किसी भी व्यक्ति
के लिए पहली बार कोई नया काम करना कितना कठिन होगा कह नहीं सकते किन्तु हमारे लिए पहली
बार साइकिल चलाना तो ऐसा था मानो हवाई जहाज चला रहे हों. उस समय कक्षा पाँच में पढ़ा
करते थे. साइकिल चलाने का शौक चढ़ा. घर में उस समय पिताजी की साइकिल थी. पिताजी चले
जाते थे कचहरी और शाम को आते, तब तक हम भी अपने स्कूल से लौट आते थे. कई बार की हिम्मत भरी कोशिशों
के बाद पिताजी से साइकिल चलाने की मंजूरी ले ली.
उस समय तक हमने
साफ करने की दृष्टि से या फिर अपने बड़े लोगों के साथ बाजार, स्कूल आदि जाने के समय ही साइकिल को हाथ लगाया
था. अब साइकिल चलानी तो आती ही नहीं थी तो बस उसे पकड़े-पकड़े लुड़काते ही रहे. कई दिनों
के बाद साइकिल पर इतना नियंत्रण बना पाये कि वह गिरे नहीं या फिर इधर-उधर झुके नहीं.
एक दिन हमारे स्कूल में किसी संस्था या फिर किसी और स्कूल के द्वारा (यह ठीक से याद
नहीं) एक टेस्ट का आयोजन किया गया. इस पूरे टेस्ट में हमारे सबसे ज्यादा नम्बर आये
थे. हम भी बहुत खुश थे और इसी खुशी में हमने पिताजी से साइकिल चलाने की अनुमति माँग
ली.
अब क्या था? कई सप्ताह हो गये थे साइकिल को खाली लुड़काते-लुड़काते,
सोचा कि पिताजी भी खुश हैं हमारे रिजल्ट से, हो सकता है कि कुछ
न कहें. बस आव देखा न ताव कोशिश करके चढ़ गये साइकिल पर. दो-चार पैडल ही मारे होंगे
कि साइकिल एक ओर को झुकने लगी. यदि साइकिल चलानी आती होती तो चला पाते पर नहीं. अब
हमारी समझ में नहीं आया कि क्या करें? न तो हैंडल छोड़ा जा
रहा था और न ही पैडल चलाना रोका जा रहा था. साइकिल झुकती भी जा रही थी और गति भी पकड़ती
जा रही थी. गति थोड़ी रुकती, पैडल जरा थमते, हैंडल और सँभलता उससे पहले वही हुआ जो होना था. हम साइकिल समेत धरती माता की
गोद में आ गिरे. तुरन्त खड़े हुए कि कहीं किसी ने देख न लिया हो? कपड़े झाड़कर घर आये और चुपचाप साईकिल यथास्थान खड़ी कर दी. शाम को बाजार जाते
समय पिताजी को उसकी कुछ बिगड़ी हालत देखकर पता चल ही गया. परिणाम में पिटाई तो नहीं
हुई क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था किन्तु साइकिल चलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
देखा ऐसी रही हमारी
पहली साइकिल सवारी.