Wednesday, 21 February 2018

बलवंत भैया की कोठी का भूत


उस रात राकेश भाईसाहब के हाथ की टॉर्च एकदम से बंद हो गई. पता नहीं ये टॉर्च की गलती थी या फिर भाईसाहब की घबराहट. भाईसाहब तो पहले से ही वहाँ जाने से घबरा रहे थे. वैसे डराया तो हम सभी को गया था, किसी न किसी रूप में मगर जैसे एक सनक थी वहाँ जाने की. और वहाँ पहुँचकर कुछ देर बाद जब अन्दर से पत्थरों की बारिश होने लगी तो लगा कहीं किसी गिरोह का कारनामा तो नहीं ये? फिर उसी समय सामने से आदमकद सफ़ेद छवि का सामने आना और वापस गायब हो जाना होने लगा. इससे घबराहट अकेले राकेश भाईसाहब पर हावी न हुई, घबराहट तो कहीं न कहीं हम सबमें ही थी, बस उसका अनुपात सभी में अलग-अलग रहा था. 

घबराहट या डर इसका नहीं था कि सामने सफ़ेद आदमकद स्वरूप दिखाई दे रहा था, थोड़ा बहुत भय इसका था कि अन्दर से होती पत्थरबाजी कहीं हम लोगों में से किसी को चोटिल न कर दे. इसके अलावा नवीन और हमारी आकुलता कि सामने वाले पर हमला बोल दो, जो होगा देखा जायेगा. हम दोनों के दोनों हाथों में ही गुप्ती और हॉकी थी. सामने लहराती हुए सफ़ेद आदमकद छवि पर हमला करने को लेकर असमंजस इसलिए भी बना हुआ था कि कहीं हम लोगों में से ही कोई साथी न हो. इस बात का भरोसा ज्यादा था कि कोई साथी ही है क्योंकि अन्दर से आते पत्थर हम लोगों पर न बरसने के बजाय आसपास गिरने में लगे थे. 

इस पत्थरबाजी और उस कथित भूत के दिखने-छिपने के बीच हम लोगों ने अपनी चाय भी पी और साथ लाये गए परांठे भी खाए. चूँकि हम लोग आटा, पानी, तवा, घी आदि सहित अन्य सामानों का बोझ अपने साथ नहीं ले जाना चाहते थे इस कारण परांठे तो हॉस्टल में बना लिए गए, उसके बाद तय हुआ कि चाय कोठी पर ही बनाई जाएगी. ये आसान था, बस साथ में स्टोव ले जाना था, दूध और चाय-शकर. बर्तन के रूप में भगौना और गिलास. देर रात अक्षय भाईसाहब, राकेश भाईसाहब, नवीन और हम अपने हॉस्टल के पीछे स्थित पहाड़ी पर बनी बलवंत भैया की कोठी की चल दिए. हम चारों लोगों के साथ-साथ अतुल भाईसाहब का रोज शाम का नियम था बलवंत भैया की कोठी पर जाने का. एक शाम तय किया कि यहाँ आकर चाय पी जाये किसी रात में. जिस रात का निर्धारण किया गया, उसी शाम अपनी नियमित सैर के दौरान पहाड़िया पर जाकर जगह वगैरह देख ली गई, साँप-बिच्छू आदि से बचाव के साधन अपना लिए गए, जगह को पहले से साफ़ करके चिन्हित कर दिया गया ताकि देर रात पहचानने में समस्या न हो.

रात को पहुँच भी गए अपने तय स्थान पर. स्टोव जलाकर चाय का बनाना शुरू हुआ. चाय बनी, फिर गिलासों में निकाल कर उसका और परांठों का आनंद लिया जाने लगा. उसी समय बलवंत भैया की कोठी के अन्दर से पत्थरों का बरसना शुरू हुआ. इक्का-दुक्का पत्थरों के गिरने तक तो हम लोग आपस में बतियाते हुए चाय-परांठों का स्वाद लेते रहे मगर जब पत्थरों के गिरने की रफ़्तार और संख्या बढ़ गई तो आशंका उठी. आशंका इसकी कि कहीं कोठी के अन्दर कोई गैंग तो नहीं जो हम लोगों के यहाँ होने से अपने को असुरक्षित महसूस करने लगा हो और उसने ये पत्थरबाजी शुरू कर दी हो. इस संशय के बीच अचानक से कोठी के भीतर से एक सफ़ेद छवि सामने आई और कुछ सेकेण्ड के बाद गायब हो गई. गायब क्या हुई होगी, कोठी के पीछे चली गई होगी. इसी दौरान टॉर्च बंद हुई और हम लोगों के हमलावर होने को अक्षय भाईसाहब ने रोका. उसी दौरान वह सफ़ेद छवि फिर प्रकट हुई. इस बार हम लोगों ने उस पर पत्थरों से हमला बोल दिया. इसके बाद वो छवि स्थायी रूप से गायब हो गई.

उसके कुछ देर बाद हम लोग बलवंत भैया की कोठी के आसपास टहल कर, अपनी ही तरह की जासूसी सी करके हॉस्टल वापस लौट आये. उस रात हम लोगों के लौटने पर हमारे कुछ साथी बड़े मूड में दिखे, जिससे एहसास हो गया था कि कोई और नहीं ये सारी शरारत हॉस्टल के ही भाइयों की रही. हालाँकि व्यक्तिगत हमसे कभी किसी ने सीधे तौर पर नहीं बताया मगर उस सफ़ेद छवि के पीछे पप्पू भाईसाहब का होना हम सबके विश्वास में रहा. फिलहाल, उस रात का अपना ही एक अलग रोमांच आज तक गुदगुदा जाता है.

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