Saturday, 20 February 2016

कप्तान बना गई पहली दौड़


कभी-कभी कोई घटना खेल-खेल में घट जाती है और व्यक्तित्व पर छा जाती है. हमारे साथ खेल के मैदान में खेल-खेल में ये घटना घटी जिसने हमें एथलेटिक्स का कप्तान बनवा दिया. इंटरमीडिएट तक तमाम सारे खेलों में हिस्सा लिया मगर कभी भी एथलेटिक्स की तरफ रुझान नहीं रहा था. कॉलेज पहुंचकर भी अन्य खेलों की तरफ निगाह जाती थी मगर एथलेटिक्स की तरफ उधर भी नहीं सोचा. हाँ, बाबा जी द्वारा सुबह टहलने की जो आदत डलवाई गई थी वह हॉस्टल में भी मुन्ना भाईसाहब, पप्पू भाईसाहब के कारण बनी रही.

कॉलेज के वार्षिक खेलकूद के दिन आ गए. सभी खिलाड़ी मैदान पर अपने-अपने खेलों में व्यस्त हो जाते और हम जैसे कुछ दोस्त अपनी मस्ती-शरारत में हाथ आजमाते रहते. हॉस्टल से कोई न कोई किसी न किसी खेल में अपनी सहभागिता कर रहा था. क्रिकेट, शतरंज, बैडमिंटन, कैरम, हॉकी, दौड़ आदि सबमें हॉस्टल की हिस्सेदारी बनी हुई थी. उस दिन पाँच हजार मीटर दौड़ की घोषणा हुई. मुन्ना-पप्पू भाईसाहब सौ मीटर से लेकर पंद्रह सौ मीटर दौड़ में भागीदारी किया करते थे, सो उनको इसमें भाग नहीं लेना था. धावक ट्रेक पर जाने लगे मगर हॉस्टल से इसमें कोई सहभागिता नहीं दिखी. एकदम से लगा जैसे बिना खेले ही हॉस्टल की हार हो गई. हमने कहा कि हम दौड़ेंगे पाँच हजार मीटर दौड़ में. पहले तो कुछ लोगों ने समझाया कि मैदान के एक-दो नहीं पूरे साढ़े बारह चक्कर लगाने होंगे मगर हमने ठान लिया था कि इसमें भाग लेना ही लेना है. हमें पता था कि हम शारीरिक रूप से भले ही मजबूत न दिख रहे हों मगर मानसिक रूप से, आत्मविश्वास के रूप में कमजोर नहीं हैं.

हॉस्टल के बाकी भाइयों ने हमारी बात का खूब चिल्ला-चिल्लाकर, शोर मचाकर समर्थन किया. हमारे स्पोर्ट्स टीचर ने भी हमको प्रोत्साहित करते हुए कहा कि तू बस दौड़ पूरी कर ले, हम इनाम देंगे. दौड़ शुरू होने से पहले हमको इतनी लम्बी दौड़ दौड़ने के टिप्स बताये जाने लगे. कोई साथी हमारे पैरों की माँसपेशियों को मलने में लगा था, कोई चिल्ला-चिल्ला कर ताकत भरने में लगा था. सबकी हिम्मत लेकर, हॉस्टल की सहभागिता करने के लिए, महज खेल-खेल में ट्रेक पर उतर आये. उस स्पर्धा से जुड़े प्रोफ़ेसर हम हॉस्टलर्स का जोश देखकर अचंभित थे. लम्बी सीटी बजी और दौड़ना शुरू हुआ. मैदान के साढ़े बारह चक्कर लगाने थे, सो शुरूआती चक्कर आराम से लगाने शुरू किये. हॉस्टल के हमारे साथी क्रम से चिल्लाते हुए हमारे साथ ट्रेक के किनारे दौड़ लगाते जाते. उनका साथ-साथ दौड़ना हममें और जोश भरता. कब एक-दो-तीन-चार चक्कर लगाते-लगाते अंतिम चक्करों तक पहुँचने लगे पता ही नहीं चला. पैर, जांघ, पिंडलियाँ ऐसे लगने लगी मानो हमारे शरीर में ही नहीं हैं. मुँह सूखने की स्थिति में, साँस लम्बी-लम्बी चलने लगी मगर सबका चिल्लाते हुए हमारे साथ दौड़ना हमें थकने नहीं दे रहा था. कभी लगता कि अब गिरे कि तब गिरे मगर अपने साथियों, बड़े भाइयों, स्पोर्ट्स टीचर, कॉलेज के अन्य साथियों की तरफ से आती आवाजों के सहारे अगले चक्कर के लिए बढ़ जाते.

जिसको जीतना था वो जीत गया. हम छह लोगों में पाँचवे स्थान पर आये. आज भी बहुत अच्छे से याद है जैसे ही हमने फिनिश लाइन को छुआ, हमारे हॉस्टल के साथियों ने दौड़कर बाहों में उठा लिया. किसी ने शरीर को चादर से ढंका, कोई पैरों की मालिश करने लगा. ऐसे में हमारे स्पोर्ट्स टीचर ने आकर पीठ थपथपाई और शाबासी देते हुए कहा कि पहली बार में ही इतनी लम्बी दौड़ पूरी करना अपने आप में जीत है. 

अगले दिन हमने दस हजार मीटर दौड़ में भाग लिया. हालाँकि स्थान वहां भी न मिला तथापि तीनों साल लगातार सहभागिता करने के कारण अंतिम वर्ष में हमको एथलेटिक्स का कप्तान चुना गया. उन्हीं स्पोर्ट्स टीचर ने कप्तान की गरिमा, मर्यादा, जिम्मेवारी को समझाते हुए वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं के आरम्भ में कॉलेज के ध्वज के साथ हमारे द्वारा सभी खिलाडियों को शपथ ग्रहण करवाई. हमारी अगुवाई में लगभग आधा सैकड़ा खिलाड़ियों ने शपथ लेते हुए अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया. वो दिन आज भी याद है और गौरवान्वित कर जाता है.

CAPTAIN ATHLETICS लिखा वो बैज आज तक सुरक्षित है. उस समय न ब्लेजर बनवा सके और न उसे सीने पर लगा सके. अब बस यादें शेष हैं, उस दिन की, अपने एथलेटिक्स कप्तान होने की, खिलाड़ियों को शपथ दिलवाने की, अपने दौड़ने की.

No comments:

Post a Comment