किसी भी बच्चे का
व्यक्तित्व निखारने में शिक्षा के साथ-साथ उसके अभिभावकों, शिक्षकों की महती भूमिका होती है. यह हमारा
सौभाग्य रहा कि प्राथमिक स्तर पर हमें स्कूल भले ही छोटा मिला हो किन्तु सभी दीदियों,
आचार्यों ने जिम्मेवारी के भाव से हम बच्चों को सँवारने-निखारने का कार्य
किया था. स्कूल में प्रति शनिवार होने वाली बालसभा के कारण विभिन्न प्रकार की गतिविधियों
में सक्रिय सहभागिता बनी रहती थी.
यह संभवतः कक्षा
तीन या चार की बात होगी, गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण होना था. स्कूल में तैयारियाँ जोरों से चल रही थीं.
गीत-संगीत वालों का रियाज अलग चल रहा था. भाषण देने वालों को अलग से तैयार किया जा
रहा था. मैदान पर खेलकूद में भाग लेने वालों की तैयारियाँ अलग चल रही थीं. बच्चों की
खेलकूद सम्बन्धी गतिविधियों के लिए मैदान को साफ़ किया जा रहा था. इन सबके बीच स्कूल
के वातावरण में हम बच्चों के बीच एक और बात तैर रही थी कि इस बार के कार्यक्रम में
कोई बाहर से आ रहा है, जिसे मुख्य अतिथि कहते हैं. हम बच्चों
की छोटी सी बुद्धि में ये समझ से परे था कि ये क्या बला आने वाली है, जिसे मुख्य अतिथि कहते हैं. बस इतना समझ आ रहा था कि उन्हीं मुख्य अतिथि के
आने के कारण दीदियाँ समय-समय पर हम सबको समझाती कि उस दिन ड्रेस एकदम साफ़-सुथरी हो.
गीत अच्छे से गाना है. अच्छे से भाषण देना है. सबको अनुशासन से एक लाइन में रहना है.
हर प्रस्तुति के बाद ताली किस ढंग से बजानी है. और तो सब ठीक था, किसी तरह की कोई समस्या नहीं थी पर हमारे लिए अपनी परेशानी का एक कारण ये था
कि ध्वजारोहण के ठीक बाद सबसे पहले भाषण हमारा ही होना था. परेशानी ये भी नहीं थी कि
सबसे पहले हमें बोलना है, आखिर प्रति शनिवार बालसभा के कारण कोई
शर्म, डर, झिझक किसी से नहीं थी. सबसे बड़ी
परेशानी थी तो वो अनजाना शब्द मुख्य अतिथि. पता नहीं ये कौन होगा? ये कैसा होगा? फिर सोचा, है तो
कोई व्यक्ति ही, देखा जायेगा उसी समय.
आखिरकार तैयारियों
के जोश के बीच गणतंत्र दिवस भी आ गया. हम सभी बच्चे, सभी अध्यापक-अध्यापिकाएँ सजे-संवरे अनुशासन के साथ अपनी-अपनी जगह
खड़े हुए मुख्य अतिथि का इंतजार कर रहे थे. कुछ देर बाद हमारे स्कूल के प्रबंधक जी के
साथ कुछ लोगों का आना हुआ. मुख्य अतिथि के रूप में एक बुजुर्ग सज्जन से हम सभी का परिचय
करवाया गया. वे शहर के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, जिनके बारे
में फिर बहुत बाद में विस्तार से पता चला. उनके आने के बाद ध्वजारोहण हुआ. तिरंगे को
सलामी दी गई. तालियाँ बजीं. राष्ट्रगान हुआ. इन सबके तुरंत बाद हमारा नाम पुकारा गया.
एक किनारे कुर्सियों पर बैठे मुख्य अतिथि, अपने स्कूल के प्रबंधक
जी, बड़ी दीदी और अन्य लोगों को नमस्कार करते हुए बताई गई जगह
पर आकर खड़े हुए. माइक के सामने खड़े होकर बोलने का ये पहला अनुभव था. मुख्य अतिथि भी
अपने आचार्यों जैसे, अपने मोहल्ले के उन बुजुर्गों जैसे लगे
जिन्हें हम बाबा कहते थे तो पिछले कई दिनों से चली आ रही एक अनजानी सी घबराहट अपने
आप गायब हो गई. माइक के सामने पूरे आत्मविश्वास, संयम,
जोश के साथ भाषण शुरू किया और उसी लयबद्धता के साथ समाप्त भी किया. खूब
तालियाँ बजीं. देर तक बजती रहीं. सबने खूब तारीफ की.
उसके बाद से आज
तक अनगिनत बार माइक का सामना हुआ. अनगिनत बार बिना माइक के भाषण देना पड़ा. दस-बीस लोगों
के सामने बोलना हुआ. सैकड़ों की भीड़ को भी सम्बोधित करने का मौका मिला. छोटे से गाँव
में जाकर बोलने का अवसर मिला तो देश की राजधानी में वक्तव्य हुआ पर वो पहला भाषण चिरस्थायी
रहा. इसलिए भी क्योंकि भाषण समाप्त होते ही मुख्य अतिथि उठकर हमारे पास आये. पीठ ठोंककर
उन्होंने हमें अपनी गोद में उठा लिया. एक लड्डू हमारी छोटी सी हथेली में रखकर खूब
तरक्की करो, नाम कमाओ का आशीर्वाद दिया. हमारे लिए यह अभी तक का सबसे बड़ा सम्मान और पुरस्कार है.
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