जब काम मनमाफिक
न हो तो उसमें मन नहीं लगता. कुछ ऐसा ही हमारे साथ प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर हो
रहा था, नौकरी को लेकर हो रहा था. सपना था सिविल सेवा में जाने का मगर वो हकीकत में
न बदल सका. किसी और नौकरी के प्रति किसी तरह की दिलचस्पी नहीं थी. प्राइवेट नौकरी का
मन अपने स्वभाव के कारण कभी नहीं हुआ. क्या किया जाये, क्या नहीं,
इस ऊहापोह में सिर्फ समय ही बर्बाद हो रहा था. इसी तरह के तमाम उतार-चढ़ावों
के बीच 1998 में अजन्मी बेटियों को बचाने की मुहिम छेड़ दी. प्रतियोगी
परीक्षाओं की तैयारी के दौरान इस सम्बन्ध में बहुत से आँकड़े मिले जो निराशा पैदा करते
थे. आश्चर्य तब हुआ यह जानकर कि जिले में कार्यरत तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं में से कोई
भी कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कार्य नहीं कर रही थी.
जिले में जब काम
शुरू किया तो अपनी तरह का पहला काम होने के कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या
किया जाये, कैसे किया जाये. इसके साथ ही सामान्यजन को भी समझ नहीं आ रहा था कि हम उसके
साथ किस मुद्दे पर बात कर रहे हैं. जनता सहयोग करने की इच्छा रख रही थी मगर उसकी समझ
से परे था कि सहयोग क्या और कैसे किया जाये? प्रशासन,
मुख्य चिकित्सा अधिकारी, अन्य चिकित्सा अधिकारियों
से भी इस सम्बन्ध में कोई सहयोग नहीं मिल रहा था. समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के माध्यम से तमाम जानकारियाँ, आँकड़े जुटाए
और जनपद में लोगों को इस बारे में जागरूक करने का प्रयास किया.
इस प्रयास में बहुत
से खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए. एक महिला चिकित्सक द्वारा जेल भिजवाने तक की धमकी दी गई. बुजुर्ग महिलाओं-पुरुषों द्वारा इस बारे में पुरानी
धारणाओं पर अडिग रहने की मानसिकता दिखी तो युवाओं द्वारा परिवर्तन करने की सोच परिलक्षित
हुई. उसी दौरान महिला चिकित्सालय में एक जागरूकता कार्यक्रम के दौरान लोगों को पीएनडीटी
के नियमों, दंड आदि को बताया-समझाया जा रहा था. उसी समय एक बुजुर्ग महिला ने अपना अनोखा
सुझाव दिया. उसने कहा कि बेटा, सरकार से कहो कि जिसके
दो-तीन बेटियाँ हैं उनको यह जांच फ्री करे कि पेट में लड़का है या लड़की है. उसे पकड़े
नहीं, न ही जेल में डाले. जब उस बुजुर्ग
महिला को समझाया कि ऐसा करने दिया तो लोग लड़कियों को मार डालेंगे. तमाम तरह के उदाहरणों
से उस महिला को समझाया कि बेटियाँ भी अब परिवार का नाम रोशन करती हैं, वंश-वृद्धि करती हैं. बहुत देर तक उस महिला से बात करने पर अंततः उस वृद्ध
महिला को एहसास हुआ कि बेटियों को भी जन्म दिया जाना चाहिए. इसके बाद उस महिला ने हमारे
सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया. ऐसे एक-दो नहीं अनेक घटनाएँ इस कार्यक्रम के सञ्चालन
में हमारे साथ घटीं.
कन्या भ्रूण हत्या
निवारण कार्यक्रम का आधार हमने इंटरमीडिएट के विद्यार्थियों, महाविद्यालय के विद्यार्थियों, युवाओं को बनाया हुआ था. इसके अलावा एनसीसी और एनएसएस के बच्चों के बीच इस
कार्यक्रम को लगातार किया जाता. हमारा मानना है कि यदि नई पीढ़ी जागरूक हो जाये तो आने
वाले समय में बेटियों को बोझ समझना अपने आप समाप्त हो जायेगा. इन नवजवानों के साथ-साथ
बुजुर्गजनों को भी अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाया और उनको बेटियों के महत्त्व को समझाया.
बेटियों को बचाने
का जूनून सा था. काम करना था, कहीं से कोई फंडिंग नहीं थी, प्रशासनिक सहयोग
किसी भी तरह से नहीं मिल रहा था. तमाम खर्चों की पूर्ति मित्रों और समाज के कतिपय शुभचिंतकों
द्वारा हो जाती थी. इसी दौरान एक कार्यक्रम के माध्यम से लखनऊ की संस्था वात्सल्य
से संपर्क हुआ, जो कन्या भ्रूण हत्या निवारण पर कार्य कर रही
थी. वात्सल्य को हमारा अभी तक का कार्य बहुत पसंद आया और उसी के आधार पर उनके कोपल
प्रोजेक्ट से हमारा जुड़ना हुआ. इस प्रोजेक्ट से जुड़ने से कुछ आर्थिक सहयोग अवश्य मिला
किन्तु उसी दौरान हुई अपनी दुर्घटना के कारण यह प्रोजेक्ट हाथ से निकल गया. एक साल
बिस्तर पर ही निकल गया. योजनायें बनती रहीं, संपर्क बनाये रखे
गए और अंततः अपनी सबसे प्रिय छोटी बहिन दीपू (दीपशिखा) के नाम पर संचालित अपनी
संस्था दीपशिखा के तत्त्वावधान में सन 2006 से राष्ट्रव्यापी अभियान बिटोली
आरम्भ कर दिया.
जनपद में पारिवारिक
पृष्ठभूमि के चलते, बाबाजी, पिताजी के नाम से जो पहचान मिली वो आज भी हमारा
आधार बनी हुई है. इसके अलावा व्यक्तिगत रूप से हमारी पहचान को विस्तार देने का कार्य
हमारे सामाजिक कार्यों, सांस्कृतिक अभिरुचि, लेखकीय क्षमता के साथ-साथ कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम ने किया. यदि
कहा जाये कि सबसे अधिक पहचान कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम से मिली तो अतिश्योक्ति
न होगी. इसका एक पहलू ये भी सामने आया कि जनपद में बहुतायत लोग त्रुटिवश कन्या भ्रूण
हत्या वाले कुमारेन्द्र का संबोधन कर जाते हैं. हमसे, हमारे
कार्यों से अनभिज्ञ लोग ऐसा सुनकर भले ही हमारे प्रति कोई नकारात्मक विचार बनायें,
हम उसी समय हँसकर सुधार करवा देते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या वाले
कुमारेन्द्र नहीं बल्कि कन्या भ्रूण हत्या निवारण वाले कुमारेन्द्र.
आज भी यदाकदा वे
परिवार, वे बच्चियाँ मिल जाती हैं जो हमारे जागरूकता कार्यक्रम के कारण इस संसार में
हैं तो ख़ुशी होती है. ये और बात है कि उनको हम मर्यादावश सार्वजनिक रूप से सामने नहीं
ला सकते. बहुत सी बेटियों को बचा सके और बहुत सी बेटियों को बचा भी न सके. सैकड़ों परिवारों
को जागरूक किया पर सैकड़ों को समझा भी न सके. आज कई साल इस अभियान को संचालित करते हुए
गुजर गए मगर अभी तक संतोषजनक स्थिति का एहसास नहीं हो सका है. बेटियाँ आज भी असुरक्षित
हैं, न सही जन्मने के पहले, जन्मने के बाद
ही सही पर वे असुरक्षित हैं.
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