Monday, 19 March 2018

बड़ों के आशीर्वाद से उपाधियों का बढ़ता परिवार


व्यक्ति के शैक्षणिक विकास में उसके माता-पिता, गुरुजनों का विशेष आशीर्वाद रहता है. माँ सरस्वती की अनुकम्पा हमारे ऊपर ऐसी रही कि शिक्षा प्राप्ति के किसी भी चरण में समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. अपने लम्बे सामाजिक और अध्यापन सम्बन्धी अनुभव में देखने को मिला कि शोध कार्य में शोधार्थियों को अनेकानेक समस्याओं, विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इसे हमारे ऊपर बड़ों का, गुरुजनों का आशीर्वाद ही कहा जायेगा कि एक नहीं दो-दो पी-एच०डी० करने पर भी एक पल को परेशानियों, समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा.

हम कुछ और विचार किये थे अपने लिए पर समय ने हमारे लिए कुछ और ही तय कर रखा था. 1998 में हिन्दी साहित्य में एम०ए० की एक और डिग्री अपने नाम के साथ जोड़ ली. अगले ही वर्ष गुरुकृपा से वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों में अभिव्यक्त सौन्दर्य का अनुशीलन विषय पर शोध-कार्य की रूपरेखा तैयार मिली. इसके साथ ही आदेश मिला उसको तुरंत विश्वविद्यालय में पंजीकृत करवाने का. हम जिस क्षेत्र में जाने से लगातार बच रहे थे, समय हमें उसी तरफ धकेलने में लगा था. पितातुल्य ब्रजेश अंकल और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान डॉ० दुर्गाप्रसाद श्रीवास्तव जी के विशेष स्नेह से इतनी छूट मिल गई कि अपनी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी से जब समय मिले तब शोध-कार्य पूरा कर लिया जायेगा.

समय ने करवट बदली और सन 2002 में यूजीसी की तरफ से 31 दिसम्बर 2002 तक अपनी थीसिस जमा करने वालों को नेट से छूट देने सम्बन्धी संशोधन पारित हुआ. न चाहते हुए भी शुभेच्छुओं के आदेश पर शोध-कार्य में जुटना पड़ा. इस बीच एक व्यक्तिगत समस्या के चलते शोध-कार्य को बंद कर दिया मगर समय ने जो निर्धारित कर दिया था, उसे टालना हमारे लिए संभव न हो सका. सभी के आशीर्वाद, अपनी मेहनत के बाद अंततः नियत समय सीमा में शोध प्रबंध (थीसिस) बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में जमा हो गई. वर्ष 2004 में अपने नाम के आगे डॉ० लगाने की कामना पूरी हुई. प्रसन्नता इस बात की थी कि अपने जिन विद्वान गुरु जी के निर्देशन में पी-एच०डी० पूरी की वे स्वयं दो विषयों में डी-लिट्० किये थे, हिन्दी साहित्य और भाषा विज्ञान में. इसके साथ ही यह भी गौरव प्राप्त हुआ कि जिस दीक्षांत समारोह में हमें पी-एच०डी० डिग्री प्राप्त हुई, उसमें हम सभी को राष्ट्रपति कलाम साहब का आशीर्वाद मिला.

ख़ुशी के इन क्षणों में एक दुःख अन्दर ही अन्दर सालता रहा कि जिन पितातुल्य पूज्य ब्रजेश अंकल ने हमारी पी-एच०डी० का आधार निर्मित किया, वे हमारे साथ ख़ुशी बाँटने की स्थिति में नहीं थे. पैरालाइसिस के घातक हमले से खुद को उबारकर वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. कुछ भी कहने में असमर्थ उन्होंने अपने हाथों, अपनी भाव-भंगिमा से सदैव की तरह हमें आशीर्वाद दिया और हमारी सफलता पर ख़ुशी प्रकट की.

इसे समयबद्ध पी-एच०डी० का सुफल कहा जायेगा कि दिसम्बर 2005 में हमें गाँधी महाविद्यालय, उरई में मानदेय प्रवक्ता के रूप में अध्यापन कार्य करने का अवसर मिला. यद्यपि आदतन दो बार अध्यापन नौकरी को छोड़ने के बाद भी इसने हमें नहीं छोड़ा. गुरुवर डॉ० दिनेश चन्द्र द्विवेदी जी के स्नेहिल आदेश पर पुनः-पुनः वापस लौटना पड़ा.

यद्यपि नाम के आगे डॉ० लगाने की तमन्ना पूरी हो चुकी थी तथापि मन में अर्थशास्त्र में शोधकार्य करने का जो बीजारोपण वर्ष 1995 में हुआ था, उसके अंकुरित होने का समय आ गया था. इसे भी किसी शिष्य के लिए गौरवानुभूति का क्षण माना जाना चाहिए कि उसे शिक्षा देने वाला गुरु स्वयं उसको अपने निर्देशन में शोधकार्य करवाने को प्रकट हो जाये. इसे अपने आपमें परमशक्ति से भी बड़ा आशीर्वाद कहा जायेगा जो उस दिन डॉ० शरद जी श्रीवास्तव जी और बड़े भाई समान डॉ० परमात्मा शरण गुप्ता जी ने घर आकर हमें दिया.

अर्थशास्त्र से परास्नातक करने के बाद हमारी विशेष इच्छा थी शरद सर के निर्देशन में पी-एच०डी० करने की. तब उनकी पी-एच०डी० पूरी न होने के कारण हमारी यह इच्छा पूरी न हो सकी थी. अब जबकि वे स्वयं घर आये तो हमने भी पूरी तत्परता दिखाते हुए उनके प्रथम शोधार्थी के रूप में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में अपना पंजीकरण करवा लिया. बुन्देलखण्ड क्षेत्र के प्रति कार्य करने के विशेष लगाव के चलते जनपद जालौन में कृषि पद्धति का मूल्यांकन को अर्थशास्त्र शोधकार्य का विषय चुना. सामाजिक, पारिवारिक जिम्मेवारियों, अध्यापन सम्बन्धी कार्यों के बीच समय निकाल कर शोध कार्य के नियत पांच वर्षों के अंतिम वर्ष में अर्थशास्त्र में भी थीसिस जमा कर दी. कालांतर में तमाम औपचारिकताओं की समाप्ति पश्चात् एक और डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त हुई.

हमारी दोनों पी-एच०डी० को सफलतम रूप से अंतिम पायदान तक पहुँचाने में विश्वविद्यालय में कार्यरत हमारे मित्र डॉ० राजीव सेंगर श्रीकृष्ण की भांति सदैव सारथी की मुद्रा में नजर आये. किसी भी तरह की समस्या पर वे उसी सहजता से हमारा शोध-कार्य सम्पन्नता की ओर ले गए जैसे कि कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को शत्रु सेना के बीच से निकालकर विजय की ओर ले जाते थे. अर्थशास्त्र की पी-एच०डी० में छोटे भाई हर्षेन्द्र ने विशेष रूप से मेहनत की.

तमाम प्रमाण-पत्रों, अंक-पत्रों से भरी फाइल में एक और उपाधि शामिल हो गई. उपाधियों का परिवार बढ़ गया मगर उसका योगदान किस रूप में बढ़ेगा, ये देखना है.