नया स्कूल नए दोस्तों
को भी लेकर आया. कक्षा छह से साथ चल रहे कई सारे मित्रों की एक मंडली बन गई थी. पढ़ाई
एकसाथ, लड़ाई एकसाथ, खेलकूद एकसाथ, शरारतें एकसाथ. घरवालों की नजर में,
अध्यापकों की नजर में हम सब बड़े होते जा रहे थे तो इसके साथ ही हमारी
शरारतें, हरकतें अपनी जगह नया विस्तार पाती जा रही थीं. उस दौर
में हम मित्रों को भी शेष भारत की तरह क्रिकेट का शौक चढ़ा हुआ था. कॉलेज में,
कॉलेज से आने के बाद, छुट्टियों में, घर की छत पर, मैदान में, गली में,
कमरे में, कॉलेज के हॉल में, बाड़े में जहाँ-जहाँ मौका मिला वहीं शुरू हो जाती क्रिकेट दे दनादन.
इसी जूनून, मस्ती में उतराते-डूबते हाईस्कूल में आ गए.
उस दिन बोर्ड की प्रयोगात्मक परीक्षा थी, जीवविज्ञान विषय की. फाइल साथ में,
डिसेक्शन बॉक्स का सामान साथ में, पेन-पेन्सिल
सहित प्रयोगात्मक परीक्षा सम्बन्धी बाकी हथियार तो साथ में थे ही. इन सब आवश्यक सामानों
के साथ एक और अनिवार्य सामान साथ में था. जी हाँ, जी हाँ,
आप लोग सही समझे, वो सामान था क्रिकेट का सामान.
ऐसा लगता था जैसे एकबारगी पढ़ाई का सामान भले ही छूट जाए पर क्रिकेट का सामान नहीं छूटना
चाहिए. प्रैक्टिकल देने का जोश, उस पर भी बोर्ड परीक्षा का प्रैक्टिकल
देना था सो जोश के ऊपर भी जोश. बचपन से लेकर अभी तक कभी भी किसी इंटरव्यू, वायवा, परीक्षा जैसी स्थितियों से डर नहीं लगा. जाने
कितने अवसरों पर अपने मित्रों, अपने छोटों को, अपने विद्यार्थियों को समझाया भी है कि यदि कुछ भी न बताने पर परीक्षक जेल
जाने की सजा दे देगा तो डरा भी जाए. इसलिए बिना डरे बेधड़क जो आये वो बताओ, जो न आये साफ़ मना कर दो. इसलिए हमारे साथ ये समस्या, डर वाली, नहीं थी कि प्रैक्टिकल में पूछा क्या जायेगा.
समय से कॉलेज पहुँचे
और सीधे प्रयोगशाला में जाकर प्रैक्टिकल के बारे में जानकारी ली. पता चला कि अभी परीक्षक
नहीं आये हैं. स्पष्ट सन्देश था कि प्रैक्टिकल देर से शुरू होगा. समय का सदुपयोग करने
की सोच हमारी मित्र-मंडली, जिसमें हमारे अलावा अभिनव, संतोष, राजीव, देवेन्द्र
सहित कुछ और मित्र भी शामिल थे, बाहर मैदान में आकर क्रिकेट में जम गई. थोड़ी-थोड़ी देर
में निगाहें कॉलेज की तरफ भी डाल लेते. वहां की चहल-पहल और छात्रों की भीड़ बताने को
काफी थी कि प्रैक्टिकल अभी शुरू नहीं हुआ. दो-चार बार की ताकाझांकी के बाद क्रिकेट
का सुरूर इस कदर चढ़ा कि कब मैदान की छात्रों की भीड़, कॉलेज के आसपास की चहल-पहल ख़ामोशी में बदल गई, पता ही नहीं चला. जैसे ही सन्नाटे की तरफ निगाह गई, हाथ-पैर
फूल गए. सबकुछ भूल सामान समेटा और दौड़ पड़े उस हॉल की तरफ जहाँ प्रैक्टिकल होना था.
देखें क्या कि सारे छात्र तल्लीनता से प्रैक्टिकल देने में लगे हुए हैं.
मे आई कम इन सर? डरती-डरती आवाज़ बड़ी मुश्किल से बाहर निकली.
हाँ, आओ, कहाँ रह गए थे कुमारेन्द्र? सर का शांत, आत्मीय स्वर
भी डर भगा नहीं पाया. हमारी पूरी गैंग चुपचाप हॉल के अन्दर आई. हम सबके हाथों में क्रिकेटिया
हथियार देखा सर और परीक्षक महोदय सबकुछ समझ रहे थे.
इन्हें एक कोने
में टिका दो और अपनी-अपनी कॉपी ले जाओ. सर के आदेश पर हम सब यंत्रवत काम करने लगे. दो-चार आवश्यक निर्देश देकर, प्रैक्टिकल सम्बन्धी कुछ बातों को समझाकर सर
ने हम लोगों को एक लाइन में बैठा दिया.
प्रैक्टिकल समाप्त
हुआ. वायवा भी अच्छे से निपटा. परीक्षक ने हँसते-हँसते कुछ सवाल विषय पर और कुछ सवाल
क्रिकेट पर पूछे. हम सब बड़े आश्चर्य में थे कि न तो सर हम लोगों से नाराज हुए और न
ही परीक्षक ने देर से आने के सम्बन्ध में कुछ कहा. यह बात हमें बाद में पता चली कि
जीवविज्ञान विषय के अध्यापक श्री अनिल कुमार सिंह सेंगर जी रिश्ते में हमारे
मामा जी हैं, हालाँकि वे इस रिश्ते को पहले से जानते थे. शायद सर ने परीक्षक महोदय को यह
बात बता दी होगी.
आज भी किसी परीक्षा
की चर्चा होने पर, आज के बच्चों की परीक्षा सम्बन्धी गंभीरता देखकर अपने मनमौजी समय को याद किये
बिना नहीं रहा जाता. न परीक्षा की चिंता, न कैरियर की परवाह बस
अपनी धुन, अपनी मस्ती.
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