हो सकता है कि आज
की पीढ़ी को ये शब्द बाल सभा कुछ अजूबा सा लगे. ऐसा इसलिए क्योंकि अब किसी
विद्यालय में ऐसा कोई आयोजन होते दिखता नहीं है. विद्यालयों में आजकल बच्चों की
प्रतिभा को निखारने के स्थान पर मँहगे-मँहगे प्रकाशकों की मँहगी-मँहगी किताबों को
रटवाना एकमात्र काम रह गया है. कभी-कभार अभिभावकों को दिखाने के नाम पर,
समाचार-पत्रों में सुर्खियाँ बटोरने के नाम पर कहीं-कहीं प्रोजेक्ट, विज्ञान मेला,
बाल-मेला जैसे आयोजन करवा लिए जाते हैं. ये आयोजन भी बच्चों से ज्यादा अभिभावकों
की प्रतिभा, उनकी जेब की परीक्षा लेते हैं.
बाल सभा शब्द
बहुतेरे लोगों के लिए उतना ही अजूबा जितना कि उसे पता चले कि आज भी कुछ लोग फाउंटेन
पेन से लिख रहे हैं. आज कॉलेज में जब हमारे विद्यार्थियों, सहकर्मियों, साथियों को
पता चलता है कि हम आज भी फाउंटेन पेन से लिखते हैं तो वे आश्चर्य से भर जाते हैं. हालाँकि
अभी उरई जैसे शहर में पठन-पाठन पूरी तरह से ई-सामग्री पर, कंप्यूटर पर निर्भर नहीं हो सका है,
इस कारण यहाँ के विद्यार्थी पेन-कागज से अपना परिचय बनाये हुए हैं.
इसके बाद भी फाउंटेन पेन की उपलब्धता, उपयोग न के बराबर देखने को मिल रहा है. बहरहाल,
बात हो रही थी बाल सभा की. बाल सभा को हम अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों
का आधार कह सकते हैं. यही वो गतिविधि है जिसने हमारे भीतर की झिझक, संकोच को दूर करके भाषण देने की शक्ति, सञ्चालन करने
की क्षमता, नाट्य-कार्यक्रमों में सहभागिता करने को विकसित किया.
आज यह सब विद्यालयों से नदारद दिखता है.
नर्सरी से लेकर
कक्षा पाँच तक की मात्र छह वर्ष की अवधि को अल्पावधि भले ही कहा जाये मगर इन छह वर्षों
में प्रति शनिवार भोजनावकाश के बाद सभी बच्चों को एक बड़े से बरामदे में एकत्र होना
पड़ता था. यह सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था. बाल सभा में लगभग सभी बच्चों को
किसी न किसी रूप में अपनी सहभागिता करनी पड़ती थी. किसी को सञ्चालन, किसी को भाषण, किसी को
गीत, किसी को अभिनय, किसी को कविता. सभी
हँसी-हँसी पूरे उत्साह के साथ अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करते. स्कूल की शिक्षिकाएँ,
जिन्हें हम बच्चे दीदी कहा करते थे, अपने कुशल,
स्नेहिल निर्देशन में न केवल हमारी वरन अन्य विद्यार्थियों की प्रतिभा
को निखारती थीं.
प्रति शनिवार निश्चित रूप से होने वाली बाल सभा ने हमारे व्यक्तित्व
विकास में भी बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया. भाषण, सञ्चालन,
लेखन, अभिनय, निर्देशन आदि
के विकास का आधार उसी बाल सभा में बखूबी हुआ, बस गायन-वादन में
अपने को आगे न ला सके. आने वाले समय में इस पर भी हाथ आजमाया जायेगा.