Wednesday, 20 May 2015

हाय रे साइकिल

जब पहली बार साइकिल चलाये तो धरती माता की गोद में जा गिरे थे. उस काण्ड के बाद साइकिल का एक काण्ड और हुआ. कुछ दिनों की मेहनत और लगन के चलते साईकिल को नियंत्रित करना सीख गए. पिताजी की बड़ी साइकिल को उस छोटे से कद में सीट पर बैठकर चलाना तो संभव नहीं था, सो जिसे आम बोलचाल की भाषा में कैंची चलाना कहते हैं, हम भी चलाने लगे. एक दिन अपने दोस्तों के बीच बैठे सभी अपनी साईकिल कलाकारियाँ बताने में लगे थे. उसी में मिलकर विचार किया कि स्कूल के पास किराये की साइकिल देने वाले से एक साईकिल ली जाये और उसका मजा लिया जाये. वो साईकिल वाला छोटे बच्चों की साईकिल किराये से देता था. उस समय वह कुछ घंटों का पच्चीस पैसे लिया करता था.

हम तीन मित्रों ने पैसे जोड़कर चवन्नी बनाई और एक लाल रंग की छोटी साईकिल लाकर रामलीला मैदान से बरगदिया तरे तक दौड़ाना शुरू किया. साईकिल की मौज-मस्ती में समय का ध्यान ही नहीं रहा. किराये के निर्धारित समय से बहुत अधिक समय हो चुका था. अब डर लगा कि यदि साईकिल जमा करने जायेंगे को वो और पैसे माँगेगा, तब पैसे कहाँ से देंगे उसे. कुछ देर के बाद छुटपन समाधान निकाला गया कि साईकिल जमा करने के बजाय कोई अपने घर ले जाये. जब साईकिल वाला घर से लेने आएगा तो घरवाले अपने आप उसे पैसे दे देंगे. राबिन्स और मनोज ने अपनी-अपनी पिटाई का डर दिखाकर साईकिल ले जाने से मना कर दिया. हम भी इसी बात से घबरा रहे थे. पिटाई के डर से हम तीनों में से कोई भी साईकिल ले जाने को तैयार न हुआ और उसे रामलीला मैदान में पाखर के पेड़ के नीचे खड़ा कर दिया.

ऐसा करके भी डर लगा कि साईकिल कोई और चुरा ले गया और साईकिल वाला घर आ गया. तब तो बहुत ज्यादा मार पड़ेगी. अभी हो सकता है कि सिर्फ डांट ही पड़े. ऐसा विचार दिमाग में आते ही हमने साईकिल उठाई और घर ले आये. राबिन्स और मनोज दूसरे मोहल्ले में रहते थे, वे लोग अपने घर चले गए. मोहल्ले के बच्चों ने भी कुछ घंटे उसका मजा लिया. बाद में पिताजी की नज़रों से बचाने के लिए उसे मोहल्ले के बच्चों की मदद से अपने घर की छत पर चढ़ा दिया. इसके बाद जैसा कि सोचा था, वही हुआ. साईकिल वाला जानकारी करते हुए घर आ गया. चूँकि सुबह से मोहल्ले के सभी लोग साईकिल चलाते हुए देख रहे थे, सो उस साईकिल वाले को घर पहुँचने में परेशानी नहीं हुई. छत से उतरवा कर उसकी साईकिल और शेष किराया उसको दिया गया. मार तो नहीं पड़ी क्योंकि सब सच-सच बता दिया था हमने. हाँ, डांट पड़ी कुछ-कुछ, साईकिल को लेकर, इसी साईकिल से गिरने के कारण लगी चोटों को लेकर. उसके बाद बस पिताजी की बड़ी साईकिल पर हाथ-पैर मारे जाते रहे. गिरते रहे, चोट खाते रहे.