Sunday, 1 November 2015

उन भयानक दिनों की याद आज भी है


31 अक्टूबर की रात होने से पहले ही हवाओं में इंदिरा गाँधी की हत्या की दुखद खबर तैरने लगी थी. पुष्ट-अपुष्ट खबरों के बीच लोगों में इस खबर को लेकर संशय बना हुआ था. संशय के साथ-साथ लोगों में एक अनजाना सा भय भी दिख रहा था. शाम को अपनी माँ के साथ सब्जी, अन्य घरेलू समान की खरीददारी करते समय दुकानदारों के चेहरों पर, उनकी बातचीत में डर का दर्शन किया जा सकता था. सब्जी मंडी के छोटे-छोटे दुकानदार अपने सामान को लगभग समेटने के अंदाज़ में ग्राहकों को अधिक से अधिक सामान लेने की हिदायत देते जा रहे थे. इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई है, अब कुछ न कुछ होगा जैसा भाव उनकी बातचीत में झलक रहा था. उस समय 11 वर्ष की उम्र यह समझाने के लिए बहुत थी कि अब कुछ न कुछ होगा का अर्थ क्या हो सकता है. बाज़ार से घर वापसी के दौरान बाज़ार में एक तरह का हडकंप सा मचा हुआ था. 

पिताजी के अधिवक्ता होने के और राजनैतिक सक्रिय व्यक्ति होने के कारण देर रात घर में आसपास वालों का आना-जाना लगा रहा. आने वालों की बातचीत, लोगों की खुसुर-पुसुर से ऐसा समझ आ रहा था कि इंदिरा गाँधी के किसी सिख अंगरक्षक ने उनकी हत्या की है और उरई से भी कुछ सिख भाग चुके हैं. आने वाले हर व्यक्ति को किसी अनहोनी का डर सता रहा था. शहर के मुख्य बाज़ार से कुछ दूर होने के कारण रात को किसी अनहोनी जैसी घटना सुनाई भी नहीं दी किन्तु सुबह के उजाले में कुछ और ही देखने को मिला. लगभग 10-11 बजे के आसपास घर के सामने से गुजरने वाली गली में रोज की तुलना में बहुत अधिक संख्या में लोगों की एक ही दिशा को भागमभाग मची हुई थी. हर व्यक्ति अपने हाथों में कुछ न कुछ उठाये भागा चला जा रहा था, कुछ तो अपनी शारीरिक सामर्थ्य से अधिक सामान अपने ऊपर लादे गिरते-भागते चले जा रहे थे. पूछने पर एक ही जवाब मिल रहा था कि दंगा हो गया है. पिताजी आसपास के अन्य प्रतिष्ठित लोगों के साथ बाहर निकले हुए थे, उनके वापस आने पर ही सही जानकारी मिल सकती थी. इसके बाद भी एक बात स्पष्ट दिख रही थी कि उरई में कुछ गड़बड़ हो गई है जिस कारण से यहाँ लूटपाट जैसे हालात बन गए हैं.

पिताजी के वापस आने पर पता चला कि कुलदीप नाम का एक धनाढ्य व्यापारी सिख उरई छोड़कर भाग गया है तथा लोगों में इस बात की आशंका है कि उसका भी किसी न किसी रूप में इंदिरा गाँधी हत्याकाण्ड में हाथ रहा है. अभी छोटे हो, नहीं समझोगे, अपना काम करो, जाकर खेलो जैसे वाक्यों के बीच कर्फ्यू, दंगा, लूटपाट जैसे शब्द समझ से परे थे पर इतना तो समझ आ रहा था कि उरई में कुछ गड़बड़ हो गई है. उरई में रह रहे सिख समुदाय की इंदिरा गाँधी हत्याकांड में भागीदारी की सत्यता जो भी रही हो, सिख समुदाय की इस घटना पर प्रतिक्रिया जो भी रही हो पर उग्र भीड़ ने कुलदीप की दुकान और घर को निशाना बनाने के साथ-साथ सिख समुदाय की दुकानों को, घरों को, लोगों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया. कुछ दुकानों, मकानों में आग भी लगा दी गई किन्तु किसी सिख की हत्या का, उसकी जान लेने का मामला सामने नहीं आया. सिखों को, उनके परिवार वालों को प्रशासन की तथा कुछ जागरूक नागरिकों की मदद से सुरक्षा प्रदान की गई. इक्का-दुक्का मारपीट की घटनाओं को छोड़कर यहाँ लूटपाट की घटना अधिक सामने आई.

जैसा कि याद है उरई में लोगों ने हालात को बिगड़ने के स्थान पर संभालने की कोशिश की थी किन्तु चंद राजनैतिक मौकापरस्त लोगों और हालात का फायदा उठाने वालों ने अपनी कुत्सित मानसिकता दिखा ही दी थी. हालात बेकाबू न हों इसके लिए प्रशासन द्वारा कर्फ्यू भी लगाया गया. जैसा कि फिर बाद में समाचार-पत्रों में, रेडियो के समाचारों में जो कुछ, जैसा पढ़ने-सुनने को मिला उसने उस उम्र में भी रोंगटे खड़े कर दिए. कालांतर में कानपुर के उस मकान को देखने का अवसर मिला जिसमें एक परिवार के कई सदस्य जिन्दा जला दिए गए थे. कुछ और जगहों पर जाने पर उस समय के नरसंहार स्थलों को देख कर मन व्हिवल हो उठा था. अपने कुछ परिवारीजनों से इसी समयावधि में उनकी आँखों देखी सुनने के बाद तत्कालीन स्थिति की, हालात की गंभीरता को आज तक महसूस करते हैं.