Wednesday, 20 April 2016

फिर जिन्दा होकर लौटा हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में


उस दिन सब कुछ सपने के जैसा गुजर गया मगर वो सपना नहीं था. एक पल में जाने कितनी ज़िंदगियाँ, न जाने कितनी मौतें एकसाथ आँखों के सामने कौंध गईं. बार-बार झपकती आँखें, रह-रह कर टूटती साँसें और फिर साँसों को न टूटने देने की जिद, आँखों को खोले रखने के हठ के बीच कुछ भी नहीं हुआ है का भरोसा देता हमारा खुद का अक्खड़पन. बिखरते हुए को समेटने का लगातार प्रयास, नम आँखों में हँसी भरने की कोशिश, सबको अपने अंक में भर लेने की कामना, दौड़कर सबसे लिपट जाने की चाहना. जैसे कुछ हुआ ही न हो का भरोसा बनाये रखना था, कई-कई जिन्दगानियों में ज़िन्दगी का रंग सजाये रखना था, अपनी हठ, अपनी जिद, अपने अक्खड़पन को विजयी बनाये रखना था. 

आखिर में लगा कि ज़िन्दगी वो नहीं जिसे आप अपनी साँसों के सहारे गुजार दें. ज़िन्दगी तो वो है जिसे लोग आपकी साँसों के सहारे जी सकें. और इसी कारण मन गुनगुना बैठा था

फिर जिन्दा होकर लौटा हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..

अपनों को जाते देखा है,
गैरों को आते देखा है,
दुःख की तपती धूप है देखी,
सुख का सावन देखा है,
सतरंगी मौसम लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..

जीवन से जो जीत गया,
मौत को उसने जीता है,
कर्म हो जिसका मूल-मंत्र,
वह जीवन-पथ पर जीता है,
जीवन-विजय सिखाने आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..

जीते कभी समुन्दर से,
कभी एक बूँद से हार गये,
उड़े आसमां छूने को,
पहुँच आसमां पार गये,
चाँद-सितारे लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में.
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में..



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