Sunday 10 August 2014

कुछ सच्ची कुछ झूठी के बहाने जुड़िए हमसे


आत्मकथा लेखन शुरू किया जा चुका है. शीर्षक कुछ सच्ची कुछ झूठी के साथ. संभव हो कि आप लोगों को शीर्षक देखकर हैरानी हुई हो. शीर्षक निर्धारण के बाद बहुत लोगों से इस सम्बन्ध में चर्चा होती रही, सोशल मीडिया के द्वारा भी इसके बारे में लोगों को जानकारी होती रही. कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने इस शीर्षक पर आश्चर्य व्यक्त न किया हो. होना भी चाहिए था क्योंकि एक आमधारणा है कि आत्मकथा में सबकुछ सच ही होता है. उसमें झूठ का कोई स्थान नहीं होता है. ऐसे में कुछ सच्ची तो समझ आता है मगर कुछ झूठी से आशय स्पष्ट नहीं होता है. चूँकि आप सब हमारी इस कहानी के द्वारा हमसे किसी न किसी रूप में जुड़ चुके हैं, ऐसे में हमारा दायित्व भी बनता है कि आपको बहुत ज्यादा हैरान-परेशान न करवाते हुए शीर्षक के कुछ झूठी के बारे में बता दें.

पहली बात तो यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि हमने अपनी इस कहानी के लिए अपने आरम्भिक चालीस वर्षों के जीवनकाल (1973-2013) का ही चयन किया है. ऐसा किसी कारण विशेष से नहीं बस कुछ सच्ची कुछ झूठी को विस्तार से रोकने के लिए ऐसा किया गया है. यद्यपि इन चालीस वर्षों में ही अनुभव की इतनी विराट यात्रा की जा चुकी है कि संस्मरणों, स्मृतियों का एक विस्तृत खजाना हमारे पास सुरक्षित है. यह अनुभव निश्चित ही हमारी अपनी थाती है मगर ऐसा अनुभव किया है कि सामाजिक जीवन से जुड़े लोगों का जीवन उनका निजी अथवा व्यक्तिगत नहीं रह जाता है. उसे भी उनके कार्य-व्यवहार की तरह सामाजिक होना पड़ता है. ऐसा होना भी चाहिए, तभी किसी सामाजिक व्यक्ति के कहने और करने के बीच किसी तरह का विरोधाभास दिखाई नहीं देता है.

सामाजिक जीवन से आये, मिले अनुभवों के अपने लाभ हैं तो अपनी हानियाँ भी हैं. उनके अपने खतरे भी हैं. यहाँ हमने तो आत्मकथा लिखने के बहाने कई तरह के खतरे उठाने का मन बना लिया है मगर हमें यहीं रुक कर सोचना पड़ेगा कि क्या वे लोग खतरा उठाने की मानसिकता बना पाए हैं अथवा खतरा उठा पाएंगे जिनका जिक्र इसमें होने वाला है? यही वह बिंदु है जिसने सोचने को मजबूर किया कि अपने अनुभवों की थाती में से किसी के जीवन का एक छोटा सा पल भी यदि सामने लाया जा रहा है तो क्या यह उचित होगा कि अपनी कहानी कहने भर के लिए किसी दूसरे के जीवन में उथल-पुथल मचा दी जाये?

आत्मकथा लिखने के पहले यहीं रुककर विचार किया कि यदि सत्य को छिपाया जाता है अथवा उस पर झूठ का आवरण ओढ़ाया जाता है तो फिर आत्मकथा में सत्यता के साथ खिलवाड़ हो जायेगा. ऐसे में दोनों स्थितियों के बीच सामंजस्य निकालते हुए एक ऐसे आवरण को तैयार किया गया जो झूठ नहीं है बस सत्य को किसी और तरीके से प्रस्तुत करता है. एक ऐसा आवरण जो सामने वाले को प्रदर्शित करने के साथ-साथ उसका आभूषण भी बनता है. बस, हमारे अनुभवों में शामिल अनेकानेक लोगों को उनकी उथल-पुथल से बचाने के लिए यही आवरण कुछ झूठी के रूप में प्रयोग किया गया है. इस तरह कुछ सच्ची कुछ झूठी की रचना-प्रक्रिया आरम्भ हुई.

अब कुछ थोड़ी सी बातें, विशुद्ध आपसे ही, अपने सन्दर्भ में, कुछ सच्ची कुछ झूठी के सन्दर्भ में. हमारी अपनी इस कहानी में कोई दर्शन नहीं है, कोई आदर्श नहीं है, कोई प्रवचन नहीं है. अपनी कहानी आपसे बाँटने के पीछे न तो अपने आपको किसी आदर्शात्मक रूप से प्रस्तुत करना है और न ही यह अभिलाषा है कि इसमें किसी भी तरह का आदर्श तलाशा जाये. यह विशुद्ध रूप से हमारे अपने जीवन की वह कहानी है जो हमने बचपन से लेकर अभी तक देखी और महसूस की है. जीवन के सुखद और दुखद पक्षों को देखा है. स्याह और उजले पक्षों को भोगा है. कुछ सच्ची कुछ झूठी उनकी ही एक कथात्मक प्रस्तुति है.

इसके साथ ही एक बात विशेष रूप से गौर करने वाली यह है कि अभी तक किसी परिदृश्य में हम उस स्थिति में स्थापित नहीं हो सके हैं जहाँ से हमारा जीवन आदर्श माना, समझा जाये. ऐसा कुछ भी विशेष नहीं किया है, जिससे प्रेरित होकर लोग हमारा अनुसरण कर सकें. अपने पूर्वजों के बने-बनाये रास्तों, आदर्शों पर चलते हुए स्वयं अपने लिए ही रास्तों, आदर्शों को खोजने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं. इसलिए आप लोग यदि किसी आदर्शात्मक स्थिति, किसी अनुसरण करने वाली स्थिति के विचारार्थ हमारी कहानी को पढ़ने-सुनने की कोशिश करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी. हाँ, विशुद्ध मनोरंजक रूप में जिन्दगी को एक कहानी समझ, हमारी कहानी में उतरने का प्रयास करेंगे तो आनंद अवश्य ही महसूस करेंगे. यहाँ जीवन से सम्बंधित हमारा अपना ऐसा कुछ है जो समय-समय पर हमें गुदगुदाता है, हँसाता है, रुलाता है, परेशान करता है, दुखी करता है. इसी सबमें से खूब सारी गुदगुदी, ढेर सारी हँसी, बेलौस मस्ती, थोड़े से आँसू, जरा सी परेशानी, हल्का सा दुःख आपके साथ बाँटने आ गए हैं.