पहली बार की घटनाओं
का एक मीठा सा एहसास सभी को हो यही सोच कर एक ब्लॉग प्रारम्भ किया था. अब चूँकि बात
ब्लॉग की हो रही है तो सोचा कि क्यों न अपने पहली बार ब्लॉग पर आने के बारे में आप
लोगों से बात की जाये. घर पर इंटरनेट कनेक्शन लिए लगभग पाँच माह होने को आ गये थे.
अपने काम की कुछ साइट पर घूमने के साथ साथ ऐसी साइट भी देखा करते थे जिन पर अपने लेख, कविता, कहानी आदि को भेज
कर प्रकाशित करवा सकें.
किसी भी लेखक के
लिए छपास रोग बहुत ही विकट रोग है. हमारे ख्याल से वे दिन तो हवा हो गये जब लोग स्वान्तः
सुखाय के लिए लिखा करते थे. अब तो छपास रोग के कारण लिखना पड़ता है. यही छपास रोग हममें
भी था पर शायद इसकी बहुत हद तक पूर्ति इस रूप में हो चुकी थी कि माँ सरस्वती और बड़ों
के आशीर्वाद से उस समय से ही छपना शुरू हो गये थे जब हमें बच्चा कहा जाता था. उम्र
रही होगी कोई नौ-दस वर्ष की. तबसे कागज पर तो छपते रहे. अब घर में इंटरनेट हो और लेखन
भी होता हो तो छपास का कीड़ा दूसरे रूप में कुलबुलाया. बहुत खोजबीन की पर समझ नहीं आया
कि इंटरनेट पर इस रोग का निदान कैसे हो? खोजी प्रवृति ने हिन्दी खोज के दौरान यह तो दिखाया कि बहुत से
लोग हिन्दी में अपने मन का विषय लिखते दिख रहे हैं पर कैसे यह समझ से परे था?
एक दिन टीवी पर
एक कार्यक्रम आ रहा था जिस पर चर्चा हो रही थी ब्लॉग से सम्बंधित. बस दिमाग ने क्लिक
से इस शब्द को पकड़ा. ब्लॉग की बातें सुनी जो ब्लॉग बनाने को लेकर तो नहीं पर किसी सेलीब्रिटी
को लेकर हो रहीं थीं. इससे पहले अमिताभ बच्चन के ब्लॉग की बातें सुनते रहते थे सो एक
दिन बिग अड्डा पर जाकर पंजीकरण करवा दिया मगर कुछ पल्ले न पड़ा था. ब्लॉग की बात
सुनते ही तुरन्त कम्प्यूटर ऑन किया, गूगल पर जाकर सर्च किया Create Blog. अब
एक दो हों तो समझ में भी आये, वहाँ तो ढेरों साइट. न समझ आये
कि इस वेबसाइट पर बनाना है, न समझ में आये कि उस वेबसाइट पर बनाना
है. दिमाग पर जोर डाल कर देखा तो बहुत सी साइट के एड्रेस पर या तो ब्लॉगपोस्ट लिखा
मिला या फिर वर्डप्रैस. बस हिम्मत करके ब्लॉगर पर गये और ब्लाग बना डाला. इसके बाद
वर्डप्रेस पर भी जाकर एक ब्लॉग बना डाला. नाम भी बड़ा जबरदस्त रखा रायटोक्रेटकुमारेन्द्र. ब्लॉग बनाने के बाद वर्डप्रेस पर कम लिखना हुआ. ब्लॉगर पर खूब
लिखा गया, खूब सारे ब्लॉग बना कर लिखा गया.
अब दोनों जगह ब्लाग
बन गये पर पोस्ट कहीं नहीं किया. दोनों जगह जाकर देखा पर हिम्मत नहीं हुई कुछ भी पोस्ट
करने की. सोचा कहीं पोस्ट करने के बाद कोई पंजीकरण की कोई शर्त न हो? डर लगा कि कहीं इसका कोई भुगतान न करना पड़े?
ऐसा बहुत होता
है, किसी स्टार के निशान के नीचे छिपी हुई स्थिति में. इस सम्बन्ध में और जानकारी
के लिए अपने एक मित्र को फोन किया, अपने भाई को फोन किया. पूरी तरह से आश्वस्ति के बाद हमने अपनी
पहली पोस्ट लिखी. अब यह भी समस्या थी कि इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ेंगे कैसे? फिर सोचा कि ये समस्या बाद की है, पहले कुछ लिख लिया जाये. तो बैठ गए
लिखने, जो दिमाग में आया, अपनी पहली ब्लॉग पोस्ट के रूप में. पहली पोस्ट जो लिखी,
वो यहाँ साथ में दी गई है, आप भी जरूर पढ़ें.
दलित विमर्श को
समझने की जरूरत है
साहित्य में समाज
की तरह दलित विमर्श को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है. देखा जाए तो दलित विमर्श को अभी
भी सही अर्थों में समझा नहीं गया है. दलित विमर्श के नाम पर कुछ भी लिख देना विमर्श
नहीं है. साहित्यकार को ये विचार करना होगा की उसके द्वारा लिखा गया सारा समाज देखता
है. दलित साहित्यकार दलित विमर्श को स्वानुभूती सहानुभूति के नाम देकर विमर्श की वास्तविक
धार को मोथरा कर रहे हैं. अपने समाज का मसीहा मानने वाले महात्मा बुद्ध को क्या वे
स्वानुभूती या समनुभुती अथवा सहानुभूति के द्वारा अपना रहे हैं?
महात्मा बुद्ध तो
एक राजपरिवार के सदस्य थे उनहोंने न तो दुःख देखा था न ही किसी तरह का कष्ट सहा था
फ़िर दलितों के लिए निकली उनकी आह को दलित अपना क्यों मानते हैं?
दलित विमर्श के
बारे में यदि गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो यह अपनी धार खो देगा.
No comments:
Post a Comment