घर में पढ़ाई का
माहौल था. बाबा जी ने तो अंग्रेजी शासन में अपने पारिवारिक विरोध के बाद भी अपनी पढ़ाई
को जारी रखा था. बाबा जी बताया करते थे कि घर में जमींदारी होने के कारण उनके बड़े भाई
नहीं चाहते थे कि वे पढ़ें. उनका सोचना था कि गाँव आकर जमींदारी के कामों में उनका सहयोग
करें. ऐसे में बाबा जी की पढ़ने की जिद को उनके पिताजी ने माना और पढ़ने के लिए कानपुर
भेजा. बड़े बाबा जी (बाबा जी के बड़े भाई श्री भोला सिंह जी) अक्सर बाकी जरूरी
सामानों को तो भेज देते मगर पैसे नहीं भिजवाते थे.
ऐसे में खुद को आर्थिक स्थिति से
उबारने के लिए बाबा जी अपने एक मित्र की ट्रांसपोर्ट कंपनी में बिठूर से उन्नाव ट्रक
भी चलाया करते थे. उस समय बनवाया गया लाइसेंस बाबा जी के पास अंतिम समय तक सुरक्षित
रहा, जिसे वे कभी-कभी हम लोगों
को दिखाकर अपने आत्मविश्वास और अपनी कर्मठता को बताया करते थे. बहरहाल उन्होंने अपने
संघर्षों के द्वारा कानून की पढ़ाई पूरी की. बाद में वे सरकारी मुलाजिम बने. उनके चारों
बेटों ने भी उनकी प्रेरणा से उच्च शिक्षा प्राप्त की. हमारी दादी भी शिक्षित थीं और
अम्मा जी को भी बाबा से उच्च शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा मिली.
शिक्षा के प्रति
यह लगाव सांस्कारिक रूप से हमारे भीतर भी विरासतन आ गया. स्कूल में अपने सभी दोस्तों
के बीच पढ़ाई-लिखाई में अव्वल होने के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी पर्याप्त सक्रियता
के साथ आगे-आगे बने रहते थे. यद्यपि घर-परिवार में माना जाता है और खुद हमें भी इस
बात का एहसास होता है कि हमारे स्वभाव में एक प्रकार का संकोचीपन, एक तरह की अंतर्मुखी भावना परिलक्षित होती है.
बचपन में इसकी अधिकता होने के बाद भी स्कूल में प्रति शनिवार भोजनावकाश के बाद होने
वाली बालसभा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया जाता. कभी सञ्चालन करने, कभी भाषण देने, कभी कविता सुनाने, कभी गीत गाने आदि में बहुत उत्साह से भाग लिया जाता. इसके अलावा खेलकूद में
भाग लेना, प्रातःकालीन प्रार्थना के बाद संपन्न होने वाले कुछ
नियमित कार्यों में तत्पर रहना, कक्षा में मॉनिटर बनने में आगे
रहना, स्कूल में होने वाले छोटे-छोटे कार्यों में छात्र-छात्राओं
का नेतृत्व करना भी बखूबी होता रहता. बचपन में जैसे-जैसे संकोची भावना में कमी आती
रही, अंतर्मुखी व्यक्तित्व को निखरने में कुछ सहायता मिली, वैसे-वैसे पढ़ाई के
प्रति रुझान और बढ़ता गया.
उस स्कूल के
बाद भी पढाई का क्रम बना रहा. बाबा जी ने पढ़ाई के महत्त्व को अपनी युवावस्था में
ही जान-समझ लिया था. गाँव की बातें बताते समय वे अक्सर कहा करते थे कि तुम्हारे
पिताजी और चाचा लोगों को गाँव से इसीलिए बाहर निकाला कि वे पढ़-लिख कर कुछ बन सकें.
वे हम सबको बहुत छोटे से ही समझाते रहे थे कि पढ़ाई खूब करना क्योंकि यही दौलत कोई
नहीं छीन सकता. वे यह भी समझाते रहते थे कि कभी भी जमीन-जायदाद के लिए लड़ने की,
रंजिश लेने की आवश्यकता नहीं. पढ़ने-लिखने के बाद उससे कहीं अधिक संपत्ति अर्जित की
जा सकती है. शिक्षा के प्रति उनका अनुशासनात्मक भाव ही कहा जायेगा कि पढ़ाई से कभी
मुँह नहीं चुराया. शिक्षा के प्रति उनके द्वारा जगाई गई ललक ने ही हमें दो विषयों,
हिन्दी साहित्य और अर्थशास्त्र में, पी-एच०डी० डिग्री प्रदान करवा दी.
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