शाम को पिताजी
के अभिन्न मित्र, हमारे पारिवारिक सदस्य ‘दादा’ का
आना हुआ, साथ में दो-चार और लोग भी. आते ही पिताजी की तबियत
के बारे में जानकारी की. उनके जानकारी करने ने जैसे उन सभी संदेहों को मिटा दिया
जो सुबह से दिमाग में उथल-पुथल मचाये हुए थे. आँसू भरी आँखों और भरे गले से इतना
ही पूछ पाए, पिताजी को क्या हुआ? दादा
ने जो स्नेहिल हाथ हमारे सिर पर फिराया वो आज तक बरक़रार है. बिना किसी के कुछ कहे
सब स्पष्ट हो गया, मतलब दोपहर बाद से जो दिलासा दी जा रही थी
वो सब सिर्फ तसल्ली देने के लिए थी. वो डरावनी शाम कैसे आँसुओं भरी रात में बदली
आज भी समझ नहीं आया. लोगों का आना-जाना, समझाना और हमारा
पूरा ध्यान अपनी जिम्मेवारियों पर, अपनी अम्मा पर, अपने दोनों छोटे भाईयों पर, जो पिताजी के पास
पहुँचने को सुबह ही निकल चुके थे. अम्मा ने कैसे अपने को संभाला होगा? दोनों भाइयों ने कैसे समूची स्थिति का सामना किया होगा? कैसे पिताजी को इस रूप में देखा होगा?
कठोर हकीकत को
स्वीकारते हुए सामाजिक निर्वहन में लग गए. बहते आँसुओं के बीच डायल किये जाते नंबर, मोबाइल से बातचीत, हिचकियों
के बीच किसी अपने के न रहने की दुखद खबर का दिया जाना चलता रहा. अब इंतजार था
पिताजी के आने का, पिताजी के आने का कहाँ, पिताजी के पार्थिव शव के आने का. क्या हुआ होगा? कैसे
हुआ होगा? कितनी परेशानी हुई होगी? क्या
परेशानी हुई होगी? यहाँ से तो अच्छे भले गए थे, फिर अचानक हुआ क्या? सवाल अपने आपसे बहुत से थे और
जवाब किसी का भी नहीं था. किससे पूछते? क्या पूछते? चाचा लोग, अम्मा, भाई लोग सभी
उसी मनोदशा में होंगे, जिसमें हम थे. सवालों की इस भँवर में
गिरते-पड़ते हम, हमारी पत्नी आँसुओं के सैलाब में बीते दिनों
को याद करते रहे. पारिवारिक, सामाजिक मान्यताओं के साथ-साथ
पिताजी के अनुशासन के चलते उनसे कम से कम बातचीत, काम की
बातचीत के चलते उस रात एहसास हुआ कि अपने ही पिताजी से कभी खुलकर बात न कर पाए. आज
भी बात कचोटती है पिताजी से बहुत बातचीत न हो पाने की. एक वो समय था और एक आज के
बाप-बेटे हैं, लगता है जैसे दो मित्र हैं अलग-अलग आयुवर्ग
के. क्या सही है, क्या गलत पता नहीं.. क्योंकि सही अपना
समय भी नहीं लगता आज और आज का समय भी हमें नहीं सुहाया आज तक.
बहरहाल, अब एक दशक से ज्यादा हो गया पिताजी को गए.
अब बस आसपास के आयोजन, आसपास की हलचल, घर-परिवार
की क्रियाविधि, क्रियाकलाप देखकर इतना ही कह पाते हैं कि
पिताजी होते तो ऐसा होता, ऐसा न होता. बहुत कुछ अधूरा रह गया
था, उनके द्वारा देखना, उनके द्वारा
पूरा करना. कोशिश तो बराबर रही कि हम पूरा कर सकें, बड़े होने
के नाते सभी छोटों को उनकी कमी न महसूस होने दें मगर पिता तो पिता ही होता है,
कोई भी उसकी जगह नहीं ले सकता. हम भी नहीं ले सके हैं, नहीं ले सकेंगे क्योंकि हमारे पिताजी वाकई हमारे पूरे परिवार की धुरी थे,
आज भी होंगे, यही सोचकर उनके सोचे हुए काम
पूरे करने की कोशिश में हैं. अब इसमें कितना सफल होंगे, ये
तो आने वाला वक्त बताएगा, परिवार के बाकी लोग बताएँगे.
बहते आँसुओं के
साथ पल-पल उनको याद करते हुए. बस याद ही करते हुए, यादों में ही बसाये हुए उनके बताये-बनाये रास्तों पर आगे बढ़ने
का प्रयास करेंगे.
No comments:
Post a Comment