Saturday, 23 September 2017

हॉस्टल के मूँछ कटवा भाईसाहब

कुछ दिनों पहले मुँह नुचवा, चोटी कटवा जैसी घटनाओं की अफवाह चारों तरफ फैली पड़ी थी. कोई अपने नुचे मुँह के साथ खबर बना हुआ था तो कोई महिला अपनी कटी चोटी के साथ टीवी पर दिखाई दे रही थी. इन खबरों के बीच उन महिलाओं को आसानी हो गई जो बॉब कट बाल रखना चाहती थीं मगर कतिपय पारिवारिक स्थिति के चलते अपनी इच्छा का गला घोंट दे रही थीं. चोटी कटवा ने कहीं न कहीं उनकी मदद कर दी. ऐसी घटनाओं को जब-जब पढ़ते तो अपने हॉस्टल के मूँछ कटवा की याद आ जाती.

साइंस कॉलेज, ग्वालियर हॉस्टल में हम जैसे बहुत से नए लड़के थे जो दाढ़ी-मूँछ की शुरुआती झलक देखने को तरस रहे थे. इसी के साथ कुछ सीनियर्स भाई बाक़ायदा दाढ़ी-मूँछधारी थे. मूँछ वाले भाइयों को अपनी मूँछ पर इतराना होता था तो बे-मूँछ भाई अपनी जरा-जरा सी रेख को हवा में उमेठते हुए उनके साथ ताल ठोंकते नजर आते. हम जैसे कुछ भाई दाढ़ी-मूँछ धारी भाइयों का आफ्टर शेव लोशन का इस्तेमाल किसी इत्र की करते. दाढ़ी-मूँछ धारी भाइयों में चिंता का विषय होता कि कौन उनके लोशन पर हाथ साफ कर ले रहा है. दाढ़ी-मूँछ न होने के कारण हम लोगों पर कोई शक भी नहीं करता कि हम लोग ऐसा करते होंगे. ऐसी न जाने कितनी शरारतें हॉस्टल की हवा में तैरती-उतराती रहती थीं.

इन तमाम शरारतों के बीच हमारे राकेश शर्मा भाईसाहब (सीनियर्स को सर के स्थान पर भाईसाहब कहने की परम्परा थी) को अजीब सी शरारत सूझी. देर रात वे चुपके से अपने सहपाठी या अपने सीनियर (जो मूँछधारी होते) के कमरे में जाते और तेज़ ब्लेड के एक वार से उसकी एक तरफ़ की मूँछ उड़ा आते थे. उनके द्वारा यह सब इतनी सहजता से किया जाता कि सोये हुए भाई को खबर ही न हो पाती कि राकेश भाईसाहब उसकी मूँछ के साथ क्या कर गए. एक तरफ की मूँछ से वंचित वह भाई जब अगली सुबह अपने  चेहरे को देखता, अपनी एक तरफ की उड़ी हुई मूँछ देखता तो परेशान हो जाता, हैरान भी होता. बाक़ी लोग मौज लेते हुए इसे सात नम्बर कमरे के भूत का काम बताते. हॉस्टल के सात नंबर कमरे को हमने कभी खुले नहीं देखा. ऐसा कहा जाता कि उसमें एक भूत है और इसी कारण उस कमरे को खोला नहीं जाता. वह कमरा किसी को दिया नहीं जाता. उसमें किसी को रुकाया भी नहीं जाता. असलियत क्या थी न किसी ने बताया, न ही जानने की कोशिश की.

बहरहाल बात अपने हॉस्टल के मूँछ कटवा की. दो-चार लोगों की मूँछें उड़ने के बाद पता चल गया कि ये मूँछ उड़ाने वाला भूत कौन है. इस शरारत को राकेश भाईसाहब ने उन्हीं लोगों पर आज़माया जो अपनी ज़रा-ज़रा सी मूँछों पर इतराते फिरते थे. एक तरफ़ की उड़ने के बाद अगला आदमी दूसरे तरफ़ की ख़ुद उड़ाता था. इसके बाद हम सभी ख़ूब मौज लेते थे, बिना मूँछ वाले भाईसाहब की.

ऐसे ही मूँछधारी भाइयों में में एक भाईसाहब हुआ करते थे एम०पी० सिंह कुशवाह. हॉस्टल के मूँछ कटवा ने उनकी भी एक तरफ़ की मूँछ उड़ा दी. इसके बाद भी उन्होंने दूसरे तरफ़ की मूँछ न बनाई. जो मूँछ उड़ा दी गई थी, उस जगह वे तब तक बैंडेज लगाते रहे जब तक कि उनकी मूँछ न आ गई.

पता नहीं ये चोटी-कटवा या मुँहनुचवा किसलिए ऐसा कर रहा था पर हमारे भाईसाहब ने फ़ुल मौज-मस्ती-शरारत में मूँछ कटवा की भूमिका निभाई. इसमें किसी की मारपीट न हुई, किसी को भूत-चुड़ैल न घोषित किया गया. आज भी ये शरारत याद आने पर गुदगुदी सी होने लगती है.


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