Monday, 28 December 2015

हॉस्टल का वो पहला दिन


पढ़ना भी अपने आपमें एक समस्या होती है. क्या पढ़ना है, कहाँ पढ़ना है, क्यों पढ़ना है आदि-आदि सहित और भी न जाने कितने सवाल. अब धरती पर आये, पढ़े-लिखे परिवार में आये तो यकीनन पढ़ना हमारी भी जिम्मेवारी बनती थी. सो पढ़े, मन लगाकर पढ़े और पास हो गए इंटरमीडिएट. पहले तो हाईस्कूल के बाद समस्या उठी थी कि क्या पढ़ना है? अब इंटरमीडिएट पास कर लिया तो फिर वही समस्या खड़ी हो गई कि क्या पढ़ना है, कहाँ पढ़ना है. अब आगे क्या पढ़ा जाये, कहाँ पढ़ा जाये, क्यों पढ़ा जाये जैसे सवालों से जूझते हुए हमने एलान सा कर दिया कि उरई के डी०वी० कॉलेज में नहीं पढ़ेंगे. इसका कारण था उस समय वहाँ बेहिसाब नक़ल का होना. यहाँ हमारा ऐलान हुआ, उधर पिताजी ने भी लौटती डाक की तरह से निर्णय सुना दिया कि उरई नहीं पढ़ना, तो क्या विदेश जाओगे पढ़ने? इस सम्पुट के कुछ अन्तराल बाद सुखद संदेशा फिर सुनाई दिया, ग्वालियर करवा देते हैं एडमीशन. 

कुछ आवश्यक भागदौड़ के बाद हमारा एडमीशन ग्वालियर में हो गया. अरे जी! ग्वालियर किसी संस्था का नाम नहीं है, ग्वालियर शहर के साइंस कॉलेज में हमारा एडमीशन हो गया, बी०एस-सी० में. पढ़ने का बंदोवस्त किया गया तो रहने की व्यवस्था भी की गई. हमारे सबसे छोटे चाचा यानि कि हम सबके भैया चाचा जो उनके भारतीय स्टेट बैंक वालों के लिए श्री धर्मेन्द्र सिंह सेंगर थे, उस समय ग्वालियर में ही रह रहे थे. उनके यहाँ रहने की व्यवस्था की बजाय कॉलेज के हॉस्टल को वरीयता दी गई. कॉलेज के एडमीशन होते ही हॉस्टल में भी प्रवेश मिल गया.

कॉलेज, हॉस्टल, रैगिंग, सीनियर्स आदि के डर को अपने में समेटे पहले दिन हमने पिताजी और चाचा जी की छत्रछाया में हॉस्टल की उस देहरी का स्पर्श किया जो आने वाले सालों में हमारी अत्यंत प्रिय जगह बन गई. हॉस्टल प्रवेश द्वार पर सबसे पहली मुलाकात हुई बी०एस-सी० प्रथम वर्ष के छात्र अनुराग से. फलों के स्वाद के साथ मित्रता की मिठास का शुभारम्भ हुआ, जो आजतक अपना मीठापन बनाये हुए है. अनुराग ने हमसे कुछ दिन पहले ही हॉस्टल में प्रवेश लिया था. उसकी रैगिंग भी हो चुकी थी. जब उसने अपनी रैगिंग के किस्सों की, हॉस्टल के सीनियर्स के व्यवहार की चर्चा की तो हमारी जान में जान आई. जहाँ एक तरफ हमारे भीतर का डर दूर जाता दिखा वहीं दूसरी तरफ पिताजी-चाचा जी भी संतुष्ट दिखे.

हॉस्टल का वह पहला दिन अत्यंत खुशनुमा बीता. पहले दिन ही सीनियर्स से बड़े भाइयों जैसा स्नेह मिलना इतना शुभ रहा कि पूरे तीन वर्ष निसंकोच, निर्द्वन्द्व, बेफिक्र होकर कब बीत गए पता ही नहीं चला. अपने सीनियर्स, सहपाठी तथा जूनियर्स भाइयों का इतना सहयोग, स्नेह, प्यार रहा कि आज भी उस हॉस्टल लाइफ में वापस जाने का मन करता है.


Saturday, 26 December 2015

वीडियो चलवाना भी सामूहिक पर्व हुआ करता था

बड़ा सा टीवी जो लकड़ी के बक्से में बंद. काले-सफ़ेद, झिलमिल करते चित्र, एक जगह स्टैंड पर रखा, छत पर लगे हवाई जहाजनुमा एंटीना के तार से बंधा. अभी इस आश्चर्य से पूरी तरह मुक्ति भी न पा सके थे कि वीडियो के अवतार ने रोमांचित कर दिया. काले-सफ़ेद की जगह रंगीन चित्र. बड़े से भारीभरकम एंटीना का कोई चक्कर नहीं. किसी एक घर की जागीर नहीं, आज इसके घर तो कल उसके घर.

पूरे मोहल्ले में जोश भर जाता था. आज कोई व्यक्ति वीडियो चलवा रहा है तो कल कोई दूसरा व्यक्ति. आज बरगदिया तरे (नीचे) तो कल पीली कोठी पर पाखर के पेड़ के नीचे. बरगदिया हमारे पाठकपुरा मोहल्ले में वो प्रसिद्द जगह थी जहाँ एक विशालकाय बरगद का पेड़ लगा हुआ था. ये वृक्ष आज भी उसी तरह मौजूद है. उसके किनारे एक मंदिर और आसपास मकान बने हुए थे. ये जगह हम बच्चों के खेलने-कूदने की जगह हुआ करती थी तो बड़ों के विमर्श का मंच. सभी लोग उस जगह को बरगदिया तरे अर्थात बरगद के पेड़ के नीचे से ही जानते-पहचानते-संबोधित करते थे. हाँ, तो बात हो रही थी वीडियो की. किसी दिन सामूहिक चंदा करके वीडियो चलता तो किसी दिन कोई अपनी रईसी दिखाते हुए सारा खर्चा खुद ही करता.

मोहल्ले में लगभग रोज ही वीडियो पर फिल्मों का चलना होता किन्तु हम भाइयों को किसी-किसी दिन ही विशेष परिस्थितियों में, कुछ शर्तों के अनुपालन के बाद किसी बड़े के संरक्षण में फिल्म देखने को मिल पाती. ऐसी सुविधा भी हमें दिखाई जाने वाली फिल्मों के चरित्र के आधार पर उपलब्ध करवाई जाती थी.  ऐसी अनुशासनात्मक बंदिशों के बाद भी कई बार चोरी से फिल्मों का दिख जाना हो जाता था. ऐसा गर्मियों की रातों में ही हो पाता था जबकि रात में छत पर सोने के दौरान आसपास के घरों की छतों पर चलते वीडियो हमें भी लाभान्वित कर जाते. चारपाई को अपने छत की छोटी सी चहारदीवार के सहारे टिका कर उसी पर बैठकर वीडियो क्रांति का चोरी-चोरी लाभ उठा लेते.

वीडियो के उस क्रांतिकारी प्रदर्शन के दौर में मोहल्ले के बच्चों में फिल्म देखने की प्रतियोगिता सी चल पड़ी. कौन सी फिल्म कितनी बार देखी गई, इस बात को लेकर आपस में होड़ लग गई. शहंशाह, नगीना, शराबी, संतोषी माता, प्रेम रोग जैसी फिल्मों को कुछ बच्चों द्वारा पंद्रह-बीस बार देखने का ऐलान सा कर दिया गया. उधर मोहल्ले के बच्चों की फिल्म देखने की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी और इधर हमारे खाते में सीमित संख्या बनी हुई थी. पारिवारिक अनुशासन और माहौल का नुकसान भले ही ये रहा हो कि मोहल्ले के बच्चों के साथ फिल्मों की संख्यात्मक प्रतियोगिता में हम फिसड्डी बने रहे पर गुणात्मक रूप में अपने समय की बेहतरीन फ़िल्में देखने का अवसर हमको बचपन में ही मिल गया था. फिल्म जगत के तमाम नामचीन कलाकारों द्वारा अभिनीत बेहतरीन फिल्मों को देखने का मौका मिला. उनमें से बहुत सी फ़िल्में तो समझ आ जाती और बहुत सी ऐसी होती जिन्हें बस देखते ही रहते, देखते ही रह जाते. तब देखते रह जाने वाली ऐसी फिल्मों का अर्थ, उनके कथ्य को अब जाकर समझा.

Monday, 30 November 2015

किसी अजूबे से कम न था टीवी

बचपन का वो दौर सिर्फ मौज-मस्ती का दौर, शरारतों का दौर, शैतानियों का दौर था. आज की तरह न घुटन भरा माहौल, न आज की तरह पढ़ाई का अनावश्यक बोझ. बचपन का अर्थ तब विशुद्ध बचपन ही होता था. मासूमियत, भोलापन, नादानी से सजा-संवरा बचपन. आज के बच्चों की तरह गैजेट्स से सुसज्जित नहीं था सो आज के बच्चों की तरह बुजुर्गियत भी नहीं थी. तब कोई भी नई चीज कौतूहल का केंद्र हुआ करती थी. घर की साइकिल कौतुहल थी, तो वकील बाबा की एम्बेसडर कार भी आश्चर्य थी. घर में जालीदार एंटीना लगा रेडियो अचरज की विषय-वस्तु थी तो टीवी महाअजूबा के रूप में प्रकट हो गया. 

घर में रेडियो था, जो किंचित आरम्भिक आश्चर्यबोध के पश्चात् गर्व की अनुभूति करवाने लगा. इसके पीछे कारण ये था कि तब मोहल्ले में आसपास रेडियो न के बराबर थे. एक ऐसे डिब्बे के बीच जिसमें बोलने-गाने वाला दिखाई नहीं दे रहा हो कोई ऐसा बड़ा डिब्बा देखने को मिल जाये जिसमें गाने वाले, बातचीत करने वाले सामने दिख रहे हों तो उसे दुनिया का अजूबा ही समझा जायेगा. इतने छोटे से डिब्बे में कैसे घुसे होंगे ये लोग? इतने छोटे से डिब्बे में इतने सारे लोग आये कैसे होंगे? जो लोग दिख रहे, उनके अलावा बाकी लोग कहाँ छिपे हैं? जिस दिन पहली बार टीवी देखा, ऐसे न जाने कितने सवाल दिमाग में आते रहे और दिमाग को चकराते रहे. खुद से ही सवाल करते रहे, खुद को ही जवाब देते रहे. ये शायद 1977-78 की बात होगी, हमारे सबसे बड़े चाचा श्री नरेन्द्र सिंह सेंगर, हम लोगों के मन्ना चाचा तब कालपी में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारत थे. हमारा बहुत सारा समय मन्ना चाचा के साथ गुजरा. उरई से बहुत पास होने के कारण या तो चाचा परिवार सहित उरई आ जाते या फिर हम लोग चाचा के पास पहुँच जाते.

चाचा के पास कालपी जाने पर वहीं इस बुद्धू बक्से से परिचय हुआ. चाचा जी के मकान मालिक अपने समय के धनाढ्य व्यक्तियों में माने जाते थे. उनको हम बच्चे ताऊजी-ताईजी से संबोधित करते थे. सरल, स्नेहिल स्वभाव के धनी ताऊजी-ताईजी एक ब्लैक-व्हाइट टीवी के मालिक भी हुआ करते थे. हम लोगों के कालपी पहुँचते ही उस टीवी से उनका और उनके बच्चों का मालिकाना हक़ समाप्त हो जाता और वह बोलता-बतियाता डिब्बा हमारी संपत्ति हो जाया करती. नमस्कार के साथ शुरू होने वाला टीवी शुभ रात्रि के साथ ही बंद होता. एकमात्र दूरदर्शन चैनल होने के कारण सीमित समयावधि में चलने वाले कार्यक्रमों से हम बच्चों का कोई लेना-देना नहीं होता. बस टीवी देखना होता था सो देखते रहते थे. कृषि सम्बन्धी चर्चा हो, स्वास्थ्य सम्बन्धी चर्चा हो, सामाजिक विमर्श हो, समाचार हों, गाने हों बस देखना था सो देखना था. लम्बे-लम्बे एंटीना की सहायता से नेटवर्क पकड़ने का प्रयास किया जाता था. बहुधा कार्यक्रमों में झिलमिलाहट रहती, आवाज़ आती-जाती रहती, चित्र बनते-बिगड़ते रहते इसके बाद भी उन तीन-चार घंटों के टीवी दर्शन से अत्यंत सुखद अनुभूति मिलती. न विषय की समझ, न विमर्श की पहचान, न खबरों से वास्ता मगर इसके बाद भी सबकुछ बहुत अच्छा-अच्छा सा लगता था. हम बच्चों का टीवी दर्शन के साथ-साथ ताईजी का घरेलू पकवान खिलवाते रहने का प्यार-दुलार भी चलता रहता.

आज जबकि तब के बड़े-बड़े एंटीनों की जगह छोटी-छोटी छतरियों ने ले ली है; आज जबकि तब के सामान्य से प्रसारण के मुकाबले फुल एचडी फॉर्मेट में प्रसारण होने लगा है; आज जबकि तब के चंद घंटों के प्रसारण के मुकाबले चौबीस घंटे प्रसारण होने लगा है; आज जबकि तब के एक चैनल के मुकाबले सैकड़ों चैनल कार्यक्रम परोसने में लगे हों तब भी टीवी एक पल को वो सुख-आनंद नहीं दे पाता है जो उस समय मिलता था. चित्रहार के लिए दिन गिनना, सीरियल के लिए पूरे सप्ताह इंतजार करना, नए वर्ष के मनमोहक कार्यक्रमों का वर्ष भर इंतजार रहना, प्रातःकालीन प्रसारण शुरू होने के बाद रंगोली को चारपाई में दुबके-दुबके देखना आदि-आदि अपने आपमें स्वर्गिक अनुभूति देने वाला रोमांच था, जिसकी याद आज भी आनंद के सागर में गोते लगवाती है.  


Saturday, 21 November 2015

कूड़े के ढेर पर पड़े केले के छिलकों से मिटती भूख


इंसान की जिन्दगी में बहुत सी स्थितियाँ ऐसी होतीं हैं जब वह एकदम असहाय स्थिति में होता है और इस तरह की स्थितियों से बाहर आने के लिए वह कुछ भी कर बैठता है. ऐसी विषम स्थिति किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने के कई कारण होते हैं, भूख उनमें से एक कारण होती है. कहा भी जाता है कि पेट जो न कराये वो कम है. भूख में आदमी को दम तोड़ते भी सुना है, किसी भी स्थिति तक गिरते देखा है, चोरी करते सुना है, अपना जिस्म बेचते भी सुना है. भूख और गरीबी की विकट स्थिति से लड़ने-जूझने की, जिन्दा रहने की मारामारी में कुछ भी कर गुजरने के लिए उठाये गये कदमों में प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी के बारे में पढ़ रखा है कि वे किसी न किसी बहाने से पुलिस की पकड़ में आने की कोशिश करते थे. इससे उनके खाने और रहने की समस्या कुछ हद तक निपट जाया करती थी. 

यह एक दशा है जो हमने पढ़ रखी है. कुछ इसी तरह की दशा से हमें रूबरू होने का कुअवसर उस समय मिला जब हम अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए सन् 1990 में ग्वालियर गये. हमारा रहना हॉस्टल में होता था और ग्वालियर में ही हमारे सबसे छोटे चाचाजी के रहने के कारण हफ्ते में एक-दो बार घर भी जाना होता था. उरई जैसे छोटे शहर से निकल कर ग्वालियर जैसे शहर में आने पर घूमने का अपना अलग ही मजा आता था. इसी कारण से चाचा के घर पर हमेशा रास्ते बदल-बदल कर जाया करते थे.

एक दिन अपनी साईकिल यात्रा रेलवे स्टेशन की ओर से करने का फैसला किया. रेलवे स्टेशन के पास के ओवरब्रिज पर चढ़ते समय रेलवे स्टेशन का नजारा और सामने खड़े किले का दृश्य बहुत ही मजेदार लगता था. विशालकाय किला लगातार पास आते दिखता और फिर उसके नीचे से गुजरना अद्भुत एहसास कराता था. इसी रास्ते पर रानी लक्ष्मी बाई का समाधिस्थल होना और भी गौरवान्वित कर जाता था. उस दिन जैसे ही ओवरब्रिज पर चढ़ने के लिए अपनी साइकिल को मोड़ा तो उसी मोड़ पर लगे कूड़े के ढ़ेर में एक बारह-तेरह साल के लड़के को बैठे देखा. ऐसे दृश्य हमेशा ही किसी न किसी कूड़े के ढ़ेर पर दिखाई देते थे कि छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ कुछ न कुछ बीनते नजर आते. उस दिन भी कुछ ऐसा ही लगना था किन्तु ऐसा लगा नहीं. वह लड़का बजाय कूड़ा-करकट बीनने के कुछ और ही करता नजर आया. वह कूड़े के ढेर में पड़े केले के छिलकों को खा रहा था. 

आँखों का धोखा समझ कर दिमाग को झटका दिया और अपनी साइकिल की रफ्तार बढ़ाने के लिए पैडल पर जोर लगाया. मुश्किल से तीन या चार कदम ही साइकिल चल पाई होगी कि मन में उथल-पुथल मचने लगी. ब्रेक लगाये और वहीं खड़े हो गये अब न तो समझ में आये कि आगे बढ़ें या फिर उस लड़के की तरफ जाएँ. जो देखने का भ्रम हुआ था, कहीं सच तो नहीं? जैसे ही यह विचार कौंधा अगले ही पल मन में कुछ विचार किया और साइकिल को घुमा कर उस लड़के के पास खड़ा कर दिया. दिमाग भन्ना गया कि वह अभी भी निर्विकार भाव से केले के छिलके को खुरच-खुरच कर खाने में लगा है. 

क्यों क्या कर रहे हो? की आवाज सुनकर उस लड़के के हाथ से केले का छिलका छूट गया, उसको लगा कि कहीं यह भी अपराध न कर रहा हो. आँखों ने जो देखा था वह सच था. उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली, बस वह चुपचाप खड़ा हो गया. हमने उससे खाना खाने के लिए पूछा तो उसने सिर हाँ की स्थिति में हिला दिया. उसको अपने साथ लेकर स्टेशन के बाहर ही तरफ बने होटलों की तरफ ले कर चल दिए. अब समस्या यह थी कि उसको होटल में बिठाकर तो खिलाने को कोई भी तैयार नहीं था. एक होटल में सोलह रुपये में भोजन की एक थाली मिलती थी. उससे एक थाली देने को कहा तो उसने बाहर देने से मनाकर दिया. इधर-उधर निगाह दौड़ा कर कुछ समाचार-पत्र और कुछ पॉलीथीन इकट्ठा किये और उस भूखे बच्चे के लिए भोजन प्राप्त किया. सड़क के दूसरी तरफ एक जगह बिठाकर उसे अपने सामने खाना खिलवाया. सामने इसलिए ताकि कोई और उसे परेशान न कर सके.

जीवन में तब से लेकर आज तक बहुत सी अच्छी बुरी घटनाओं को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देखा-सुना है किन्तु आज भी वह घटना दिमाग से निकाले नहीं निकलती है. तब से लेकर आज तक एक नियम सा बना लिया है कि कभी भी माँगने वालों को, स्टेशन पर, ट्रेन में भीख माँगने वाले को, कूड़ा बीनने वाले बच्चों को रुपये देने की बजाय उनको खाना खिला देते हैं.


Sunday, 15 November 2015

चहकने वाला ननिहाल अब खामोश रहता है


शाम का धुंधलका होते ही घर के पास बने कुंए से पानी खींचना और घर के सामने की जगह पर छिड़क कर जमीन की गर्मी, धूल को दबाने का काम शुरू हो जाता. कई-कई बाल्टी पानी खींचना, कई-कई बार का चक्कर लगाना, जमीन की दिन भर की गर्मी को शांत करने की सफल कोशिश के बाद मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक से मन झूम जाता. चारपाई बिछाने का काम भी होने लगता. कोई अपनी चटाई बिछाकर पहले से अपनी जगह को घेरने लगता. फैलते अंधियारे में कभी चाँद की चाँदनी तो कभी लालटेन की रौशनी फैलती दिखती. इसी रौशनी के सहारे आसपास के बुजुर्ग, युवा, बच्चे, पुरुष, महिलाएँ अपने-अपने झुण्ड बनाकर विस्तार में फैली जगह में चहचाहट भर रहे होते. घर के सामने बने विशाल चबूतरे पर हमारे सबसे बड़े मामा, नन्ना मामा (श्री जनक सिंह क्षत्रिय) जो प्रधानाध्यापक रहे थे, के द्वारा रामचरित मानस का नियमित पाठ होता. उसे नियमित सुनने वाले भी अपनी-अपनी जगह पर बैठे होते. बच्चों की शरारतों, युवाओं के ठहाकों, महिलाओं की रुनझुन करती हँसी के साथ-साथ मानस की चौपाइयों की स्वर-लहरी भक्तिमय रूप में घुलती रहती. 

शाम का धुंधलका घहराते-घहराते रात में बदलता जाता. गली भर में, चबूतरों पर, नीम के पेड़ों के नीचे पाए जाते झुण्ड भी परिवर्तित होते रहते. लोगों की जगह बदलती रहती, बैठने का स्थान बदलता रहता, आपसी वार्तालाप का विषय बदलता रहता. कभी एकदम से चिल्ला-चोट, कभी संशय भरी खुसफुसाहट, कभी ठहाके तो कभी नितांत ख़ामोशी सी. रात में अँधेरे में सिमटती जाती अपनी-अपनी दुनिया में निमग्न ये छोटे-छोटे समूह चलायमान भी बने रहते. कुछ के घर से भोजन कर लेने की पुकार उठती. कुछ भोजन करके ऐसी गतिविधियों का हिस्सा बनते, कुछ समूह का हिस्सा बने लोगों को अपने साथ ले जाकर भोजन का आनंद उठाते. कुछ ज्यादा ही मनमौजी टाइप के लोग अपनी थाली सहित सबके बीच ही प्रकट हो जाते. एक थाली, कई-कई हाथ, न जाति का पूछा जाना, न बड़े-छोटे का भान. छोटे-छोटे कौर परमानन्द की प्राप्ति कराते हुए थाली के भोजन को समाप्त करते जाते. थाली खाली होने के पहले ही भर जाती. कभी इस घर से सूखी सब्जी आ जाती तो कभी उस घर की रसीली सब्जी का स्वाद मिलता. कहीं से दाल आकर लोगों को ललचाती तो कहीं से तीखा अचार आकर चटखारे बढ़ा देता. अनौपचारिक रूप से सब एक-दूसरे से हिले-मिले कहानी, किस्सों, लोकगीतों के हिंडोले पर कब नींद के आगोश में खो जाते, पता ही नहीं चलता. 

ऐसा नहीं कि रातें ही ऐसे खुशगवार गुजरती वरन सुबह से लेकर शाम आने तक जिंदगी ऐसे ही खुशगवार तरीके से गुजरती. दिन भर धूप की, गर्मी की चिंता से मुक्त कभी खलिहान, कभी बगिया की सैर. कभी नीम के झोंके पकड़ने की होड़ में झूलों की पेंग कभी तालाब की गहराई नापने की होड़ तो कभी बम्बा की धार को पीछे छोड़ने की सनक. आम, अमिया पर निशाना साधने को फेंके जाते पत्थर; तरबूज-खरबूज को एक मुक्के से तोड़ने की प्रतियोगिता दिन-दिन भर बच्चों के बीच चलती रहती. गर्मी हो या सर्दी, सभी मौसम में बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक की एकसमान गतिविधियाँ. सभी की सहयोगात्मक स्थिति. सभी के बीच प्रेम, स्नेह, सौहार्द्र का गुलशन लगातार महकता रहता. बच्चों से लेकर बड़ों तक अपनापन दिखाई देता. किसी के बीच किसी तरह भेदभाव समझ नहीं आता. घर की चौखटों पर कोई प्रतिबन्ध न दिखाई देता. गलियाँ चहकती-महकती रहती.

समय ने बहुत कुछ बदल दिया. इंसानों को भी बदला. गाँवों की संस्कृति को भी बदला. खेतों, खलिहानों, बगीचों, गलियों की मिट्टी की सुगंध को बदला. नीम के पेड़ों पर पड़े झूलों को बदला, तालाबों, नदियों, बम्बों के पानी को बदला. गुलजार रहने वाले खेत, खलिहान, बगीचे, गलियाँ अब सुनसान से दिखाई देते हैं. चबूतरे वीरान हैं, नीम तन्हा खड़े हैं, झूले खामोश लटके हैं, गलियों में सुगन्धित मिट्टी की जगह सीमेंट की गर्मी उड़ रही है. एक थाली में भोजन की परम्परा की जगह घर के आँगन में दीवार खिंची है. अपनेपन की जगह स्वार्थ दिखाई देने लगा है. प्रेम-स्नेह की जगह वैमनष्यता ने ले ली है. अब न दिन चहकते दिखते हैं और न ही रातें गुलज़ार दिखती हैं. कुँओं की जगत पर खिलखिलाहट नहीं सुनाई देती. गली के मकानों से भोजन कर जाने की आवाजें भी नहीं उठती. सब अपने-अपने में मगन हैं. सब अपने-अपने घरौंदों में सिमटे हैं.

कभी चहकता-महकता दिखता गाँव तन्हा है, खामोश है. अपने में सिसकता है, अपने में रोता है किन्तु अब उसके आँसू देखने वाला कोई नहीं, उसके आँसू पोंछने वाला कोई नहीं, उसके हालचाल जानने वाला कोई नहीं.

Sunday, 1 November 2015

उन भयानक दिनों की याद आज भी है


31 अक्टूबर की रात होने से पहले ही हवाओं में इंदिरा गाँधी की हत्या की दुखद खबर तैरने लगी थी. पुष्ट-अपुष्ट खबरों के बीच लोगों में इस खबर को लेकर संशय बना हुआ था. संशय के साथ-साथ लोगों में एक अनजाना सा भय भी दिख रहा था. शाम को अपनी माँ के साथ सब्जी, अन्य घरेलू समान की खरीददारी करते समय दुकानदारों के चेहरों पर, उनकी बातचीत में डर का दर्शन किया जा सकता था. सब्जी मंडी के छोटे-छोटे दुकानदार अपने सामान को लगभग समेटने के अंदाज़ में ग्राहकों को अधिक से अधिक सामान लेने की हिदायत देते जा रहे थे. इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई है, अब कुछ न कुछ होगा जैसा भाव उनकी बातचीत में झलक रहा था. उस समय 11 वर्ष की उम्र यह समझाने के लिए बहुत थी कि अब कुछ न कुछ होगा का अर्थ क्या हो सकता है. बाज़ार से घर वापसी के दौरान बाज़ार में एक तरह का हडकंप सा मचा हुआ था. 

पिताजी के अधिवक्ता होने के और राजनैतिक सक्रिय व्यक्ति होने के कारण देर रात घर में आसपास वालों का आना-जाना लगा रहा. आने वालों की बातचीत, लोगों की खुसुर-पुसुर से ऐसा समझ आ रहा था कि इंदिरा गाँधी के किसी सिख अंगरक्षक ने उनकी हत्या की है और उरई से भी कुछ सिख भाग चुके हैं. आने वाले हर व्यक्ति को किसी अनहोनी का डर सता रहा था. शहर के मुख्य बाज़ार से कुछ दूर होने के कारण रात को किसी अनहोनी जैसी घटना सुनाई भी नहीं दी किन्तु सुबह के उजाले में कुछ और ही देखने को मिला. लगभग 10-11 बजे के आसपास घर के सामने से गुजरने वाली गली में रोज की तुलना में बहुत अधिक संख्या में लोगों की एक ही दिशा को भागमभाग मची हुई थी. हर व्यक्ति अपने हाथों में कुछ न कुछ उठाये भागा चला जा रहा था, कुछ तो अपनी शारीरिक सामर्थ्य से अधिक सामान अपने ऊपर लादे गिरते-भागते चले जा रहे थे. पूछने पर एक ही जवाब मिल रहा था कि दंगा हो गया है. पिताजी आसपास के अन्य प्रतिष्ठित लोगों के साथ बाहर निकले हुए थे, उनके वापस आने पर ही सही जानकारी मिल सकती थी. इसके बाद भी एक बात स्पष्ट दिख रही थी कि उरई में कुछ गड़बड़ हो गई है जिस कारण से यहाँ लूटपाट जैसे हालात बन गए हैं.

पिताजी के वापस आने पर पता चला कि कुलदीप नाम का एक धनाढ्य व्यापारी सिख उरई छोड़कर भाग गया है तथा लोगों में इस बात की आशंका है कि उसका भी किसी न किसी रूप में इंदिरा गाँधी हत्याकाण्ड में हाथ रहा है. अभी छोटे हो, नहीं समझोगे, अपना काम करो, जाकर खेलो जैसे वाक्यों के बीच कर्फ्यू, दंगा, लूटपाट जैसे शब्द समझ से परे थे पर इतना तो समझ आ रहा था कि उरई में कुछ गड़बड़ हो गई है. उरई में रह रहे सिख समुदाय की इंदिरा गाँधी हत्याकांड में भागीदारी की सत्यता जो भी रही हो, सिख समुदाय की इस घटना पर प्रतिक्रिया जो भी रही हो पर उग्र भीड़ ने कुलदीप की दुकान और घर को निशाना बनाने के साथ-साथ सिख समुदाय की दुकानों को, घरों को, लोगों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया. कुछ दुकानों, मकानों में आग भी लगा दी गई किन्तु किसी सिख की हत्या का, उसकी जान लेने का मामला सामने नहीं आया. सिखों को, उनके परिवार वालों को प्रशासन की तथा कुछ जागरूक नागरिकों की मदद से सुरक्षा प्रदान की गई. इक्का-दुक्का मारपीट की घटनाओं को छोड़कर यहाँ लूटपाट की घटना अधिक सामने आई.

जैसा कि याद है उरई में लोगों ने हालात को बिगड़ने के स्थान पर संभालने की कोशिश की थी किन्तु चंद राजनैतिक मौकापरस्त लोगों और हालात का फायदा उठाने वालों ने अपनी कुत्सित मानसिकता दिखा ही दी थी. हालात बेकाबू न हों इसके लिए प्रशासन द्वारा कर्फ्यू भी लगाया गया. जैसा कि फिर बाद में समाचार-पत्रों में, रेडियो के समाचारों में जो कुछ, जैसा पढ़ने-सुनने को मिला उसने उस उम्र में भी रोंगटे खड़े कर दिए. कालांतर में कानपुर के उस मकान को देखने का अवसर मिला जिसमें एक परिवार के कई सदस्य जिन्दा जला दिए गए थे. कुछ और जगहों पर जाने पर उस समय के नरसंहार स्थलों को देख कर मन व्हिवल हो उठा था. अपने कुछ परिवारीजनों से इसी समयावधि में उनकी आँखों देखी सुनने के बाद तत्कालीन स्थिति की, हालात की गंभीरता को आज तक महसूस करते हैं.


Saturday, 31 October 2015

कोई स्कूल नहीं हमारे उस स्कूल जैसा

पहले स्कूल से पहले ही दिन वापसी के कितने दिनों तक हम घर में बैठे, ये याद नहीं. ऐसी कोई चर्चा भी नहीं की गई हमसे, हाँ, इसकी चर्चा अवश्य हुई कि हमें स्कूल में भेजे जाने को लेकर घर में उच्च स्तरीय शिखर वार्ताएँ शुरू हो गईं थीं. ऐसा अम्मा जी अक्सर अपनी बातों में जिक्र किया करती हैं. उन दिनों उरई में गिने-चुने स्कूल हुआ करते थे. उस समय का एकमात्र अंग्रेजी माध्यम का मिशन स्कूल आज भी है. घर से बहुत दूर होने के कारण उस स्कूल में हमारे एडमीशन को लेकर आमराय पारिवारिक वार्ताओं में न बन सकी. घर के पास एक स्कूल था पर घर और स्कूल के बीच पड़ता एक विकट नाला उस स्कूल में हमारे प्रवेश में बाधक बना. इसी विचार-विमर्श के बीच हमारे मोहल्ले में ही एक नए स्कूल का उदय हुआ. घर के सभी सदस्यों को लगा जैसे इस स्कूल का खुलना सिर्फ हमारे लिए ही हुआ था. घर से बहुत दूर नहीं, बीच में नदी, नाला, सड़क, यातायात जैसा कुछ नहीं. सो एक दिन निश्चित करके हमारा प्रवेश उस नवोन्मेषी स्कूल में करवा दिया गया.

पं० उमादत्त मिश्र बालिका विद्यालय के नाम से आरम्भ वह स्कूल वर्तमान में भी पं० उमादत्त मिश्र जूनियर हाई स्कूल के नाम से संचालित है. उस समय छोटा सा वह स्कूल अपने आसपास खेलने का मैदान समेटे हुआ था, जो अब कुछ हद तक सिकुड़ सा गया है. शिक्षिकाएँ, जिन्हें हम दीदी कहकर पुकारते थे और प्रधानाचार्या को बड़ी दीदी. सभी का स्नेह, प्यार, दुलार, आशीर्वाद तब भी मिला, आज भी मिल रहा है. बड़ी दीदी के रूप में मधु दीदी के साथ शीला दीदी, सुमन दीदी, सरोजनी दीदी, रेखा दीदी, स्नेहलता दीदी और इनके साथ-साथ शुक्ला आचार्य जी और प्रह्लाद आचार्य जी आदि ने हमारी नींव को भली-भांति तैयार किया. इस नींव की सुरक्षा का दायित्व बहुत दिनों तक लक्ष्मीआया माँ ने उठाया. बाद में हमारे दोनों छोटे भाइयों का प्रवेश भी उसी स्कूल में करवाया गया. जिनकी सुरक्षा का दायित्व हीरा आया माँ के जिम्मे किया गया.

उस समय विशेष बात यह थी कि स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या कम थी. नया-नया स्कूल होने और बच्चों की संख्या कम होने के कारण सभी बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता था. ऐसे में वे सभी बच्चे जो पढ़ने-लिखने के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में आगे रहते थे, अपने आप ही शिक्षिकाओं और अन्य बच्चों की निगाह में आ जाते थे. अपनी कक्षा सम्बन्धी गतिविधियों के अलावा अन्य दूसरी गतिविधियों में भी हम बराबर सहभागिता करते, आगे रहने का प्रयास करते. इसके चलते न केवल अध्यापकों के वरन समूचे स्कूल के बच्चों के चहेते बने रहते थे. ये तो नहीं कहेंगे कि आज के बच्चों की तरह हीरो टाइप रहन-सहन रहा हो, वेशभूषा रही हो पर अघोषित हीरो तो बने ही थे. हमारी इस हीरोगीरी को हमारे प्यारे-प्यारे से दोस्त और हवा दिए रहते थे. अश्विनी, अनिरुद्ध, रॉबिन्स, मनोज, हरकिशोर, राजीव, संतोष, श्यामबाबू, सौरभ, इरफ़ान, संजय, रोहिणी, स्नेहलता, सुचित्रा, अन्नपूर्णा, रेनू, मनोरमा आदि दोस्तों में से बहुत से आज भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. कुछ इसी दुनिया में बहुत दूर-दूर हैं जो बराबर याद आते रहते हैं. कुछ तो रूठकर हमेशा को दूसरी दुनिया में चले गए, उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.

आज भी उस स्कूल के प्रति आकर्षण बना हुआ है. उस स्कूल के शिक्षक, आया माँ, साथी बराबर याद आते हैं, स्मृति में बसे हुए हैं. उस समय के कुछ लोग आज भी साथ हैं. आये दिन उनसे मुलाकात होती रहती है. उस समय को याद करते हैं तो घर-परिवार जैसी अनुभूति होती है, जो आज के स्कूलों में देखने को नहीं मिल रही है. 

Saturday, 19 September 2015

बाबा आदम के ज़माने का स्कूटर


हमारी पूरी गैंग के घर लगभग एक ही दिशा में थे. जीआईसी से छुट्टी के बाद हम सब एकसाथ ही घर वापसी करते थे. पूरे रास्ते हुल्लड़, मस्ती, शरारतें होती रहतीं. तब आज की तरह न तो बहुत ज्यादा ट्रैफिक हुआ करता था और न ही बाइक के स्टंट. साइकिलों, रिक्शों की ही आवाजाही अधिक रहती थी. इक्का-दुक्का स्कूटर और कभी-कभी कोई मोटरसाइकिल, जिन्हें हम बच्चे फटफटिया कहते थे, दिख जाया करती थीं. लेम्ब्रेटा स्कूटर अपने अजब से हावभाव के कारण आसानी से पहचाने में आता. इसके साथ ही बजाज, प्रिया, सूर्या के स्कूटर भी अपनी उपस्थिति बनाये हुए थे. इन स्कूटरों के बीच बुलेट, येज़दी और राजदूत फटफटियाँ अपनी दमदार आवाज़ के कारण दिल-दिमाग में बसी थीं. इन सबके बाद भी शहर की सड़कें खाली-खाली ही रहती थीं. इसके अलावा तब शहर के नागरिक भी हम बच्चों को सड़क पर पूरा स्पेस देते थे, अपनी शरारतों को संपन्न करने का.

निश्चित सी दिनचर्या के बीच हम मित्रों की कॉलेज से घर वापसी हो रही थी. हा-हा, ही-ही अपने निर्धारित रूप में चल रही थी. आसपास के लोग, दुकान वाले, रिक्शे वाले हम बच्चों के मजाक का निशाना बनते थे, उस दिन भी बन रहे थे. तभी हम लोगों के बगल से एक स्कूटर बिना आवाज़ के निकला. हल्का आसमानी-सफ़ेद रंग का, नई अलग सी डिजाईन का स्कूटर देख हम सब चौंक से गए. चौंकने के कई कारण थे. एक तो अभी तक के चिरपरिचित एकरंग के स्कूटरों से इतर यह स्कूटर दो रंग का था. दूसरे तेज फट-फट आवाज़ के स्कूटरों से बिलकुल अलग लगभग खामोश आवाज़ वाला स्कूटर भी अपने आपमें चौंका रहा था. तीसरे तब के स्कूटरों में पीछे लगी स्टेपनी से इतर इसमें एक तरह का खालीपन भी आश्चर्य में डाले थे. जिस धीमी रफ़्तार से वह स्कूटर बगल से निकला, उससे कई गुना तीव्र गति में ये सब आश्चर्य आँखों के सामने से घूम गए. इस आश्चर्यजनक अकबकाहट में हमारे मुँह से निकल पड़ा, निकल क्या पड़ा चिल्लाहट सी गूँज उठी देखो, बाबा आदम के ज़माने का स्कूटर. 

इसके बाद स्कूटर उतनी ही तेजी से रुका, जितनी तेजी से हमारे शब्द निकले थे. स्कूटर चलाने वाले युवा सज्जन, जिनके बारे में मालूम चला कि बड़े सेठ जी हैं, उतर कर, बड़ी ही रोब-दाब के साथ हम बच्चों को हड़काने लगे. हम सब पूरी मौज के साथ उन सेठ जी की मौज लेने लगे. बात बढ़ते-बढ़ते हाथापाई, पत्थरबाजी जैसी स्थिति तक आने की आशंका दिखाई देने लगी तो आसपास के दुकानदारों ने उनको समझाने की कोशिश की. इस कोशिश में वे पूरी हनक के साथ उस स्कूटर की कीमत बताते हुए ऐसा एहसास दिलाने लगे मानो हम लोगों ने उनके विशिष्ट स्कूटर की घनघोर बेइज्जती कर दी हो.

बहरहाल वे सज्जन खिसियाहट के साथ अपने स्कूटर में बैठे और सेल्फ बटन के द्वारा उसे स्टार्ट कर वहाँ से निकल लिए. रंग, आकार, आवाज़ से अभी तक आश्चर्य में गोते खा रहे हम बच्चों के लिए ये एक और अचम्भा था कि स्कूटर बटन से स्टार्ट होता है, झुका कर किक मारने से नहीं. ये आगे बढ़ता है तो खटर-पटर किये गियर बदले बिना. आँखों में विस्मय की चमक लिए हम बच्चों के मुंह से अबकी एकसाथ फिर वही शब्द बाबा आदम के ज़माने का स्कूटरगूँजे मगर इस बार पिछली बार के मुकाबले और जोर की आवाज़ से. 


Thursday, 17 September 2015

पारिवारिक संस्कारों से मिली प्रेरणा

घर में पढ़ाई का माहौल था. बाबा जी ने तो अंग्रेजी शासन में अपने पारिवारिक विरोध के बाद भी अपनी पढ़ाई को जारी रखा था. बाबा जी बताया करते थे कि घर में जमींदारी होने के कारण उनके बड़े भाई नहीं चाहते थे कि वे पढ़ें. उनका सोचना था कि गाँव आकर जमींदारी के कामों में उनका सहयोग करें. ऐसे में बाबा जी की पढ़ने की जिद को उनके पिताजी ने माना और पढ़ने के लिए कानपुर भेजा. बड़े बाबा जी (बाबा जी के बड़े भाई श्री भोला सिंह जी) अक्सर बाकी जरूरी सामानों को तो भेज देते मगर पैसे नहीं भिजवाते थे. 

ऐसे में खुद को आर्थिक स्थिति से उबारने के लिए बाबा जी अपने एक मित्र की ट्रांसपोर्ट कंपनी में बिठूर से उन्नाव ट्रक भी चलाया करते थे. उस समय बनवाया गया लाइसेंस बाबा जी के पास अंतिम समय तक सुरक्षित रहा, जिसे वे कभी-कभी हम लोगों को दिखाकर अपने आत्मविश्वास और अपनी कर्मठता को बताया करते थे. बहरहाल उन्होंने अपने संघर्षों के द्वारा कानून की पढ़ाई पूरी की. बाद में वे सरकारी मुलाजिम बने. उनके चारों बेटों ने भी उनकी प्रेरणा से उच्च शिक्षा प्राप्त की. हमारी दादी भी शिक्षित थीं और अम्मा जी को भी बाबा से उच्च शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा मिली.

शिक्षा के प्रति यह लगाव सांस्कारिक रूप से हमारे भीतर भी विरासतन आ गया. स्कूल में अपने सभी दोस्तों के बीच पढ़ाई-लिखाई में अव्वल होने के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी पर्याप्त सक्रियता के साथ आगे-आगे बने रहते थे. यद्यपि घर-परिवार में माना जाता है और खुद हमें भी इस बात का एहसास होता है कि हमारे स्वभाव में एक प्रकार का संकोचीपन, एक तरह की अंतर्मुखी भावना परिलक्षित होती है. बचपन में इसकी अधिकता होने के बाद भी स्कूल में प्रति शनिवार भोजनावकाश के बाद होने वाली बालसभा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया जाता. कभी सञ्चालन करने, कभी भाषण देने, कभी कविता सुनाने, कभी गीत गाने आदि में बहुत उत्साह से भाग लिया जाता. इसके अलावा खेलकूद में भाग लेना, प्रातःकालीन प्रार्थना के बाद संपन्न होने वाले कुछ नियमित कार्यों में तत्पर रहना, कक्षा में मॉनिटर बनने में आगे रहना, स्कूल में होने वाले छोटे-छोटे कार्यों में छात्र-छात्राओं का नेतृत्व करना भी बखूबी होता रहता. बचपन में जैसे-जैसे संकोची भावना में कमी आती रही, अंतर्मुखी व्यक्तित्व को निखरने में कुछ सहायता मिली, वैसे-वैसे पढ़ाई के प्रति रुझान और बढ़ता गया.

उस स्कूल के बाद भी पढाई का क्रम बना रहा. बाबा जी ने पढ़ाई के महत्त्व को अपनी युवावस्था में ही जान-समझ लिया था. गाँव की बातें बताते समय वे अक्सर कहा करते थे कि तुम्हारे पिताजी और चाचा लोगों को गाँव से इसीलिए बाहर निकाला कि वे पढ़-लिख कर कुछ बन सकें. वे हम सबको बहुत छोटे से ही समझाते रहे थे कि पढ़ाई खूब करना क्योंकि यही दौलत कोई नहीं छीन सकता. वे यह भी समझाते रहते थे कि कभी भी जमीन-जायदाद के लिए लड़ने की, रंजिश लेने की आवश्यकता नहीं. पढ़ने-लिखने के बाद उससे कहीं अधिक संपत्ति अर्जित की जा सकती है. शिक्षा के प्रति उनका अनुशासनात्मक भाव ही कहा जायेगा कि पढ़ाई से कभी मुँह नहीं चुराया. शिक्षा के प्रति उनके द्वारा जगाई गई ललक ने ही हमें दो विषयों, हिन्दी साहित्य और अर्थशास्त्र में, पी-एच०डी० डिग्री प्रदान करवा दी.

Wednesday, 19 August 2015

एक दिन का स्कूल


किसी भी व्यक्ति के जीवन में जन्मने के बाद महत्त्वपूर्ण दिन होता है उसका पहले दिन स्कूल जाना. लगभग सभी के लिए पहला स्कूली दिन बहुत ही ख़ास होता है. एक जैसी होते हुए भी सबकी अलग-अलग सी कहानी रहती है. वैसे देखा जाये तो स्कूल भी अपने आपमें एक अजब सा स्थान होता है, बच्चों के लिए. किसी के लिए दहशत भरा, किसी के लिए कौतुहल भरा, किसी के लिए खेल का स्थान, किसी के लिए बोझिल सा. हमारे लिए स्कूल कभी भी दहशत भरा नहीं रहा. प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक शैक्षिक संस्थान को बहुत सहजता से आत्मसात करते रहे. बहरहाल, हम भी स्कूल गए, गए क्या, भेजे गए. समय से ही स्कूल भेजे गए.

हमारा पहला स्कूली दिन बहुत ही रोचक स्थिति में गुजरा. स्कूल का नाम सही-सही तो याद नहीं पर शायद राधा कृष्ण जूनियर हाई स्कूल या फिर कुछ इसी तरह का नाम था. स्कूल घर से काफी दूर था. स्कूल में प्रवेश कैसे हुआ, किसने करवाया, कब हुआ याद नहीं. हाँ, इतना याद है कि पहले दिन स्कूल जाना हुआ एक आया माँ के साथ. स्कूल पहुँचने के कुछ समय बाद हमें स्कूल में अच्छा नहीं लगा. बंद-बंद सा माहौल, छोटे-छोटे से कमरे. आज के भव्य स्कूलों, सजावटी इमारतों से इतर साधारण सा, किसी पुराने मकान में चलता स्कूल. जब तक वे आया माँ दिखती रहीं, तब तक तो हम स्कूल में जमे रहने की कोशिश करते रहे. उनके कुछ देर बाद न दिखने की स्थिति में हमने घर जाने की जिद मचाई तो बताया गया कि आया माँ किसी काम से स्कूल से चली गईं हैं, उनके आते ही घर भिजवा दिया जायेगा. ये पता लगते ही कि आया माँ स्कूल में नहीं हैं, घर जाने की जिद और तेज हो गई. 

जिद से भी ज्यादा जिद्दी होने का स्वभाव बचपन से ही रहा है, आज भी है. शायद उसी जिद के साथ-साथ रोना, चिल्लाना बहुत ज्यादा ही रहा होगा तभी स्कूल प्रबंधन ने एक शिक्षक के साथ हमें घर वापसी की राह दिखाई. घर का पता किसी को मालूम नहीं था. आया माँ स्कूल में नहीं. हमने पूरे विश्वास के साथ कहा कि हमें घर का रास्ता पता है. बस फिर क्या था, अपने विश्वास के भरोसे एक शिक्षक हमारे साथ घर को चल दिए. हम अपने पहले ही दिन अपनी याददाश्त, अपने विश्वास के सहारे वापस घर तक लौट आये. उस स्कूल में हमारा पहला दिन, उस स्कूल का आखिरी दिन भी साबित हुआ.

आज भी अम्मा जी उस दिन को याद कर बताती हैं कि वे शिक्षक और हमारे घर वाले हैरान थे कि उस अत्यंत छोटी सी उम्र में हमें स्कूल से घर तक का रास्ता कैसे याद रहा? हैरानी आपको भी हो रही होगी मगर सच ये है कि आज भी ये प्राकृतिक शक्ति हममें विद्यमान है कि किसी रास्ते से एक बार गुजर जाएँ, किसी भी व्यक्ति से एक बार मिल लें फिर वह हमारे दिमाग में हमेशा को बस जाता है.


Wednesday, 3 June 2015

आटा गूँथने की कोशिश में बन गई रबड़ी

गर्मियों के दिन आते हैं और जब कभी हम सभी आँगन में बैठ कर एकसाथ भोजन करते हैं तो अपने बचपन का एक किस्सा याद आ जाता है. छोटे-छोटे हाथों से पहली कोशिश रोटी बनाने के पहले आटा गूँथने की. बात उन दिनों की है जब हम कक्षा आठ में या नौ में पढ़ रहे होंगे. गरमी के दिन थे और परीक्षाओं के प्रेत से भी मुक्ति मिल चुकी थी, मई या जून की बात होगी. गरमी के कारण या फिर किसी और कारण से अम्मा जी की तबियत कुछ बिगड़ सी गई. अपनी क्षमता के अनुसार उन्होंने उस दशा में भी हम तीनों भाइयों का और घर का सारा काम सम्पन्न किया. लगातार काम करते रहने और कम से कम आराम करने के कारण अम्मा की तबियत ज्यादा ही खराब हो गई.

अम्मा तो पड़ गईं बिस्तर पर और मुसीबत आ गई हम भाइयों की. खाने की समस्या, सुबह नाश्ते की दिक्कत. पड़ोसी हम लोगों को बहुत ही अच्छे मिले हुए थे इस कारण समस्या अपना भयावह स्वरूप नहीं दिखा पाती थी. बगल के घर की दीदी आकर मदद करतीं और हम तीनों भाई दौड़-दौड़ कर उनका हाथ बँटाते रहते. दो-तीन दिनों के बाद एक शाम हमने अम्मा से कहा कि आज हम आटा गूँथते हैं. अम्मा ने मना किया कि अभी तुमसे ऐसा हो नहीं पायेगा पर हमने भी ऐसा करने की ठान ली. अपने नियत समय पर दीदी को भी आना था तो यह भी पता था कि उनके आते ही हमारा यह विचार खटाई में पड़ जायेगा. हमने अपने कार्य को करने के लिए पूरा मन बना लिया था. इससे पहले कभी भी आटा गूँथा नहीं था सो मन में कुछ ज्यादा ही उत्साह था. यह भी विचार आ रहा था कि हम अम्मा का एक काम तो कर ही सकते हैं. अम्मा आँगन में चारपाई पर लेटीं थीं और हम जमीन पर आटा, परात, पानी का जग लेकर बैठ गये. अम्मा ने जितना बताया उतना आटा परात में डालकर उसमें पानी मिलाया.

अब शुरू हुई हमारी आटा कहानी, पानी डरते-डरते डाला तो कम तो होना ही था. अम्मा के निर्देश पर थोड़ा सा और पानी डालकर गूँथना शुरू किया. आटे का स्वरूप कुछ-कुछ सही आने लगा पर अभी पानी की कमी लग रही थी. अम्मा के कहने पर फिर पानी डाला और हाथ चलाने शुरू किये. अब लगा कि पानी कुछ ज्यादा हो गया है. जब पानी ज्यादा हुआ तो थोड़ा सा आटा मिला दिया. हाथ चलाये तो लगा कि आटा ज्यादा है, फिर पानी की धार.

ऐसा तीन-बार करना पड़ गया. आटा, पानी.... पानी, आटा होते-होते आटा अन्ततः गुँथ तो गया किन्तु बजाय हम चार-पाँच लोगों के कम से कम आठ-नौ लोगों के लिए काफी हो गया. अब क्या हो? याद आये फिर भले पड़ोसी. दीदी को आवाज दी, जितना आटा हम लोगों के काम आ सकता था उतना तो निकाला शेष दीदी के हवाले कर दिया. दीदी ने मुस्कुराते हुए शाबासी भी दी और अम्मा ने भी हौसला बढ़ाया. इसका परिणाम यह निकला कि अगले दो-चार दिन आटा-वृद्धि के बाद हमने आटा भली-भाँति गूँथना सीख लिया. इस सीख का सुखद फल हमें तब मिला जब हम पढ़ने के लिए ग्वालियर साइंस कॉलेज के हॉस्टल में रहे. मैस के लगातार बन्द रहने के कारण पेट भरने में इस आटा-कहानी ने बड़ी मदद की.

Wednesday, 20 May 2015

हाय रे साइकिल

जब पहली बार साइकिल चलाये तो धरती माता की गोद में जा गिरे थे. उस काण्ड के बाद साइकिल का एक काण्ड और हुआ. कुछ दिनों की मेहनत और लगन के चलते साईकिल को नियंत्रित करना सीख गए. पिताजी की बड़ी साइकिल को उस छोटे से कद में सीट पर बैठकर चलाना तो संभव नहीं था, सो जिसे आम बोलचाल की भाषा में कैंची चलाना कहते हैं, हम भी चलाने लगे. एक दिन अपने दोस्तों के बीच बैठे सभी अपनी साईकिल कलाकारियाँ बताने में लगे थे. उसी में मिलकर विचार किया कि स्कूल के पास किराये की साइकिल देने वाले से एक साईकिल ली जाये और उसका मजा लिया जाये. वो साईकिल वाला छोटे बच्चों की साईकिल किराये से देता था. उस समय वह कुछ घंटों का पच्चीस पैसे लिया करता था.

हम तीन मित्रों ने पैसे जोड़कर चवन्नी बनाई और एक लाल रंग की छोटी साईकिल लाकर रामलीला मैदान से बरगदिया तरे तक दौड़ाना शुरू किया. साईकिल की मौज-मस्ती में समय का ध्यान ही नहीं रहा. किराये के निर्धारित समय से बहुत अधिक समय हो चुका था. अब डर लगा कि यदि साईकिल जमा करने जायेंगे को वो और पैसे माँगेगा, तब पैसे कहाँ से देंगे उसे. कुछ देर के बाद छुटपन समाधान निकाला गया कि साईकिल जमा करने के बजाय कोई अपने घर ले जाये. जब साईकिल वाला घर से लेने आएगा तो घरवाले अपने आप उसे पैसे दे देंगे. राबिन्स और मनोज ने अपनी-अपनी पिटाई का डर दिखाकर साईकिल ले जाने से मना कर दिया. हम भी इसी बात से घबरा रहे थे. पिटाई के डर से हम तीनों में से कोई भी साईकिल ले जाने को तैयार न हुआ और उसे रामलीला मैदान में पाखर के पेड़ के नीचे खड़ा कर दिया.

ऐसा करके भी डर लगा कि साईकिल कोई और चुरा ले गया और साईकिल वाला घर आ गया. तब तो बहुत ज्यादा मार पड़ेगी. अभी हो सकता है कि सिर्फ डांट ही पड़े. ऐसा विचार दिमाग में आते ही हमने साईकिल उठाई और घर ले आये. राबिन्स और मनोज दूसरे मोहल्ले में रहते थे, वे लोग अपने घर चले गए. मोहल्ले के बच्चों ने भी कुछ घंटे उसका मजा लिया. बाद में पिताजी की नज़रों से बचाने के लिए उसे मोहल्ले के बच्चों की मदद से अपने घर की छत पर चढ़ा दिया. इसके बाद जैसा कि सोचा था, वही हुआ. साईकिल वाला जानकारी करते हुए घर आ गया. चूँकि सुबह से मोहल्ले के सभी लोग साईकिल चलाते हुए देख रहे थे, सो उस साईकिल वाले को घर पहुँचने में परेशानी नहीं हुई. छत से उतरवा कर उसकी साईकिल और शेष किराया उसको दिया गया. मार तो नहीं पड़ी क्योंकि सब सच-सच बता दिया था हमने. हाँ, डांट पड़ी कुछ-कुछ, साईकिल को लेकर, इसी साईकिल से गिरने के कारण लगी चोटों को लेकर. उसके बाद बस पिताजी की बड़ी साईकिल पर हाथ-पैर मारे जाते रहे. गिरते रहे, चोट खाते रहे.

Wednesday, 6 May 2015

आ गिरे धरती माता की गोद में


किसी भी व्यक्ति के लिए पहली बार कोई नया काम करना कितना कठिन होगा कह नहीं सकते किन्तु हमारे लिए पहली बार साइकिल चलाना तो ऐसा था मानो हवाई जहाज चला रहे हों. उस समय कक्षा पाँच में पढ़ा करते थे. साइकिल चलाने का शौक चढ़ा. घर में उस समय पिताजी की साइकिल थी. पिताजी चले जाते थे कचहरी और शाम को आते, तब तक हम भी अपने स्कूल से लौट आते थे. कई बार की हिम्मत भरी कोशिशों के बाद पिताजी से साइकिल चलाने की मंजूरी ले ली. 

उस समय तक हमने साफ करने की दृष्टि से या फिर अपने बड़े लोगों के साथ बाजार, स्कूल आदि जाने के समय ही साइकिल को हाथ लगाया था. अब साइकिल चलानी तो आती ही नहीं थी तो बस उसे पकड़े-पकड़े लुड़काते ही रहे. कई दिनों के बाद साइकिल पर इतना नियंत्रण बना पाये कि वह गिरे नहीं या फिर इधर-उधर झुके नहीं. एक दिन हमारे स्कूल में किसी संस्था या फिर किसी और स्कूल के द्वारा (यह ठीक से याद नहीं) एक टेस्ट का आयोजन किया गया. इस पूरे टेस्ट में हमारे सबसे ज्यादा नम्बर आये थे. हम भी बहुत खुश थे और इसी खुशी में हमने पिताजी से साइकिल चलाने की अनुमति माँग ली.

अब क्या था? कई सप्ताह हो गये थे साइकिल को खाली लुड़काते-लुड़काते, सोचा कि पिताजी भी खुश हैं हमारे रिजल्ट से, हो सकता है कि कुछ न कहें. बस आव देखा न ताव कोशिश करके चढ़ गये साइकिल पर. दो-चार पैडल ही मारे होंगे कि साइकिल एक ओर को झुकने लगी. यदि साइकिल चलानी आती होती तो चला पाते पर नहीं. अब हमारी समझ में नहीं आया कि क्या करें? न तो हैंडल छोड़ा जा रहा था और न ही पैडल चलाना रोका जा रहा था. साइकिल झुकती भी जा रही थी और गति भी पकड़ती जा रही थी. गति थोड़ी रुकती, पैडल जरा थमते, हैंडल और सँभलता उससे पहले वही हुआ जो होना था. हम साइकिल समेत धरती माता की गोद में आ गिरे. तुरन्त खड़े हुए कि कहीं किसी ने देख न लिया हो? कपड़े झाड़कर घर आये और चुपचाप साईकिल यथास्थान खड़ी कर दी. शाम को बाजार जाते समय पिताजी को उसकी कुछ बिगड़ी हालत देखकर पता चल ही गया. परिणाम में पिटाई तो नहीं हुई क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था किन्तु साइकिल चलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.

देखा ऐसी रही हमारी पहली साइकिल सवारी.


Wednesday, 22 April 2015

तमन्ना है आसमां के पार जाने की

चंद पलों की अपनी विषम स्थिति में ऊपर से गुजरती ट्रेन की गति से भी तेज गति से न जाने क्या-क्या सोच लिया गया था. कुछ समय बाद कार जिस तेजी से कानपुर के लिए दौड़ रही थी, उससे कहीं अधिक तेजी से दिमाग दौड़ रहा था. कुछ होने नहीं देना है, कुछ होगा नहीं, कुछ होने नहीं देंगे की जिद सी लिए साँसों को अपने आपमें थामते चले जा रहे थे. रास्ते भर की मजबूत, विश्वासपरक स्थिति हॉस्पिटल के सामने एक पल को उस समय कमजोर लगी जब अपने सामने मुन्नी जिज्जी, जीजा जी (श्री रामकरन सिंह) को खड़े पाया. प्यास लगने की इच्छा और पानी नहीं पिलाने की हिदायत एक साथ होंठों पर प्रकट हुई. जिज्जी के प्यार भरे स्नेहिल हाथ ने जैसे हाँफती-टूटती साँसों को नया जीवन दे दिया हो. स्ट्रैचर पर लेटे उस एक पल से लेकर हमारे कृत्रिम पैर के सहारे खड़े होकर चलने तक जिज्जी-जीजा जी का स्नेहिल हाथ पल भर को भी अलग न हुआ.  

अपने अभिन्न मित्र रवि और अन्य लोगों की सलाह पर कानपुर स्थित एलिम्को में कृत्रिम पैर बनवाने को अंतिम मुहर लगी. कृत्रिम पैर बनवाने की प्रक्रिया क्या होगी? उसके सहारे कैसे चला जायेगा? चल भी पाएंगे या नहीं? और भी तमाम सवाल खुद से करते और फिर खुद से ही उनके जवाब देते. एलिम्को में कृत्रिम पैर बन जाने के बाद वहाँ ही चलने-चलाने का अभ्यास वहीं के चिकित्सकों एवं अन्य योग्य स्टाफ की देखरेख में किया जाता है. सम्बंधित व्यक्ति के चलने सम्बन्धी दोषों को पूरी तरह समाप्त करने के बाद वहाँ से जाने की अनुमति मिलती है.

एलिम्को पहुँचने के बाद लगा कि एकमात्र हम ही ऐसी स्थिति से पीड़ित नहीं हैं. चार-पाँच साल की मासूम बच्ची को वहाँ कृत्रिम पैर लगवाने के लिए आते देखा तो लगभग सत्तर वर्ष की वृद्ध महिला को चलने का अभ्यास करते पाया. कोई युवा एक कृत्रिम पैर के सहारे चल रहा है तो कोई युवती दोनों कृत्रिम पैरों से. किसी ने दुर्घटना में अपना पैर खोया है तो कोई किसी बीमारी के कारण अपंगता का शिकार हो गया. कोई अकेले आ रहा, किसी के साथ उसके वृद्ध माता-पिता, किसी के भाई, किसी का दोस्त. संसार के जितने रंग समझ सकते हैं, एलिम्को के भीतर उतने दिनों में उतनी तरह के दर्द दिखाई दिए.

कृत्रिम पैर बन जाने के बाद लगभग पच्चीस दिन तक नियमित रूप से कृत्रिम पैर द्वारा चलने का अभ्यास करने वहाँ जाना पड़ा. इसके लिए जीजा जी हमारे सारथी बने और जिज्जी उसी तरह से मातृत्व भाव से देखभाल करने में तत्पर रहीं जैसे कि हमारे बचपन में रहती थीं. कब जूस पीना है, कब कुछ खाना है, कितनी देर चलने का अभ्यास करना है, कितनी देर आराम करना है, किस तरह चलना है, सही चलना हो रहा या गलत इसका ध्यान जीजा जी-जिज्जी द्वारा ऐसे रखा जाता जैसे कोई बच्चा घुटनों चलने के बाद खड़े होकर चलना सीख रहा हो. वैसे सही में ऐसा हो भी रहा था.

कभी मैदान पर पाँच हजार, दस हजार मीटर की दूरी को हँसते-हँसते नापने वाला एथलीट एलिम्को स्थित दो स्टील बार के सहारे दर्द को पीते हुए चलने का अभ्यास कर रहा हो तो उसकी देखभाल एक बच्चे की तरह ही होगी. एलिम्को से निकलते ही सच्चे साथियों की संख्या में दो साथियों की वृद्धि हो गई. अब कृत्रिम पैर और छड़ी भी आजीवन सच्चे साथियों में शामिल हो गए थे. इन दो साथियों ने न केवल चलने में मदद की वरन दाहिने पैर के एक पल को भी बंद न होने वाले बेइन्तिहाँ दर्द से दोहरे होते शरीर को संतुलित बनाये रखने में भी अपना सहयोग दिया.

ज़िन्दगी कब क्या दिखाए, कहा नहीं जा सकता है. एक पल में देखे-बुने सपने ध्वस्त हो जाते हैं. अचानक से वह स्थिति सामने खड़ी हो जाती है, जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं होता है. जीवन की यही अनिश्चितता व्यक्ति को यदि डराती है तो उसे आगे बढ़ने का हौसला भी देती है. उसके भीतर जिजीविषा का संचार करती है. कल क्या होगा, अगले पल क्या होगा इसके बारे में महज पूर्वानुमान किया जा सकता है. अपने इसी पूर्वानुमान को सच करने के लिए वह निरन्तर प्रत्यनशील रहता है. जागती आँखों से सपनों को देखना और फिर उनको सच करने के लिए लगातार प्रयासरत रहना ही किसी भी व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बन जाता है. ऐसे ही अनेक सपने सच करने की कोशिश में वहाँ तमाम लोगों को देखा. हमारी भी ऐसी ही कोशिश लगातार जारी है.

Saturday, 4 April 2015

बाल मन की वो नादानी


बचपन के आरम्भिक दिन किराये के मकान में गुजरे. मकान, मकान-मालिक, मोहल्ला, मोहल्लावासी इतने अच्छे और भले थे कि जब तक हम लोग वहाँ रहे महसूस ही नहीं हुआ कि हम लोग किरायेदार हैं. वैसे भी तब हमारी समझ में थी ही नहीं मकान-मालिक और किरायेदार की अवधारणा. हमें तब भी वह मकान अपना सा लगता था, आज भी उस मकान को छोड़े तीन दशक होने को आये पर अपना सा ही लगता है. और लगे भी क्यों नहीं, एक हमने ही नहीं हमारे परिवार के बहुत से लोगों ने अपना बचपन, जवानी उसमें गुजारी है. हम भाई-बहिनों ने उसी आँगन में, उसी छत पर दौड़ना, चलना, गिरना सीखा.

हमारे मकान-मालिक अपने समय के जाने-माने अधिवक्ता थे. पैतृक संपत्ति की कोई कमी नहीं थी. गाँव भी पास में था. अच्छी खासी खेतीबाड़ी थी. उरई स्थित उनका बड़ा मकान इसका उदाहरण भी था. इसके साथ ही उनकी सम्पन्नता को इस रूप में समझा जा सकता था कि उस समय वे एम्बेसडर कार के मालिक भी हुआ करते थे. उनका अपने स्वभाव के विपरीत अदालत जाना, गाँव जाना, बाजार जाना आदि कार से ही हुआ करता था. स्वभाव के बारे में आम धारणा यह बनी थी कि वे कंजूस प्रवृत्ति के हैं. न सिर्फ उनके लिए बल्कि उनकी पत्नी के लिए भी मोहल्ले में ऐसी धारणा बनी हुई थी. उम्रदराज होने के कारण वे दोनों लोग मोहल्ले में बहुतों के चाचा-चाची थे और हम बच्चों के बाबा-दादी हुआ करते थे. हम उनको वकील बाबा कहकर पुकारते थे. 

परिवार के नाम पर उनके दो भाई और इनका भरा-पूरा परिवार उरई में ही आमने-सामने निवास करता था पर वे दोनों जन परिवार के नाम पर दो ही प्राणी थे. उनकी उम्र का तकाजा था या फिर उनकी प्रवृत्ति की वास्तविकता, एक दिन पता चला कि वकील बाबा ने अपनी सफ़ेद एम्बेसडर बेच दी. अब उनका स्थानीय यातायात का साधन साइकिल हो गया. यदाकदा उनकी कार में घूमने के कारण उनकी कार का न रहना बुरा लगा. ये भी बुरा लगा कि अब कार में घूमना नहीं हो पायेगा. बालमन, जो आर्थिक ताने-बाने को समझता न था, एक दिन हमने घर आकर अम्मा से कहा, वकील बाबा ने अपनी कार बेचकर साइकिल खरीद ली है. पिताजी से कहो कि अपनी साईकिल बेचकर कार खरीद लें. अम्मा ने उस समय हँसकर बहुत लाड़ से सिर पर हाथ फिरा दिया. बाद में जिस-जिसने हमारी बात को सुना, खूब हँसा. अम्मा के साथ-साथ बाकी लोगों के हँसने का कारण तब तो समझ नहीं आया मगर जब कार-साइकिल का अर्थ हमें खुद समझ आया तो अपने उस बालमन के समीकरण पर खुद भी हँसे बिना न रहा गया.

Monday, 23 March 2015

पहली बार रक्तदान वो भी डरते-डरते


रक्तदान करके खुद में बड़ा सुखद अनुभव होता है. आज हॉस्टल का वह समय याद आ गया जबकि पहली बार रक्तदान किया था. समय रहा होगा कोई सन 1990 का दिसम्बर महीने का या सन 1991 का जनवरी का. पहली बार रक्तदान करने जाना, मन ही मन एक डर. डर इस बात का कतई नहीं था कि रक्तदान से कोई दिक्कत हो जाएगी या फिर रक्तदान करने से किसी तरह की कमजोरी आ जाएगी. इसके ठीक उलट डर लग रहा था अपनी पहचान सामने आ जाने का. भय था खुद को पहचान लिए जाने का. डर था परिजनों को मालूम चलने पर पड़ने वाली डांट की सम्भावना का.

घर से बाहर ग्वालियर में स्नातक की पढ़ाई हॉस्टल में रहकर कर रहे थे. ग्वालियर में चाचा, मामा रह रहे थे. ऐसे में लगा कि यदि समाचारों में निकल आया तो कहीं डांट न पड़े. असल में हम लोगों को प्रोत्साहित करने को बताया गया था कि जो लोग रक्तदान करेंगे उनका नाम, फोटो अख़बार में निकलेगा. उस समय रक्तदान को लेकर जागरूकता आज की तरह नहीं थी. उस समय ऐसा लगता था जैसे रक्तदान करने के बाद महीनों की दिक्कत हो जाएगी. न जाने कितनी कमजोरी आ जाएगी. हमको ऐसी किसी भ्रान्ति की समस्या नहीं थी. थोड़ा बहुत पढ़ रखा था, थोड़ा बहुत समझ लिया था. इतना समझ चुके थे कि समय-समय पर, नियमित अन्तराल पर रक्तदान करने से शरीर में रक्तकणों, प्लाज्मा आदि के बनने की प्रक्रिया तेज हो जाती है. रक्त की रवानी, शुद्धता बढ़ जाती है. शरीर में ताकत, स्फूर्ति आ जाती है. आज की तरह रक्तदान शिविरों का आयोजन तब नहीं हुआ करता था. तब शिक्षकों, चिकित्सकों आदि की तरफ से भी बहुत ज्यादा कुछ बताया-समझाया नहीं जाता था. तकनीकी भरा दौर उस समय ऐसा नहीं था कि जानकारी सहजता से हर हाथ को मिल जाए.

बहरहाल दिमाग में कोई समस्या नहीं थी और मन भी बना लिया था, सो जयारोग्य हॉस्पिटल में संचालित शिविर में पहुँचे. वहाँ आवश्यक कार्यवाही हेतु जानकारी माँगी गई तो नाम, पता, उम्र, कॉलेज, क्लास आदि सबकुछ गलत भरवा दिया. गनीमत रही कि हमसे परिचय-पत्र नहीं माँगा गया. शरीर दुबला-पतला था किन्तु उनके अपेक्षित वजन को पार कर लिया. अपने पहली बार रक्तदान में एक दिक्कत वजन को लेकर भी लग रही थी. बाकी सब बातें दुरुस्त पायी गईं और हमने जीवन में पहली बार रक्तदान किया. हमें खुद को छोड़कर बाकी सबकुछ फर्जी ही था सो वहाँ से अपना कर्तव्य निर्वहन करते ही जल्दी से भागे कि कहीं कोई परिचित का न मिल जाये. जिस काम के लिए गए थे, वो हो गया. आंतरिक ख़ुशी महसूस हुई. साथ ही संतोष इसका हुआ कि किसी को पता भी नहीं चला. उस दिन उस बात से और भी संतोष मिला कि मीडिया के लोग वहाँ नहीं थे. उसी दिन नियमित रूप से वर्ष में दो-तीन बार रक्तदान करने का निश्चय कर लिया, जो आज तक बना हुआ है. इस निश्चय को तब और बल मिला जबकि खबर पढ़ने को मिली कि विश्वस्तरीय एथलीट अपनी किसी प्रतिस्पर्द्धा में जाने के कुछ घंटे पहले अपना ही रक्त निकलवा कर पुनः चढ़वा लेते हैं. ऐसा करने से उनके शरीर में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार उनमें सक्रियता भर देता है.

वर्ष 1991 से अभी तक मात्र दो वर्ष 2005 और 2006 ऐसे निकले जबकि हम अपनी शारीरिक दिक्कत के चलते रक्तदान नहीं कर सके. आश्चर्य की एक और बात आपको बताएँ कि हमने अपनी मूल पहचान के साथ पहली बार सन 1996 में रक्तदान किया था जबकि हम परास्नातक की शिक्षा पूरी कर चुके थे. एक बार रक्तदान शिविर में पंजीकरण फॉर्म भरवाते समय झाँसी से आई टीम के सदस्य ने रक्तदाता की जानकारी भरने वाले फॉर्म को भरते समय पूछा कि कितनी बार रक्तदान कर चुके हैं? हमने उसे इंकार की मुद्रा दिखाई तो उसने संख्या भरना आवश्यक बताया. उसके ऐसा कहते ही हमने कहा कि यदि ऐसा है तो संख्या का अनुमान आप लगा लो, हम सन 1991 से लगातार रक्तदान कर रहे हैं. हमारे ऐसा कहते ही उसने कहा क्या सौ बार? उसके इस वाक्य पर हमने मुस्कुराकर इतना ही कहा ऐसा न कहिये, बहुतों को समस्या हो जाएगी यहाँ. ऐसा जवाब सुनकर उसने मुस्कुराकर हमारी तरफ देखा और फॉर्म में अपेक्षित जगह कोई संख्या भर कर फॉर्म हमारे हस्ताक्षर के लिए सामने सरका दिया. हमने भी सिर्फ हस्ताक्षर करने पर ध्यान दिया और आगे बढ़ गए.

संख्या पर दिमाग जब इतने सालों में नहीं दौड़ाया तो यहाँ क्या दौड़ाना? दरअसल संख्याबल की मारामारी बहुत देखने को मिल रही है विगत कुछ समय से. पता नहीं कैसे याद रह जाती है गिनती? कुछ तो ऐसे भी मिले जिन्होंने शायद ही कभी रक्तदान किया हो पर वे प्रशासनिक संबंधों के चलते सर्वाधिक रक्तदान का इनाम तक हासिल कर चुके हैं. हाँ, एक बात अवश्य है कि ऐसे किसी कैम्प में हम रक्तदान करने से बचते हैं. इसके पीछे हमारा मानना है कि एक बार रक्तदान आपको कम से कम तीन माह के लिए प्रतिबंधित कर देता है. ऐसे में किसी जरूरतमंद को आवश्यकता पड़ने पर मजबूर होने के सिवाय कुछ हाथ नहीं रह जाता.

फ़िलहाल तो अपनी रक्तदान करने की संख्या याद भी नहीं और न ही कोई मंशा है याद रखने की. इसके पीछे हमारा मानना है कि यदि दान किया जा रहा है तो गिनती करके उसके महत्त्व को कम नहीं करना चाहिए. वैसे भी हमारे लिए गिनती याद करना इसलिए भी उचित नहीं क्योंकि हम अपनी गिनती का पुराना हिसाब खुद अपने ही ऊपर खर्च कर चुके हैं, सन 2005 में.