Saturday, 19 March 2016

खट्टे-मीठे एहसास भरा समय


कभी-कभी समय भी परिस्थितियों के वशीभूत अच्छे-बुरे का खेल खेलता रहता है. अनेक मिश्रित स्मृतियों का संजाल दिल-दिमाग पर हावी रहता है. सुखद घटनाओं की स्मृतियाँ क्षणिक रूप में याद रहकर विस्मृत हो जाती हैं वहीं दुखद घटनाएँ लम्बे समय तक अपनी टीस देती रहती हैं. मनुष्य का स्वभाव सुख को जितना सहेज कर रखने का होता है, सुख उतनी ही तेजी से उसके हाथ से फिसलता जाता है. इसके उलट वह दुःख से जितना भागना चाहता है, दुःख उसके भागने की रफ़्तार से कहीं तज दौड़ कर इन्सान को दबोच लेता है. दुःख की एक छोटी सी मार सुख की प्यार भरी लम्बी थपकी से कहीं अधिक तीव्र होती है. कई बार दुखों की तीव्रता सुखों से भले ही बहुत कम हो पर इंसानी स्वभाव के चलते छोटे-छोटे दुखों को भी बहुत बड़ा बना लिया जाता है. हाँ, कुछ दुःख ऐसे होते हैं जिनकी पीड़ा और टीस किसी भी सुख से कम नहीं होती है, नियंत्रित नहीं होती है. 

वर्ष 2005 भी ऐसी ही मिश्रित अनुभूति लेकर आया. इस अनुभूति में समय ने वह खेल दिखाया जिसका असर पूरी ज़िन्दगी रहेगा, पूरी ज़िन्दगी पर रहेगा. सुखों और दुखों के तराजू में दुखों का पलड़ा इतना भारी हुआ कि ज़िन्दगी भर के सुख भी उसे हल्का नहीं कर सकेंगे. मार्च ने हमारे सिर से पिताजी का साया छीन कर इस दुनिया में अकेला खड़ा कर दिया. परिवार की अनपेक्षित जिम्मेवारी एकदम से कंधे पर आ गई. अभी अपनी जिम्मेवारियों को, पारिवारिक दायित्वों का ककहरा भी न सीख सके थे कि अप्रैल ने ज़िन्दगी भर के लिए हमें दूसरे पर निर्भर कर दिया. कृत्रिम पैर के सहारे, छड़ी के सहारे, किसी न किसी व्यक्ति के सहारे. यह और बात है कि आत्मविश्वास ने इन सहारों पर निर्भर रहते हुए भी इन पर निर्भर सा महसूस न होने दिया.

दुर्घटना के बाद कानपुर में चिकित्सकीय सुविधाओं का लाभ लेते हुए अनेक तरह के अनुभव हुए. अपनों का बेगानापन दिखा, बेगानों ने जबरदस्त अपनापन दिखाया. केएमसी में भर्ती रहने के दौरान उरई से मिलने-देखने वालों का ताँता लगा रहा. वहाँ एक निश्चित समय बाद मरीज से मिलने के लिए पचास रुपये का टोकन बनता था, एक घंटे के लिए. किसी दिन रिसेप्शन पर मिलने को लेकर उरई से पहुँचे हमारे एक परिचित की किसी बात पर कहा-सुनी हो गई. उन्होंने नाराज होते हुए रिसेप्शनिष्ट के सामने दस हजार रुपये पटकते हुए कहा कि सारे रुपयों के टोकन बना दो किन्तु किसी को मिलने से रोका न जाये.

लोगों का स्नेह हमसे मिलने मात्र को लेकर ही नहीं था. पहले दिन से लेकर वहां भर्ती रहने तक छब्बीस यूनिट ब्लड की आवश्यकता हमें पड़ी. पहले दिन की चार यूनिट ब्लड को छोड़ दिया जाये तो शेष ब्लड उरई से आकर लोगों ने दिया. हमने अपने सामाजिक जीवन के सामाजिक कार्यों के अपने अनुभव में स्वयं महसूस किया है कि एक-एक यूनिट ब्लड की प्राप्ति के लिए रक्तदाताओं की बड़ी समस्या आती है. लोगों का हमारे प्रति स्नेह, प्रेम, विश्वास ही कहा जायेगा कि इतनी बड़ी संख्या में फ्रेश ब्लड हमें उपलब्ध हुआ. चूँकि एक दिन में सिर्फ दो यूनिट ब्लड हमें चढ़ाया जाता था, इस कारण लोगों को रक्तदान के लिए रोकना पड़ रहा था, समझाना पड़ रहा था.

केएमसी की व्यवस्था देखने वाले एक डॉक्टर साहब प्रतिदिन सुबह-शाम हमसे मिलने आया करते थे. तमाम सारी बातों, हालचाल के साथ-साथ वे एक सवाल निश्चित रूप से रोज पूछते थे कि कुमारेन्द्र जी, आप उरई में करते क्या हैं, जो मिलने वालों की इतनी भीड़ आती है? उनका कहना था कि अपनी लम्बी मेडिकल सेवा में मैंने किसी को इतना फ्रेश ब्लड मिलते नहीं देखा है. ऐसा पहली बार हुआ है कि ब्लड डोनेट करने वालों को रोकना पड़ रहा है.

हम तब भी नहीं समझ सके थे कि वास्तव में हमने किया क्या है? वास्तव में हम करते क्या हैं? क्यों इतने लोग हमें देखने आ रहे हैं? क्यों इतने लोग हमें अपना रक्तदान कर बचाने आ रहे हैं? यह बात तब भी न हम खुद समझ सके थे, न उन डॉक्टर साहब को समझा सके थे. न ही आज समझ सके हैं, न ही आज भी समझा सकते हैं. न कोई पद, न कोई दायित्व, न कोई नौकरी, न कोई व्यापार, न धनवान, न राजनीतिज्ञ पर नगरवासियों का, जनपदवासियों का यही अपार स्नेह हमारे लिए संजीवनी बना. इसी संजीवनी ने एक माह पहले परिवार पर आये विकट संकट में भी खड़ा रहने का साहस प्रदान किया. इसी संजीवनी ने अपनों के बेगानेपन को भुलाने में अपनी भूमिका अदा की. इसी संजीवनी शक्ति ने आर्थिक समस्या में घिरे होने के बाद भी आर्थिक संबल प्रदान किया. इसी संजीवनी ने तमाम सारे दुखों को कम करने की ताकत दी, उनसे लड़ने का हौसला दिया.

समय के साथ दुःख कम होते जाते हैं. उनकी टीस कम होती जाती है. दो-दो कष्टों को सहने वाले परिवार को समय कुछ मरहम लगाना चाहता था. वर्ष 2005 अपने माथे पर सिर्फ कष्टों का कलंक लगवाकर विदा नहीं होना चाहता था. तभी जाते-जाते उसने दिसम्बर में एक छोटी सी ख़ुशी हमारे माध्यम से परिवार को दी. हम जो काम कभी भी नहीं करना चाहते थे, उसी अध्यापन कार्य का नियुक्ति-पत्र मिला. जिस महाविद्यालय में दो-दो बार हमारी नियुक्ति को रुकवाया, रोका गया हो उसी महाविद्यालय ने हमें अपने यहाँ अध्यापन कार्य करने हेतु नियुक्ति-पत्र निर्गत किया. अध्यापन के प्रति इसी प्रकार की रुचि न होने के कारण हमने सिरे से इस प्रस्ताव को नकार दिया. घरवालों के अपने तर्क थे. बिना एक पैर, चलने-फिरने, बाहर बिना सहारे निकलने में हमारी असमर्थता को इसी बहाने दूर होने का बहाना बताया गया. दो-चार महीनों में अध्यापन कार्य छोड़ देने के हमारे पिछले रिकॉर्ड के कारण भी सबने विश्वास जताया कि चंद महीने ही करोगे इस काम को, कर लो जब तक मन लगे.

अंततः पारिवारिक तर्कों, दबावों के चलते देश की ऐतिहासिक तिथि 06 दिसम्बर 2005 को हमने भी अपनी नियुक्ति को ऐतिहासिक बना दिया. ऐतिहासिक इस रूप में कि दो बार इस अध्यापन कार्य को छोड़ने के बाद भी अद्यतन गाँधी महाविद्यालय, उरई के हिन्दी विभाग में मानदेय प्रवक्ता के रूप में कार्यरत हैं. आगे कब तक ये सेवा होगी, पता नहीं. अभी तो वर्ष 2005 के तमाम कष्टों-दुखों को याद करते हुए इस दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं. 



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