Sunday, 28 July 2019

जुड़िए हमारी 'कुछ सच्ची कुछ झूठी' से

आखिरकार लम्बे इंतजार के बाद कुछ सच्ची कुछ झूठी का प्रकाशन हो ही गया. विगत दो-तीन वर्षों से लगातार प्रकाशन की, लेखन की, संपादन की स्थिति में होने के कारण हमारा यह ड्रीम प्रोजेक्ट थमा हुआ था. रुका हुआ नहीं कह सकते क्योंकि इस पर लगातार काम चल रहा था. जब स्थिति खुद पर लिखने की हो, अपने जीवन को कागज़ पर उतार कर सार्वजनिक करने की हो तब अनेक तरह की ऊहापोह जैसी स्थितियां भी सामने आने लगती हैं. इस पुस्तक के लिए एक लम्बे समय से दिमाग काम कर रहा था और दिल भी इसके लिए समान रूप से दिमाग का साथ दे रहा था. ऐसे में विभिन्न घटनाओं को लिखना, तमाम घटनाओं को जानबूझ कर छोड़ना, बहुत सी घटनाओं पर काल्पनिकता का आवरण ओढ़ाना, बहुत सी बातों को एक आवरण के सहारे नए रंग में पेश करना आदि ऐसे कदम थे जो अपनाने थे. इस बारे में हमारा मानना यह रहा है कि अपने जीवन को सार्वजनिक करने का यह मंतव्य कतई नहीं होना चाहिए कि दूसरे के जीवन में उथल-पुथल मच जाये. इसी कारण से सब कुछ सच्ची-सच्ची होने के बाद भी उसमें ऐसा झूठ चढ़ाया गया जो सच होने के बाद भी सच न लगे.


बहरहाल, अब जबकि अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज से इसका प्रकाशन हो चुका है. यह पुस्तक अमेज़न पर भी बिक्री के लिए उपलब्ध है तो आप सभी से अपेक्षा है कि इसे पढ़ेंगे और हमारे बारे में हमें ही बताने का कष्ट करेंगे. 

अंजुमन प्रकाशन के बारे में जानकारी नीचे की लिंक पर दी गई है. वीनस केसरी जी ने पूरी तन्मयता से हमारे ड्रीम प्रोजेक्ट को सफल बनाने का प्रयास किया है, उनका आभार.

अमेज़न की लिंक भी नीचे दी जा रही है. आप यहाँ से कुछ सच्ची कुछ झूठी को मंगवा सकते हैं.

आप सभी का स्नेह अपेक्षित है.

Tuesday, 19 March 2019

अभी बहुत कुछ बाँटना है आप सबके बीच


हमारे विगत चालीस वर्षों की जीवन-यात्रा के कुछ पड़ावों, जो कुछ सच्ची कुछ झूठी के आवरण में लिपटे हैं, से आपका भी गुजरना हुआ. इन पड़ावों पर आपका ठहराव कैसा रहा? अपना तो इनमें से किसी भी पड़ाव पर ठहराव नहीं हुआ. जितनी देर इनका सामना जीवन से होता रहा, उतने पल वहाँ रुककर उसका आनंद लिया, उससे कुछ सीखा और फिर सतत यात्रा को आगे बढ़ गए. सामान्य रूप में आत्मकथा लिखने के सन्दर्भ में चालीस वर्ष का जीवन बहुत बड़ा जीवन नहीं समझा जाता मगर अनुभवों की व्यापकता उम्र की न्यूनता पर भारी पड़ जाती है. कुछ ऐसा ही लिखने के दौरान हुआ. क्या लिखा जाये, क्या छोड़ा जाये? क्या दिखाया जाये, क्या छिपाया जाये? कितना सबके साथ बाँटा जाये, कितना अपने पास सुरक्षित रखा जाये? किसकी बात की जाये, किसकी बात न की जाये?

ऐसा होना स्वाभाविक था भी क्योंकि चालीस वर्ष की इस जीवन-यात्रा में इतने सारे अनुभव मिले जिनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. उम्र से अधिक अनुभव, घटनाएँ देखने के कारण ही मन में ख्याल आया आत्मकथा लिखने का. अच्छी घटनाएँ भी सामने आईं तो बुरी घटनाओं ने भी अपना रूप दिखाया. लोगों के विश्वास ने दिल जीता तो अपनों के अविश्वास ने अन्दर तक तोड़ा. मीठे अनुभवों ने ज़िन्दगी को स्वादिष्ट बनाया तो कड़वे अनुभवों ने ज़िन्दगी के इस स्वाद से भी परिचित करवाया. ये अपना-अपना देखने का नजरिया होता है. कोई कैसे भी देखता है, कोई कैसे भी देखता है. हमने किसी भी घटना से, किसी भी स्थिति से अपने आपको निपटने के लिए तैयार कर रखा था.

हर घटना ने कुछ न कुछ सिखाया ही है. इसके पीछे भी पारिवारिक परवरिश बहुत मायने रखती है. ज़िन्दगी में भले ही किसी बात की, किसी चीज की भरमार न रही हो, भले ही कमी न रही हो मगर यदि कभी सुख-संसाधनों की उपलब्धता न हो तो उनके बिना भी ज़िन्दगी को हँसी-ख़ुशी गुजारा जा सकता है, ये बचपन से ही सीखने को मिला. परवरिश इस तरह रही कि खुद ठोकर खाई और खुद सीखा. परिवार में भी इस तरह के उदाहरण सामने आते रहे, जिनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. आत्मविश्वास को प्रबल बनाकर कैसे विपरीत स्थितियों पर विजय पाई जा सकती है, ये भी परिवार से सीखने को मिला. 

युवावस्था में जबकि हॉस्टल में रहने का अवसर आया तो उस जीवन ने भी एक शिक्षक की भांति कार्य किया. रोज नया दिन, रोज नया अध्याय, रोज नई सीख. ज़िन्दगी भर के अनुभवों, ज़िन्दगी भर की सीखों में से चंद यादों को, चंद अनुभवों को सबके सामने रखना बहुत कठिन लगा. किसी एक घटना को लिखने बैठा जाता तो उससे सम्बंधित न जाने कितनी अन्य घटनाएँ सामने आकर खड़ी हो जातीं. जिस घटना को याद न करने की कोशिश की जाती वह हर बार पन्नों पर उतरने को आतुर दिखाई देती.

फिलहाल, छोटी सी ज़िन्दगी में जो बहुत कुछ देखा है, उससे सीखा है, उसको अपने तरीके से देखा है उसी को आपके सामने रखा है. जैसा कि पहले भी आप सबसे निवेदन किया था कि कुछ सच्ची कुछ झूठी आदर्शात्मक आख्यान नहीं है, किसी तरह का कोई प्रवचन नहीं है, किसी को राह दिखाने का कोई साधन नहीं है. हम तो इतनी ही कामना कर सकते हैं कि आपने हमारे इन अनुभवों को उतनी ही सहजता से स्वीकारा होगा, जितनी सहजता से हमने स्वीकार कर आपके सामने प्रस्तुत किया.

कुछ सच्ची कुछ झूठी ऐसे तमाम अनुभवों का आरम्भ है, इतिश्री नहीं. उम्र के इस पड़ाव पर आकर अपनी बात कहने का साहस किया है तो महज इस कारण कि बहुत कुछ है आप सबसे बांटने को. इसके बाद भी इसका ध्यान रखा गया कि ऐसे सत्य को उघाड़ने के प्रयास से बचना है जो किसी को परेशान कर जाए, किसी के जीवन में उथल-पुथल मचा जाए. 

तमाम कड़वे, खट्टे, बुरे अनुभवों के बाद भी खुद को सदैव सकारात्मक स्थिति में रखा है. ऐसा नहीं है कि हम रोये नहीं हैं, हमारे आंसू नहीं बहे हैं मगर जो स्थिति साथ वालों को कमजोर करे वह हमें कभी स्वीकार नहीं रही. इसी सोच के चलते आँसुओं को अपने भीतर ही बहाकर सबका स्वागत मुस्कुराकर, खिलखिलाकर किया गया. एक छोटी सी हँसी सबको सदैव प्रसन्न रखती है, सकारात्मकता का प्रसार करती है. सोचिये, इस सोच के साथ कैसे किसी के जीवन में बवंडर मचा दिया जाता, महज आत्मकथा में सत्य उघाड़ने की मंशा से. इसका अर्थ यह भी नहीं कि झूठ कहा गया है. झूठ कुछ नहीं है, बस लोगों की भावनाओं को हताहत होने से बचाने के लिए या तो वे घटनाएँ प्रस्तुत ही नहीं की गईं हैं और यदि दर्शायी भी गईं हैं तो उन पर मासूमियत का, काल्पनिकता का एक आवरण चढ़ा दिया गया है.

कुछ सच्ची कुछ झूठी तो एक आरम्भ है, अपने अनुभवों को, अपने जीवन को सार्वजनिक करने का. एक बार मन का संकोच मिट हो जाये, दिल का धड़का खुल जाए फिर सभी तरह के डर गायब हो जाते हैं. इस एक आरम्भ ने न जाने कितनी राहें खोल दी हैं. आने वाले समय में हमारे जीवन के और भी पक्ष अन्य रूपों में आपके सामने आयेंगे. हमारे आत्मीय, शुभचिंतकों के बारे में, हमारे मित्रों के बारे में, हमारी हॉस्टल लाइफ के बारे में, हमारी प्रेम-कहानियों के बारे में, हमारे सामाजिक-राजनैतिक जीवन के बारे में, हमको लेकर लोगों की सोच और लोगों को लेकर हमारी सोच के बारे में भी आने वाले समय में लिखा जायेगा.

बहुत से आत्मीयजन ऐसे हैं जिनका सन्दर्भ यहाँ किया जाना चाहिए था मगर कतिपय कारणोंवश ऐसा नहीं हो सका. आखिर सारी बातें यहीं कर ली जाएँगी तो आगे क्या कहा जायेगा. ये समापन नहीं, शुभारम्भ है. आप सभी के सहयोग बिना आगे बढ़ना संभव नहीं. आगे भी चलना आपके साथ होगा, अकेले नहीं. सो, आप सभी अपने विचारों, अपनी राय, अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य ही अवगत कराएँगे, ऐसा विश्वास है.

कुछ सच्ची कुछ झूठी की अगली कड़ी का इंतजार कीजिये. हमें खुद भी इंतजार है, अपने बारे में जानने का. शीर्षक क्या होगा, ये अभी संशय में है, कुछ सच्ची कुछ झूठी की तरह ही.

Wednesday, 27 February 2019

छोटी सी मगर बहुत बड़ी ज़िन्दगी


चालीस साल की ज़िन्दगी बहुत बड़ी नहीं कही जाती. इतनी बड़ी भी नहीं होती कि सारा अनुभव मिल सके तो इतनी छोटी भी नहीं होती कि कुछ सीखा भी न जा सके. समाज के बहुतेरे क्षेत्र ऐसे होते हैं जहाँ इस उम्र वालों को, इससे भी अधिक उम्र वालों को युवा कहा जाता है. हमने तो किसी भी समय अपने को उम्रदराज नहीं माना. हमारे साथ के अनेक मित्र आये दिन बातों-बातों में खुद को बुजुर्गियत की तरफ बढ़ना बताने लगते हैं. उनके ऊपर हँसते हुए हम खुद को आज के बीस-बाईस वर्ष के युवाओं से भी अधिक युवा समझते-मानते हैं. युवा होने में उम्र से अधिक दिल का महत्त्व होता है, दिल जवान तो हम भी जवान. 

इतनी उम्र में अन्य दूसरे लोगों का पता नहीं पर हमने अपनी ज़िन्दगी से बहुत कुछ सीखा है. लोगों को साथ आते देखा है, लोगों को साथ छोड़ते देखा है. बहुतेरे लोगों से प्रेम मिलते देखा है तो बहुत से लोगों से नफरत भी स्वीकार की है. बहुतों को नंगा होते देखा है, बहुतों को आवरण में देखा है. बहुतों को धोखा देते देखा है, बहुतों को साथ देते देखा है. कई नौजवानों को अपने हाथों जीवन की अधूरी यात्रा करते देखा है तो कई बुजुर्गों को इन्हीं हाथों में अपना जीवन पूरा करते देखा है. इन हाथों ने जाने कितनों की अंतिम यात्रा को अंतिम रूप दिया है तो इन्हीं हाथों ने अपने पिता को भी अग्नि की भेंट चढ़ाया है. न जाने कितना कुछ. बहुत कुछ कहा जाने योग्य, बहुत कुछ न बताये जाने लायक.

अपने इतने वर्षों का लेखा-जोखा सोचने लगते हैं तो लगता है कि जितना पाया है उससे कहीं अधिक खोया है. जीवन के खाते को घाटे में जाते देख कर उत्पन्न होने वाली घबराहट वाली स्थिति में जब जीवन के पन्ने उलटते हैं तो बहुत कुछ ऐसा मिलता है जिससे लगता है कि अपेक्षा से अधिक पाया है. अपना ही रूप कहे जा सकने वाले दोस्तों, परिजनों को पाया है. निपट अजनबियों को अपने पर जबरदस्त विश्वास करते पाया है. इसके बाद भी ऐसा अबूझ सा भी कुछ बना हुआ है कि बहुत से लोगों के दिल में अपना विश्वास जगा न सके हैं. ऐसे लोगों में परिजन, दोस्त, रिश्तेदार, सहयोगी, सोशल मीडिया के मित्र, सामाजिक क्षेत्र, राजनैतिक क्षेत्र, साहित्यिक क्षेत्र, कार्यक्षेत्र आदि के लोग शामिल हैं. कभी उन सभी पर बहुत गुस्सा आया करता था मगर दुनियादारी ने समझाया कि ये उनकी कमी नहीं, हमारी खुद की कमी है. अब लगता भी है कि वाकई कुछ कमी हममें ही है.

बहरहाल, कोई इंसान सम्पूर्ण नहीं होता, कोई अपने में परिपूर्ण नहीं होता. खुद की कमियाँ जानकर खुद को सुधारने का प्रयास है. जिनके अन्दर अपने प्रति विश्वास पैदा न कर सके, उनको अपना बनाने का प्रयास है. जो अपने हैं उन्हें अपने से दूर न होने देने की कोशिश है. सब इसी ज़िन्दगी में करना है क्योंकि ये ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा.

Saturday, 23 February 2019

समय के साथ यादें धुंधली नहीं होतीं


समय बहुत सी बातों को भुला देता है. बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो समय के साथ भले न भूली जाएँ मगर धुंधली हो ही जाती हैं. कहते भी हैं कि समय घावों को भर देता है. इसके बाद भी कुछ बातें, कुछ यादें ऐसी होती हैं जिनको समय भी धुंधला नहीं कर पाता है. वे मन-मष्तिष्क पर ज्यों की त्यों अंकित रहती हैं. वे यादें, वे बातें अक्सर, समय-असमय सामने आकर खड़ी हो जाती हैं. गुजरता समय लगातार गुजरता रहता है. इस समय-यात्रा में बहुत कुछ बदलता रहता है. कुछ नया जुड़ता है, कुछ छूट जाता है. इस जुड़ने-छूटने में, मिलने-बिछड़ने में सजीव, निर्जीव समान रूप से अपना असर दिखाते हैं. इस क्रम में बहुत सी बातें स्मृति-पटल का हिस्सा बन जाती हैं. कुछ अपने दिल के करीब होकर, दिल में बसे होकर भी आसपास नहीं दिखते. उनकी स्मृतियाँ, उनके संस्मरण उनकी उपस्थिति का एहसास कराते रहते हैं. यही एहसास उनके प्रति हमारी संवेदनशीलता का परिचायक है. बरस के बरस गुजरते जाते हैं, दशक के दशक गुजरते जाते हैं मगर इन्हीं स्मृतियों के सहारे लगता है जैसे सबकुछ कल की ही बात हो. ऐसा उस समय और भी तीव्रता से सामने आता है जबकि वह तिथि विशेष आँखों के सामने से गुजर जाए. 

23 फरवरी एक ऐसी ही तारीख है कि जब पीछे पलट कर देखते हैं तो लगभग दो दशक की यात्रा दिखाई देती है. इस तारीख से जुड़ी बातें स्वतः याद आने लगती हैं. बहुत कुछ स्मरण हो आता है. याद आता है बहुत से अपने लोगों का साथ चलना, बहुत से अपने लोगों का ही साथ होना. साथ होकर भी साथ न दिखना. साथ न दिखते हुए भी साथ रहना. ऐसे ही लोगों में एक हमारी अइया भी हैं. जी हाँ, अइया यानि कि हमारी दादी. इस तारीख को ही अइया हम सबको छोड़कर बहुत दूर चली गईं, जहाँ से न उनका आना संभव है और न हम लोगों का जाना. ये विधि का विधान है कि किसी को इस संसार में आना होता है और उस आने वाले को किसी न किसी दिन जाना होता है. अवस्था कैसी भी हो अपने सदस्य के जाने का दुःख होता ही है. अइया के जाने का दुःख तो था ही. संतोष इसका था कि उनके अंतिम समय में पूरा परिवार उनके सामने था, उनके साथ था, जैसा कि बाबा के साथ न हो सका था. 

अइया के चले जाने के लगभग दो दशक होने को आये मगर एक-एक घटना, एक-एक बात जीवंत है. उनके कमरे के साथ, उनके सामान के साथ, उनकी यादों के साथ. जिस दिन उनको पेंशन मिलती, हम तीनों भाइयों को वे कुछ न कुछ देतीं मगर उस नाती को कुछ ज्यादा धनराशि मिलती जो उनको लेकर जाता था. खाने-पीने को लेकर होती चुहल, उनके पुराने दिनों को लेकर होती बातें, उनकी कुछ बनी-बनाई धारणाओं पर हँसी-मजाक बराबर होता रहता, जो उनके बाद बस याद का जरिया है. 

अपने अंतिम समय तक वे इसे मानने को तैयार न हुईं कि सीलिंग फैन कमरे की हवा को ही चारों तरफ फेंकता है, उसमें किसी तरह का बिजली का करेंट नहीं होता है. वे अपनी त्वचा दिखाकर बराबर कहती कि ये पंखा बिजली से चलता है और बिजली फेंकता है. तभी हमारी खाल जल गई है. इसी तरह की धारणा रसोई गैस को लेकर बनी हुई थी. गैस की शिकायत होने पर वे कहती कि गैस की रोटी, सब्जी, दाल खाई जाएगी तो पेट में गैस ही बनेगी. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो अइया की याद में आये आँसुओं को मुस्कान में बदल देतीं हैं.

अइया की यादों के साथ-साथ इस दिन से जुड़ी याद है उस दिन मानसिक रूप से बहुत परेशान स्थिति में किसी अपने को फोन करना. अचानक उसे ही फोन क्यों? अचानक उसी की याद क्यों? अचानक उसी से बात क्यों? कोई पूर्वनियोजित नहीं, बस अचानक से फोन उठाया और उंगलियाँ उसका नंबर डायल करने लगीं. सामान्य सी बातें हुईं. उन दिनों अपनी हॉस्पिटल भागदौड़ वाली स्थिति को बताया, अपनी परेशानी को छिपाते हुए भी परेशानी को बताया. बहरहाल, इस तारीख के साथ याद यह भी बात आती है. ऐसा इसलिए भी बातचीत के चंद मिनट बाद ही हम अइया के पास हॉस्पिटल में थे. सामान्य से हँसी-मजाक के बीच उन्होंने अपनी मनपसंद गुझिया खायी और फिर अचानक ही दूसरे लोक की यात्रा के लिए जैसे चलने को तत्पर हो गईं. हम लोग बस देखते ही रह गए. ऐसा लगा जैसे वे अपनी विगत दस-बारह दिन की शारीरिक समस्या को जैसे एक झटके में दूर कर चुकी हैं. ऐसा लगा जैसे उन्हें सारे परिवार के एकसाथ होने का इंतजार था.

फ़िलहाल तो अइया को गए काफी लम्बा समय हो गया, उनकी कोई भी बात आज भी ज्यों की त्यों दिल-दिमाग में बसी है. आज उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धासुमन अर्पित हैं.

Tuesday, 19 February 2019

आकर्षक व्यक्तित्व के लोगों से मिलना, न मिल पाना


राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, खेलकूद, फिल्म आदि ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ व्यक्ति बहुत जल्दी जनमानस के दिल-दिमाग में छा जाता है. कोई-कोई व्यक्ति तो अपने प्रशंसकों के बीच भगवान के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है. बहुत से प्रशंसकों को इनके लिए दीवानगी की हद तक पागल होते देखा है. हमारे सामने भी अनेक क्षेत्रों में अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनके हम प्रशंसक रहे हैं, आज भी हैं. ऐसे व्यक्तित्वों से मिलने की इच्छा रही, आज भी है. कुछ लोगों से मिलना संभव हो गया. कुछ लोगों से अब कभी मिल पाना संभव नहीं. कुछ लोगों से मिलने की इच्छा अभी है, कोशिश है कि जल्द से जल्द उनसे मुलाकात कर ली जाये. अटल बिहारी वाजपेयी, इंदिरा गाँधी, बाल ठाकरे, कपिल देव, अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित आदि नाम ऐसे हैं जिनसे मिलने की इच्छा रही. इंदिरा जी से मुलाकात भले न हो पाई हो पर उनको देखने-सुनने का अवसर बहुत नजदीक से मिला. अटल जी से मिलना कॉलेज टाइम में हुआ था.   

आज भी याद है हास-परिहास के उसी चिर-परिचित अंदाज में उनका बोलना. उनके चरणों का स्पर्श, उनका प्यार से सिर पर हाथ फिराना. खुश रहो का आशीर्वाद देना. ग्वालियर के शैक्षिक प्रवास के दौरान अनेकानेक गतिविधियों में सहभागिता बनी ही रहती थी. ऐसी ही एक सहभागिता के चलते पता चला कि अटल जी का एक कार्यक्रम है. हम हॉस्टल वालों को कुछ जिम्मेवारियों का निर्वहन करना है. कोई मंच की व्यवस्था में, को खानपान की व्यवस्था में, कोई जलपान की व्यवस्था में, कोई यातायात की व्यवस्था में लगा हुआ था. सहज आकर्षित करने वाले, सम्मोहित करने वाले, मुस्कुराते चेहरे के साथ अटल जी मंचासीन हुए.

अटल जी से मिलने का लोभ हम हॉस्टल के भाइयों में था. व्यवस्था हमारे ही हाथों थी सो कभी कोई किसी बहाने मंच पर जाता, तो कभी कोई किसी और बहाने से. आज की तरह कोई तामझाम नहीं, कोई अविश्वास नहीं, फालतू का पुलिसिया रोब नहीं. मंचासीन अतिथियों से मिलने का सबसे आसान तरीका था पानी के गिलास पहुँचाते रहना. तीन-चार बार की जल्दी-जल्दी पानी की आवाजाही देखने के बाद अटल जी ने मुस्कुराते हुए बस इतना ही कहा कि क्या पानी पिला-पिलाकर पेट भर दोगे? भोजन नहीं करवाओगे? अपने पसंदीदा व्यक्ति से बातचीत का अवसर, बहाना खोजते हम लोगों से पहला वार्तालाप इस तरह मजाकिया, सवालिया अंदाज में हो जायेगा, किसी ने सोचा न था. हम सब झेंपते हुए मंच से उतर आये मगर कार्यक्रम के बाद भोजन के दौर में खूब बातें हुईं. खुलकर बातें हुईं.   

ऐसी ही आकर्षित करने वाली व्यक्तित्व की धनी थीं हमारी बुआ विजयाराजे सिंधिया. बचपन में बुआ जी के उरई आने पर मिलना हुआ मगर दो-चार बार ही. बाद में ग्वालियर में स्नातक की पढ़ाई के दौरान उनसे खूब मिलना हुआ. ग्वालियर आने पर वे अक्सर बुलवा लेती थीं और फिर उरई के, घर के हालचाल विस्तार से लेती थीं. उनसे मिलने के बाद अपार ऊर्जा का संचार हो जाता. वे भले ही हमारी बुआ जी बनी रहीं मगर सादगी और जनसेवा के चलते जन-जन ने उनको राजमाता के रूप में स्वीकार किया था.

बाल ठाकरे और अमिताभ बच्चन से मिलने की लालसा उस समय और तीव्र हो गई जबकि अपनी छोटी बहिन पूजा (पुष्पांजलि राजे) के पास मुंबई जाना हुआ. पारिवारिक यात्रा के दौरान मुंबई में घूमना भी हुआ मगर इन दो शख्सियतों से मुलाकात संभव न हो सकी. समय का चक्र कुछ ऐसा गुजरा कि बाल ठाकरे से मिलना हो ही नहीं सका. 

समय के साथ बहुत से लोगों से मुलाकात हुई, अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज व्यक्तित्वों से मिलना हुआ, उन्हें सुनना हुआ. कुछ लोग सहजता से मिले, कुछ बड़ी जटिलता के दर्शन करवा गए. मिलने-जुलने के क्रम में इक्का-दुक्का लोग ही ऐसे रहे जिनसे मिलना सुखद लगा. उनके साथ फोटो खिंचवाने का, उनके ऑटोग्राफ लेने का मन हुआ. हाल-फ़िलहाल लालकृष्ण आडवाणी जी से मिलने की इच्छा है. देखना है कि ये इच्छा कब पूरी होती है.  

Saturday, 26 January 2019

दोस्तों की दोस्ती का अपना ही नशा है


चार दशकों की जीवन-यात्रा के बाद पलट कर देखते हैं तो बहुत से पलों का साथ रहना दिखता है. बहुत से अवसरों का पीछे छूट जाना दिखाई देता है. अनेकानेक जाने-अनजाने लोगों से मिलना-बिछड़ना इस यात्रा में बना रहा. हँसना-मुस्कुराना, लड़ना-झगड़ना, तर्क-वितर्क के न जाने कितने पड़ावों के बीच लोगों का साथ मिलता रहा, बहुतों का साथ छूटता रहा. इस यात्रा में अच्छे-बुरे, कड़वे-मीठे अनुभवों का स्वाद चखने को मिला. सपनों का बनना-बिगड़ना बना रहा, वास्तविकता और कल्पना की सत्यता का आभास होता रहा. कई बार जीवन एकदम सरल, जाना-पहचाना लगता तो कई बार अबूझ पहेली की तरह अनजाने रूप में सामने खड़ा हो जाता. अपनी होकर भी बहुत बार यह जीवन-यात्रा अपनी सी नहीं लगती. ऐसा लगता कि चमकती धूप में भी स्याह अँधेरा चारों तरफ हो. चाँदनी बिखरी है मगर उसमें भी तपन महसूस होती. सर्वत्र ख़ुशी के झरने झर रहे हैं पर हम उसमें भीग नहीं पा रहे हैं. सुखों की चादर फैली हुई है पर उसके साये में खुद को खड़ा नहीं कर पा रहे हैं.

यही इस जीवन-यात्रा की अनिश्चितता थी कि जो पल अभी-अभी नकारात्मक सन्देश लेकर आया था, वह अपने साथ सकारात्मकता की चिट्ठी लेकर भी आया था. खाली हाथ होते हुए भी समूची दुनिया मुट्ठी में होने का एहसास खुद को सर्वोच्च पायदान पर ले जाता. तन्हाई के बीच अपना कद ही अनेकानेक व्यक्तित्वों का निर्माण कर मधुर कलरव बिखेरने लगता. अंधेरों के सामने दिखने पर उसको अपने भीतर समेट सबकुछ रौशनी में बदल देने की शक्ति भी प्रस्फुटित होने लगती.

ऐसा क्यों होता है? कब होता है? किस कारण होता है? न जाने कितने सवालों के दोराहों, तिराहों, चौराहों से गुजरते हुए भी यदि कोई जीवन-शक्ति सदा साथ रही तो वह थी हमारे दोस्तों की शक्ति. किसी मोड़ पर अकेलेपन का एहसास यदि किसी ने न होने दिया तो वो था हमारे दोस्तों का साथ. अनेक असफलताओं का सफलता में बदलने का ज़ज्बा विकसित करने वाला कोई था तो वो था दोस्तों का साहचर्य.

ऐसे बहुत सारे दोस्तों में हमारी त्रिमूर्ति अश्विनी उर्फ़ बबलू, अभिनव और संदीप का स्थान सबसे अलग है. इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद सभी को आश्चर्य हुआ हो कि इन तीनों के बारे में यहाँ कुछ अलग से नहीं लिखा गया. हो रहा है न आपको आश्चर्य? इनके लिए अलग से कैसे कुछ लिखा जा सकता है जबकि ये हमसे अलग हैं ही नहीं. हमारे नामों में अंतर है, देखने में हमारे रंग-रूप, कद-काठी अलग हैं मगर आत्मिक रूप से हम एक ही हैं. क्या-क्या लिखें इनके बारे में? क्या-क्या छोड़ें इनके बारे में? हफ़्तों, महीनों न मिलने के बाद भी ऐसी कोई बात नहीं होती जो हमारे बीच आपस में शेयर न होती हो. अच्छा या बुरा कैसा भी समय रहा हो हम किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के साथ बराबर रहे, लगातार रहे.

शादी के पहले की मुलाकातों में अक्सर हम सब इसके लिए चिंतित रहते कि हमारे आने वाले जीवनसाथी हमारे संबंधों का निर्वहन किस तरह से करेंगी? जिस तरह की आत्मीयता हम सबमें आपस में है, क्या वो बनी रहेगी? ऐसी सोच अक्सर हमारी तरफ से ही उछाली जाती और इसका कारण भी हम ही रहते. अपने मजाकिया, कुछ भी कह देने (जिसे आम बोलचाल भाषा में मुंहफट कहा जा सकता है) वाले स्वभाव के चलते हमें स्वयं इसकी चिंता लगी रहती.

कालांतर में सभी की शादी हुई, परिवार का विकास हुआ मगर हम सब आज भी उसी तरह आत्मीय रिश्ते के साथ जुड़े हुए हैं. सबकी पारिवारिक जिम्मेवारियाँ जहाँ की तहाँ और हमरा दोस्ती भरा रिश्ता भी जहाँ का तहाँ. इसके पीछे उन तीनों के जीवनसाथियों क्रमशः गुंजन, नम्रता और सारिका का महत्त्वपूर्ण योगदान है, सहयोग है. हमारा मजाक वैसे का वैसा है, हमारा स्वभाव ज्यों का त्यों है और हम सबके रिश्ते, सम्बन्ध भी ज्यों के त्यों हैं. पारिवारिक रूप से हम सभी आज भी एकसूत्र में बंधे हुए हैं. ऐसे में उन तीनों को एक पुस्तक में समेट पाना हमें अपने वश के बाहर की बात लगी. सच कहा जाये तो उन तीनों सहित अपने दोस्तों के बारे में यदि लिखना शुरू किया जाये तो उसके लिए एक नहीं कई पुस्तकों की रचना करनी पड़ेगी. कुछ सच्ची कुछ झूठी लिखने के साथ ही इस पर भी विचार बना था, जिसे यथाशीघ्र साकार किया जायेगा.

यह हमारी खुस्किस्मती है कि दोस्तों का मिलना हर स्थिति में हुआ. हर परिस्थिति में हुआ. कोई बचपन में स्कूल से मित्र बना तो कोई कॉलेज की शिक्षा के दौरान संपर्क में आया. किसी से उच्च शिक्षा के दौरान बनी मित्रता अभी तक चल रही है तो किसी से सामाजिक कार्यों के दौरान हुआ संपर्क आज तक गहरी दोस्ती के रूप में विद्यमान है. हॉस्टल जीवन में बहुत से मित्रों का आना हमारे जीवन में हुआ. इसमें बहुत से बड़े भाई की तरह अपना आशीर्वाद, स्नेह हम पर लुटाते हैं तो कुछ छोटे भाई की तरह हमें सम्मान देते हैं और कुछ मित्र तो आज भी उसी तरह की बदतमीजियों के साथ हमारे दिल-दिमाग में बसे हैं, जिन बदतमीजियों के साथ हॉस्टल के समय में घुस गए थे.

स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल में साथ पढ़ने-रहने के कारण गहरी मित्रता होना स्वाभाविक सी बात है मगर बहुत से मित्र ऐसे हैं जिनसे अल्पकालिक संपर्क हुआ मगर सम्बन्ध दीर्घकालिक, स्थायी बन गए हैं. वे सभी आज भी नियमित संपर्क में हैं. हाँ जी, आपके सवाल दागे जाएँ उससे पहले हम ही बताये देते हैं कि हमारी दोस्ती के इस घेरे में लड़के भी शामिल हैं, लड़कियाँ भी शामिल हैं. अपनी दोस्ती के कैदखाने में कैद करने वाले बहुत सारे मित्र आज भी लगातार हमारे साथ बने हुए हैं. यहाँ सभी को नाम से इंगित न कर पाने की अपनी विवशता है. इसे हमारे सभी मित्रवर समझेंगे और नजरअंदाज करते हुए अपनी दोस्ती से हमेशा की तरह सराबोर करेंगे.

बहरहाल, पुराने दोस्तों की दोस्ती हमेशा पुरानी शराब सा मजा देती रही. नए-नए मित्र अपने नए-नए रंग के साथ इसमें शामिल होकर दोस्ती के नशे को और नशीला बनाते रहे.

Saturday, 12 January 2019

अपनों के पदचिन्हों पर चलने का सुखद एहसास


हमारा प्राथमिक विद्यालय यद्यपि कक्षा आठ तक था किन्तु घर में सभी का निर्णय हुआ कि कक्षा छह से आगे की पढ़ाई के लिए हमारा एडमीशन राजकीय इंटर कॉलेज में करवाया जाये. पुराना चिरपरिचित स्कूल, दोस्त, शिक्षक छूटने का बुरा लग रहा था साथ ही नए स्कूल में जाने की ख़ुशी भी हो रही थी. इसके बीच जीआईसी में एडमीशन को लेकर गर्व मिश्रित ख़ुशी का एहसास भी हो रहा था. ऐसा इसलिए महसूस हो रहा था क्योंकि जीआईसी के आरम्भिक स्वरूप में संचालित स्कूल में हमारे बाबा जी ने भी अध्ययन किया था. उनके समय यह इंटरमीडिएट तक न होकर मिडिल तक ही संचालित होता था. बाबा जी के बाद उसी जीआईसी में हमारे सबसे छोटे भैया चाचा (श्री धर्मेन्द्र सिंह सेंगर) और हमारे बैंगलोर वाले मामा (श्री सुन्दर सिंह क्षत्रिय) ने भी पढ़ाई की थी. ऐसे विद्यालय में अपने पढ़ने का सोचकर ही प्रसन्नता हो रही थी, जहाँ हमारे पूर्वज अध्ययन कर चुके थे. उस समय जीआईसी में प्रवेश परीक्षा के आधार पर एडमीशन मिला करता था. 

प्रवेश परीक्षा देने जाने पर पहली बार जीआईसी की भव्य इमारत को देखा. अंग्रेजी वास्तुकला का प्रतीक वह बुलंद इमारत अपनी भव्यता के साथ सबको एक नजर में सम्मोहित कर जाती थी. हमें भी उसका सम्मोहन अपनी तरफ खींच रहा था मगर एक गौरव के साथ, एक आशीर्वाद के साथ, अपनत्व की भावना के साथ. इमारत में घुसते हुए अपने ही घर में पहुँचने जैसा गौरवान्वित करने वाला एहसास हुआ. ऐसा लगा था जैसे यहाँ से शिक्षित हुए हमारे परिवार के लोग हमें अपना आशीर्वाद दे रहे हों. 

प्रवेश परीक्षा देने के बाद, जब तक पिताजी लेने नहीं आये तब तक पूरी इमारत का एक चक्कर लगाकर, उसकी दीवारें छू-छूकर अपने बुजुर्गों की उपस्थिति को महसूस करने का प्रयास किया. बड़े-बड़े कमरे, बड़ा सा हॉल, खूब लम्बा-चौड़ा मैदान, हरी-भरी बगिया, घने छायादार वृक्ष सब मन मोहने में लगे थे. उस छोटी सी अवस्था में सबको छू-छूकर उनमें महसूस होती अपनों की छवि-खुशबू से एकरूप होने का प्रयास किया. प्रवेश परीक्षा का परिणाम आया और हम वहां के लिए चयनित हो गए. हमारी ख़ुशी की सीमा न रही. 

कक्षा छह से इंटरमीडिएट तक जीआईसी हमारी शिक्षा का केंद्र रहा. वहाँ चयनित होने, प्रवेश लेने की ख़ुशी उस समय और बढ़ गई जबकि पुराने स्कूल के कुछ मित्रों ने भी वहां प्रवेश पा लिया. समय के साथ जीआईसी ने भी बहुत से दोस्त दिए. कुछ पढ़ाई तक साथ रहने के बाद दूर हो गए, कुछ आज तक साथ हैं और कुछ तो परिवार का हिस्सा ही बन गए हैं. समय के साथ आगे बढ़ते रहने, दोस्तों के साथ आगे बढ़ते रहने ने हमारी ज़िन्दगी को और जीवंत बनाया है.

Friday, 11 January 2019

लरिकाई को प्रेम कहौ अलि कैसे छूटत


प्यार, इश्क, प्रेम, दीवानगी, आकर्षण आदि शब्दों का बचपने से कोई तारतम्य नहीं होता है. इन कोमल शब्दों को भारी-भरकम बनाने में समाज के उन लोगों की मुख्य भूमिका होती है जो खुद को बुद्धिजीवी घोषित किये रहते हैं. बचपन तो इन शब्दों की सांसारिक, बौद्धिक परिभाषाओं से इतर अपनी बालसुलभ चंचलता, चपलता से इन्हें संवारता रहता है. उस उम्र में न शारीरिक आकर्षण, न वैचारिक तालमेल, न बौद्धिक विमर्श का भाव रहता है, बस सहगामी क्रियाओं में अपने दोस्तों का साथ ही प्यार, इश्क, दीवानगी माना-समझा जा सकता है. इसमें तब न समलिंगी का प्रभावी होना होता था न ही विपरीतलिंगी का. हमारे साथ भी, हमारी कक्षा में भी ऐसा कुछ था.

छोटे कद की, दुबली-पतली सी लड़की, रंग साफ़, गोल चेहरा, पढ़ने में तेज, दोस्ती करने में आगे. कक्षा में बच्चों की कम संख्या होने के कारण सभी बच्चे शिक्षिकाओं की निगाह में बने रहते थे. इसमें भी कुछेक अपनी सक्रियता से कुछ ज्यादा ही निगाह में बने हुए थे. ऐसे ही चंद बच्चों में वो लड़की भी शामिल थी. परीक्षाओं में, कक्षा में होते टेस्ट में हम दोनों में दौड़ चलती रहती. कभी वो आगे, कभी हम. किसी विषय में वो तेज, किसी में हम. वो सुरीली आवाज़ में गीत गाने में माहिर तो हम जोशीले भाषण देने में पारंगत. कुल मिलाकर एक स्वस्थ प्रतियोगिता होने के साथ-साथ गहरी दोस्ती. कक्षा मॉनिटर से लेकर कई-कई कार्यों में हम दोनों का साथ रहता. मौज-मस्ती, शरारतें-शैतानियाँ एकसाथ स्कूल प्रांगण में टहलती-घूमती दिखतीं. 

दोस्ती का वो छोटा सा सफ़र स्कूल से निकलने के बाद बहुत आगे तक नहीं चला. स्कूल अलग हुआ, विषय बदल गए और उसी के साथ रास्ते भी अलग-अलग हो गए. इसके साथ ही तब के उरई जैसे छोटे शहर की सोच को भी आज बखूबी समझा जा सकता है. कभी-कभार रास्ते चलते, स्कूल से आते-जाते मुलाकात हो जाती तो हाय-हैलो हो जाती. मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता बस. उसका लड़की होना, माता-पिता का सख्त अनुशासन उसे भयभीत किये रहता. हमारी अंतिम मुलाकात हमारे स्नातक अध्ययन के दौरान हुई. चूँकि आपस में कभी प्रेम, इश्क जैसी भावना पली नहीं सो न कभी पत्रों का आदान-प्रदान हुआ. मोबाइल का जन्म उस ज़माने में हुआ भी नहीं था सो न सोशल मीडिया, न कोई मैसेज. वेलेंटाइन डे का पारा भी बहुत बाद में चढ़ना शुरू हुआ, सो दोस्ती से आगे की बात को सोचा भी नहीं गया, न गिफ्ट उपहारों का लेना-देना हुआ.

पता नहीं ऐसी कोई बात बनती भी? पता नहीं दोस्ती का सफ़र किसी और रूप में आगे बढ़ता भी? पता नहीं, के अनिश्चय के साथ वो हमेशा को शहर को छोड़ गई. कहाँ? पता नहीं. किसी से पूछा भी नहीं. आखिर पूछते भी किससे? आखिर पूछते भी क्या? बस याद अब भी है. छवि अब भी बसी है. और यदि यही प्रेम है तो कह सकते हैं कि लरिकाई को प्रेम अलि कहो कैसे छूटे!


Saturday, 5 January 2019

बहती आँखें उसे जाते हुए देखती रहीं


मुलाकात जब पहली बार हुई तो न फिल्मों की तरह पहली नजर वाला आकर्षण उभरा, न पहली नजर के प्रेम जैसा कुछ एहसास हुआ. हाँ, एक तरह का आकर्षण उसके प्रति महसूस हुआ था. उससे मिलना अच्छा सा, सुखद सा लगा था. कुछ दिनों की कुछ मुलाकातें जो हँसी-मजाक के साथ ख़तम हो गईं. हम दोनों की अपनी-अपनी राहें थीं, अध्ययन वालीं, सो आगे चल दिए. पढ़ने को, डिग्री लेने को. पर वो कहते हैं न कि दुनिया गोल है, किसी न किसी दिन फिर मिलते हैं. हम दोनों फिर मिले, अबकी कुछ साल बाद मिले.

पहली बार की मुलाकात के समय के मुकाबले अबकी मुलाकात में हम दोनों कुछ परिपक्व भी थे. इस परिपक्वता में भी पहली नजर के आकर्षण जैसा कुछ न हुआ, न इधर, न उधर. इसके बाद भी वही आकर्षण समझ आया जो पहली मुलाकात में लगा था. वैसा ही अच्छा लगने जैसा, वैसा ही सुखद एहसास जागा था जैसा कि पहली मुलाकात में जागा था. इसके बाद मुलाकातें हुई, कई बार हुईं, नियमित न सही मगर जल्दी-जल्दी हुईं. वैचारिकता के अपने-अपने धरातल निर्मित हो चुके थे. सोचने-समझने की मानसिकता भी विकसित हो चुकी थी. क्या सही है, क्या गलत है की दृष्टि विकसित हो चुकी थी.

ऐसा भी नहीं कि सौन्दर्य बोध का अभाव रहा हो. आँखों में चुम्बकीय आकर्षण, चेहरे पर प्राकृतिक मुस्कान, सादगी का प्रतिरूप. इसके बाद भी महज शारीरिक आकर्षण जैसा कुछ नहीं था. इसका कारण यही रहा कि उसे कभी भी देह के मापदंडों पर नहीं आँका. बहरहाल, समय गुजरता रहा, मुलाकातें चलती रहीं मगर ख़ामोशी उसी तरह बनी रही. उस ख़ामोशी के साए में कुछ स्वर गूँजे. कुछ कहने का प्रयास हुआ.

उस शाम उससे पहली बार मिलना तो हो नहीं रहा था. पहले भी कई-कई बार मुलाकात हो चुकी थी. मिलना-जुलना भले नियमित नहीं होता रहा किन्तु होता रहा था. आपस में बातचीत, हँसी-मजाक, छेड़छाड़, गपशप होती रहती थी किन्तु उस शाम की मुलाकात ने दिल को झंकृत कर दिया. समझ नहीं आ रहा था कि ये प्यार है या फिर जब पहली बार मुलाकात हुई थी, तब जो आकर्षण जागा था, वो प्यार था

बेधड़क किसी से भी कुछ भी कह देने की सामर्थ्य कहीं चुकती सी लगने लगी. बहती नदी के धारे संग-संग भावनाएं बन रही थीं, दोस्त की बाँह थामे हिम्मत बटोरने की कोशिश की जा रही थी. अंततः बहती आँखें उसे जाते हुए देखती रहीं और कभी उसका कहा सत्य साबित हुआ कि आँसू सँभाल कर रखिये, किसी दिन हमारे लिए भी बहाने पड़ेंगे.