करने की कार्यशैली आदि पर उनके द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से लगातार हम लोगों को बताया जाता रहता.

गाँव में अपने अल्प-प्रवास के दौरान बाबा जी ने कई बातें समझाईं, घर से बाहर अकेले रहने के दौरान आने वाली समस्याओं, उनसे निपटने के तरीके आदि भी समझाए, बिना घबराए, संयम से काम लेटे हुए आगे बढ़ने के रास्ते भी बताए. बाबा जी स्वयं बहुत कम आयु में ही पढ़ने के लिए घर से बाहर निकल आये थे. अपनी पढ़ाई के दौरा उन्होंने स्वयं बहुत संघर्ष किया था. इसका जिक्र वे कई बार हम लोगों के सामने किया करते थे और उदाहरण के लिए समझाया भी करते थे. उनके पढ़ाई के दौरान के संघर्ष को महज ऐसे समझा जा सकता है कि तत्कालीन स्थितियों में एक जमींदार परिवार के बेटे को पढ़ने के लिए बिठूर से उन्नाव ट्रक चलाना पड़ता था. बाबा जी अक्सर उस समय का बना हुआ ड्राइविंग लाइसेंस दिखाया करते थे. असल में बाबा जी के बड़े भाई नहीं चाहते थे कि बाबा जी आगे की पढ़ाई करें. उनका कहना था कि मैट्रिक तक की पढ़ाई ठीक है अब घर वापस आकर खेती और अन्य कामों में सहयोग करें. ऐसे में बाबा जी अपनी जिद से कानपुर में पढ़ाई कर रहे थे. बड़े बाबा जी घर से प्रतिमाह भेजी जाने वाली सामग्री में सबकुछ भेजते, बस रुपये नहीं भेजते थे. ऐसे में धन की कमी को बाबा जी अपने एक मित्र की ट्रांसपोर्ट कंपनी का ट्रक चलाकर पूरा किया करते मगर उन्होंने कभी घर में इसकी शिकायत न की.

उन्हीं बातों के दौरान बाबा जी की एक बात आज तक जैसे कंठस्थ है. उस बात ने या कहें कि जीवन की सबसे बड़ी सीख ने हमें व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक तनाव, संघर्ष से बचाए रखा है. पिताजी के देहावसान और अपनी दुर्घटना के बाद की स्थितियों में भी यदि मनोबल कमजोर न हुआ तो बाबा जी की नसीहतों के चलते.

गाँव से वापस लौटने वाले दिन के ठीक पहले दोपहर में खाना खाने के बाद बाबा जी के पैर की उंगलियाँ चटका रहे थे. बाबा ने कहा कि स्नातक की पढ़ाई करने जा रहे हो, आगे भी खूब पढ़ना. शिक्षा ही एकमात्र ऐसी पूँजी है जिसके द्वारा संसार की किसी भी स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है. गाँव, खेती, जमीन, मकान आदि की चर्चा करते हुए उन्होंने समझाया कि हमेशा एक बात याद रखना कि गाँव की जमीन, मकान, खेत न हम लेकर आये थे, न तुम्हारे पिताजी. ये सब हमारे पुरखों के द्वारा कई पीढ़ियों से अगली पीढ़ी को स्वतः मिलता रहा है. ऐसे में इन्हें लेकर कभी लड़ाई नहीं करना. 

बाबा जी का कहना था कि गाँव की लड़ाई, मुक़दमेबाजी से दूर रखने के लिए तुम्हारे पिताजी-चाचा लोगों को बाहर निकाला है, तुम लोग इसके लिए लौटकर गाँव न आना. मुक़दमेबाजी, लड़ाई, पुलिस आदि झगड़ों से दूर ही रहना. दुर्भाग्य से कभी ऐसा हो भी जाये कि कोई गाँव की जमीन, घर, खेत आदि पर कब्ज़ा कर ले तो अपने अधिकारों का पूरा उपयोग करो. अपनी संपत्ति को वापस लेने के लिए संघर्ष करो मगर इसके लिए खून-खराबा करने की, फौजदारी करने की आवश्यकता नहीं है. वापस गाँव लौटने की जरूरत नहीं है. शिक्षा तुमको इससे ज्यादा सम्मान, इससे ज्यादा संपत्ति प्रदान करवाएगी. पुरखों की इस संपत्ति की रक्षा करना तुम सबका दायित्व है मगर इसके लिए अपने भविष्य को, अपने परिवार को, आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बिगाड़ देना समझदारी नहीं होगी.  

और भी बहुत सी बातें बाबा जी द्वारा बहुत गंभीरता से कही गईं. असल में हमारे बाबा जी स्वयं इस स्थिति के भुक्तभोगी रहे थे. अपनी सरकारी नौकरी को वे छोड़कर गाँव के घर, जमीन, खेत के लिए वापस गाँव आये थे. मुकदमेबाजी, आपसी तनाव, झगड़ों के बीच उन्होंने समय की, पढ़ाई की महत्ता को समझा-जाना था. उस समय तो बाबा जी की उन बातों सा न तो हम सन्दर्भ पकड़ पा रहे थे और न ही उनका आकलन कर पा रहे थे कि ऐसा क्यों बताया-समझाया जा रहा. बाबा जी उसके बाद बस एक वर्ष और हमारे बीच रहे, शायद वे समय की सीख देना चाह रहे थे. और यह संयोग ही कहा जायेगा कि कभी गाँव अकेले न जाने वाले हम उस दिन अचानक बिना किसी कार्यक्रम के बाबा-अईया के पास पहुँच गए.

लगभग तीन दशक का समय हो गया बाबा जी को हम लोगों से दूर गए हुए. कम नहीं होता इतना समय, इसके बाद भी लगता है जैसे उनका जाना कल की ही बात हो. उस दिन का समूचा घटनाक्रम आज भी ज्यों का त्यों दिल-दिमाग में छाया हुआ है. उनकी बहुत सी बातें आज भी हम गाँठ बाँधे हैं. उनकी शिक्षाओं ने, उनकी नसीहतों ने कभी हमें परेशान न होने दिया, कभी हमें समस्या में न पड़ने दिया, कभी आत्मविश्वास न डिगने दिया. आज बाबा जी की पुण्यतिथि पर उनको सादर नमन.