Monday 21 March 2016

उन बच्चों के लिए बुरा बनना भी सही लगा


संस्कार, कार्यप्रणाली सोच विरासत में मिलती है या नहीं इसके बारे में बहुत अनुभव नहीं है मगर हमारे स्वभाव में, व्यक्तित्व में बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे अन्दर स्वतः ही जन्मा. ऐसे लक्षणों के लिए हमें प्रयास नहीं करने पड़े. बिना प्रयास ऐसे गुणों का, लक्षणों का प्रकट होना बताता है कि ये जन्म से आये होंगे या फिर पारिवारिक संस्कारों के चलते विरासतन हस्तांतरित हो गए. समय के साथ इन गुणों में कमी तो नहीं आई वरन वृद्धि ही होती रही. ऐसे ही गुणों में से एक को जरूरतमंदों की, मजबूर लोगों सहायता करने के रूप में देखा-समझा जा सकता है. उस समय भी जबकि जेबखर्च के नाम पर गिनी-चुनी पूँजी जेब के अन्दर आती थी. उसी अल्पराशि में हॉस्टल के मैस का शुल्क, दूध, चाय आदि सहित अन्य खाद्य सामग्री, मासिक स्टेशनरी आदि के खर्चों के बाद इतना बचना संभव नहीं हो पाता कि किसी जरूरतमंद की सहायता की जा सके. इसके बाद भी दिल-दिमाग में जूनून सा रहता था कि कुछ न कुछ उन बच्चों के लिए करना है. 

वे बच्चे सड़क पर टहलने वाले, भीख माँगने वाले नहीं थे. वे ऐसे बच्चे थे जो अपनी दुनिया को सिर्फ सुन सकते थे. अपनी हथेलियों, अपनी नाक के सहारे दुनिया को महसूस करते थे. वे थे हॉस्टल के सामने बने अंध विद्यालय के नेत्रहीन बच्चे. हॉस्टल से निकलते ही सामने सड़क पार अंध आश्रम दिखाई देता था. एक दिन अचानक ही उसमें जाना हुआ. दुनिया की अंधी चकाचौंध से बहुत दूर वे बच्चे अपनी ही दुनिया में मगन थे. उनकी हालत देख, उनके रहने के ढंग को देख, उनकी जरूरत, उनकी इच्छाओं को देख मन रो पड़ा. अचानक से अपनी मौज-मस्ती बेकार सी लगने लगी. संवेदनाओं से खुद ही लड़ते हुए मन ही मन उनके लिए कुछ करने का विचार किया. इस विचार के साथ खुद अपनी पढ़ाई का बोझ, कम से कम खर्च में महीने का बजट बनाये रखने की जिम्मेवारी के बीच उनकी मदद करना पहाड़ उठाने जैसा लगा. उस दिन तो बस कुछ सहायता खाने-पीने की कर दी, वो भी अपने मन को बहलाने की खातिर. उसके बाद कई दिन, कई रात मन में उथल-पुथल मची रही. उन नेत्रहीन बच्चों के लिए कुछ न कर पाने की विवशता आँखों से अनेक बार बह निकलती. अंततः एक रास्ता सूझा, जो एकबारगी को गलत कहा जा सकता था किन्तु कुछ अच्छा करने बुरा बनना मंजूर किया.

एक-दो विश्वसनीय मित्रों से चर्चा की और फिर पूरी तैयारी के साथ अपने काम को अंजाम दिया. हॉस्टल के सामने से गुजरती अति-व्यस्त आगरा-बॉम्बे रोड पर आंशिक कब्ज़ा किया गया. गुजरने वाले ट्रकों से हॉकी, डंडों, गालियों, तमाचों के बल पर कुछ मिनटों की वसूली हुई. दस-दस, बीस-बीस रुपयों की कुछ-कुछ पूँजी से एक बड़ी रकम इकठ्ठा हुई. इससे अंध आश्रम के उन बच्चों की दुनिया की इच्छाओं का कुछ भाग पूरा किया गया. इस तरह की धन-उगाही के साथ-साथ वहाँ संचालित एक-दो पेट्रोल पम्प, शराब की दुकानों आदि का भी सहारा लिया गया. कभी निवेदन करके, कभी डरा-धमका कर. इन सबका एकमात्र उद्देश्य था नेत्रहीन बच्चों की सहायता के लिए धन एकत्र करना. यह आन्तरिक आक्रोश का स्वाभाविक प्रस्फुटन था जो मदद न करने की पीड़ा से उपजा था.

यह काम नित्य का कार्य न बनाया गया क्योंकि कहीं न कहीं यह भी लग रहा था कि यह गलत तो है ही. ऐसी गलती कभी-कभार कर ली जाती रही मगर महीने-दो-महीने में अपने मासिक बजट से कुछ न कुछ मदद की जाती रही. अपने हिस्से की आवश्यकताओं में कटौती करते हुए उन बच्चों की इच्छाओं का ध्यान रखा गया. हाँ, कभी-कभी अत्यावश्यक होने पर अधिक धनराशि के लिए दोस्तों, हॉकी, डंडों, गालियों, तमाचों का सहारा लिया जाता और सड़क से गुजरते ट्रक इनका निशाना बनते रहे.  

एक दर्द जो कॉलेज टाइम में महसूस किया था वो आज भी महसूस किया अपने भीतर. सीधा सा अर्थ है कि भीतर का इंसान मरा नहीं है अभी तक.