बचपन का वो दौर
सिर्फ मौज-मस्ती का दौर, शरारतों का दौर, शैतानियों का दौर था. आज की तरह न घुटन
भरा माहौल, न आज की तरह पढ़ाई का अनावश्यक बोझ. बचपन का अर्थ तब
विशुद्ध बचपन ही होता था. मासूमियत, भोलापन, नादानी से सजा-संवरा बचपन. आज के बच्चों की तरह गैजेट्स से सुसज्जित नहीं था
सो आज के बच्चों की तरह बुजुर्गियत भी नहीं थी. तब कोई भी नई चीज कौतूहल का केंद्र
हुआ करती थी. घर की साइकिल कौतुहल थी, तो वकील बाबा की एम्बेसडर
कार भी आश्चर्य थी. घर में जालीदार एंटीना लगा रेडियो अचरज की विषय-वस्तु थी तो टीवी
महाअजूबा के रूप में प्रकट हो गया.
घर में रेडियो था, जो किंचित आरम्भिक आश्चर्यबोध के पश्चात् गर्व
की अनुभूति करवाने लगा. इसके पीछे कारण ये था कि तब मोहल्ले में आसपास रेडियो न के
बराबर थे. एक ऐसे डिब्बे के बीच जिसमें बोलने-गाने वाला दिखाई नहीं दे रहा हो कोई ऐसा
बड़ा डिब्बा देखने को मिल जाये जिसमें गाने वाले, बातचीत करने
वाले सामने दिख रहे हों तो उसे दुनिया का अजूबा ही समझा जायेगा. इतने छोटे से डिब्बे
में कैसे घुसे होंगे ये लोग? इतने छोटे से डिब्बे में इतने सारे
लोग आये कैसे होंगे? जो लोग दिख रहे, उनके
अलावा बाकी लोग कहाँ छिपे हैं? जिस दिन पहली बार टीवी देखा,
ऐसे न जाने कितने सवाल दिमाग में आते रहे और दिमाग को चकराते रहे. खुद
से ही सवाल करते रहे, खुद को ही जवाब देते रहे. ये शायद 1977-78 की बात होगी, हमारे सबसे बड़े चाचा श्री नरेन्द्र सिंह
सेंगर, हम लोगों के मन्ना चाचा तब कालपी में भारतीय स्टेट
बैंक में सेवारत थे. हमारा बहुत सारा समय मन्ना चाचा के साथ गुजरा. उरई से बहुत पास
होने के कारण या तो चाचा परिवार सहित उरई आ जाते या फिर हम लोग चाचा के पास पहुँच जाते.
चाचा के पास कालपी
जाने पर वहीं इस बुद्धू बक्से से परिचय हुआ. चाचा जी के मकान मालिक अपने समय के धनाढ्य
व्यक्तियों में माने जाते थे. उनको हम बच्चे ताऊजी-ताईजी से संबोधित करते थे. सरल, स्नेहिल स्वभाव के धनी ताऊजी-ताईजी एक ब्लैक-व्हाइट
टीवी के मालिक भी हुआ करते थे. हम लोगों के कालपी पहुँचते ही उस टीवी से उनका और उनके
बच्चों का मालिकाना हक़ समाप्त हो जाता और वह बोलता-बतियाता डिब्बा हमारी संपत्ति हो
जाया करती. नमस्कार के साथ शुरू होने वाला टीवी शुभ रात्रि के साथ ही बंद होता. एकमात्र
दूरदर्शन चैनल होने के कारण सीमित समयावधि में चलने वाले कार्यक्रमों से हम बच्चों
का कोई लेना-देना नहीं होता. बस टीवी देखना होता था सो देखते रहते थे. कृषि सम्बन्धी
चर्चा हो, स्वास्थ्य सम्बन्धी चर्चा हो, सामाजिक विमर्श हो, समाचार हों, गाने हों बस देखना था सो देखना था. लम्बे-लम्बे एंटीना की सहायता से नेटवर्क
पकड़ने का प्रयास किया जाता था. बहुधा कार्यक्रमों में झिलमिलाहट रहती, आवाज़ आती-जाती रहती, चित्र बनते-बिगड़ते रहते इसके बाद
भी उन तीन-चार घंटों के टीवी दर्शन से अत्यंत सुखद अनुभूति मिलती. न विषय की समझ,
न विमर्श की पहचान, न खबरों से वास्ता मगर इसके
बाद भी सबकुछ बहुत अच्छा-अच्छा सा लगता था. हम बच्चों का टीवी दर्शन के साथ-साथ ताईजी
का घरेलू पकवान खिलवाते रहने का प्यार-दुलार भी चलता रहता.
आज जबकि तब के बड़े-बड़े
एंटीनों की जगह छोटी-छोटी छतरियों ने ले ली है; आज जबकि तब के सामान्य से प्रसारण के मुकाबले फुल एचडी फॉर्मेट
में प्रसारण होने लगा है; आज जबकि तब के चंद घंटों के प्रसारण
के मुकाबले चौबीस घंटे प्रसारण होने लगा है; आज जबकि तब के एक
चैनल के मुकाबले सैकड़ों चैनल कार्यक्रम परोसने में लगे हों तब भी टीवी एक पल को वो
सुख-आनंद नहीं दे पाता है जो उस समय मिलता था. चित्रहार के लिए दिन गिनना, सीरियल के लिए पूरे सप्ताह इंतजार करना, नए वर्ष के मनमोहक
कार्यक्रमों का वर्ष भर इंतजार रहना, प्रातःकालीन प्रसारण शुरू
होने के बाद रंगोली को चारपाई में दुबके-दुबके देखना आदि-आदि अपने आपमें स्वर्गिक अनुभूति
देने वाला रोमांच था, जिसकी याद आज भी आनंद के सागर में गोते लगवाती है.
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