कुछ स्थितियाँ
व्यक्ति के चरित्र के साथ ऐसे चिपक जाती हैं कि उनको निकाल फेंकना सम्भव नहीं हो
पाता है. ये स्थितियाँ कई बार आरोपित होती हैं; कई बार स्फूर्त रूप से पैदा होती
हैं; कई बार वे जन्मजात आंतरिक रूप से जुड़ी रहती हैं. गुस्सा आना, कोई गलत बात
बर्दाश्त न कर पाना, किसी मजबूर, कमजोर के साथ गलत होते देख लड़ जाना आदि कब हमारे
स्वभाव का हिस्सा बन गया या कबसे हमारे स्वभाव में छिपा था, पता नहीं.
कई बार लगता है
कि उम्र से कई गुना ज्यादा तो लड़ाई-झगड़े कर लिए हैं. इस लड़ाई-झगड़े के चक्कर में,
अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण बहुत बार स्थितियाँ तनावपूर्ण भी हो गईं. हर बार यह
तनाव परिवार पर फैलता दिखाई देता. हर घटना के बाद अपने आपसे प्रण किया जाता कि अब
किसी से लड़ाई नहीं, किसी पर गुस्सा नहीं, किसी से गुस्से से भरा व्यवहार नहीं. कुछ
दिन शांति से निकलते, हँसी-ख़ुशी से बीतते, तनावरहित गुजरते और फिर किसी दिन कोई
हंगामा हो जाता. प्रण जैसे टूटने को तैयार ही बैठा रहता.
कई बार अकेले
बैठकर अपने इस व्यवहार पर चिंतन करते तो एक भी लड़ाई, एक भी झगड़ा खुद के लिए किया
हुआ नहीं दिखता. कॉलेज का समय रहा हो, हॉस्टल रहा हो, खेल का मैदान हो, बाजार,
यात्रा, ऑफिस आदि किसी भी समय, किसी भी जगह हुआ कोई भी लड़ाई-झगड़ा हमारे अपने लिए
कभी नहीं हुआ.
आज भी देखते
हैं तो यह छवि चिपकी ही है हमारे ऊपर. लगता है कि शायद यह हमारे अपने लिए गलत रहा
है पर जब पीछे पलट कर देखते हैं तो संतोष होता है कि हमारे चंद झगड़ों ने बहुतों को
परेशानियों से निकाला, बहुतों की समस्याओं को सुलझाया. लोगों को भले ही न दिखता हो
पर हमें एहसास है कि उन सभी लोगों की शुभकामनायें हमारे साथ हैं. ऐसा पूरे दावे के
साथ इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इतने अधिक लड़ाई-झगड़ों ने कभी हमें संकट में नहीं
डाला.
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