Saturday, 19 September 2015

बाबा आदम के ज़माने का स्कूटर


हमारी पूरी गैंग के घर लगभग एक ही दिशा में थे. जीआईसी से छुट्टी के बाद हम सब एकसाथ ही घर वापसी करते थे. पूरे रास्ते हुल्लड़, मस्ती, शरारतें होती रहतीं. तब आज की तरह न तो बहुत ज्यादा ट्रैफिक हुआ करता था और न ही बाइक के स्टंट. साइकिलों, रिक्शों की ही आवाजाही अधिक रहती थी. इक्का-दुक्का स्कूटर और कभी-कभी कोई मोटरसाइकिल, जिन्हें हम बच्चे फटफटिया कहते थे, दिख जाया करती थीं. लेम्ब्रेटा स्कूटर अपने अजब से हावभाव के कारण आसानी से पहचाने में आता. इसके साथ ही बजाज, प्रिया, सूर्या के स्कूटर भी अपनी उपस्थिति बनाये हुए थे. इन स्कूटरों के बीच बुलेट, येज़दी और राजदूत फटफटियाँ अपनी दमदार आवाज़ के कारण दिल-दिमाग में बसी थीं. इन सबके बाद भी शहर की सड़कें खाली-खाली ही रहती थीं. इसके अलावा तब शहर के नागरिक भी हम बच्चों को सड़क पर पूरा स्पेस देते थे, अपनी शरारतों को संपन्न करने का.

निश्चित सी दिनचर्या के बीच हम मित्रों की कॉलेज से घर वापसी हो रही थी. हा-हा, ही-ही अपने निर्धारित रूप में चल रही थी. आसपास के लोग, दुकान वाले, रिक्शे वाले हम बच्चों के मजाक का निशाना बनते थे, उस दिन भी बन रहे थे. तभी हम लोगों के बगल से एक स्कूटर बिना आवाज़ के निकला. हल्का आसमानी-सफ़ेद रंग का, नई अलग सी डिजाईन का स्कूटर देख हम सब चौंक से गए. चौंकने के कई कारण थे. एक तो अभी तक के चिरपरिचित एकरंग के स्कूटरों से इतर यह स्कूटर दो रंग का था. दूसरे तेज फट-फट आवाज़ के स्कूटरों से बिलकुल अलग लगभग खामोश आवाज़ वाला स्कूटर भी अपने आपमें चौंका रहा था. तीसरे तब के स्कूटरों में पीछे लगी स्टेपनी से इतर इसमें एक तरह का खालीपन भी आश्चर्य में डाले थे. जिस धीमी रफ़्तार से वह स्कूटर बगल से निकला, उससे कई गुना तीव्र गति में ये सब आश्चर्य आँखों के सामने से घूम गए. इस आश्चर्यजनक अकबकाहट में हमारे मुँह से निकल पड़ा, निकल क्या पड़ा चिल्लाहट सी गूँज उठी देखो, बाबा आदम के ज़माने का स्कूटर. 

इसके बाद स्कूटर उतनी ही तेजी से रुका, जितनी तेजी से हमारे शब्द निकले थे. स्कूटर चलाने वाले युवा सज्जन, जिनके बारे में मालूम चला कि बड़े सेठ जी हैं, उतर कर, बड़ी ही रोब-दाब के साथ हम बच्चों को हड़काने लगे. हम सब पूरी मौज के साथ उन सेठ जी की मौज लेने लगे. बात बढ़ते-बढ़ते हाथापाई, पत्थरबाजी जैसी स्थिति तक आने की आशंका दिखाई देने लगी तो आसपास के दुकानदारों ने उनको समझाने की कोशिश की. इस कोशिश में वे पूरी हनक के साथ उस स्कूटर की कीमत बताते हुए ऐसा एहसास दिलाने लगे मानो हम लोगों ने उनके विशिष्ट स्कूटर की घनघोर बेइज्जती कर दी हो.

बहरहाल वे सज्जन खिसियाहट के साथ अपने स्कूटर में बैठे और सेल्फ बटन के द्वारा उसे स्टार्ट कर वहाँ से निकल लिए. रंग, आकार, आवाज़ से अभी तक आश्चर्य में गोते खा रहे हम बच्चों के लिए ये एक और अचम्भा था कि स्कूटर बटन से स्टार्ट होता है, झुका कर किक मारने से नहीं. ये आगे बढ़ता है तो खटर-पटर किये गियर बदले बिना. आँखों में विस्मय की चमक लिए हम बच्चों के मुंह से अबकी एकसाथ फिर वही शब्द बाबा आदम के ज़माने का स्कूटरगूँजे मगर इस बार पिछली बार के मुकाबले और जोर की आवाज़ से. 


Thursday, 17 September 2015

पारिवारिक संस्कारों से मिली प्रेरणा

घर में पढ़ाई का माहौल था. बाबा जी ने तो अंग्रेजी शासन में अपने पारिवारिक विरोध के बाद भी अपनी पढ़ाई को जारी रखा था. बाबा जी बताया करते थे कि घर में जमींदारी होने के कारण उनके बड़े भाई नहीं चाहते थे कि वे पढ़ें. उनका सोचना था कि गाँव आकर जमींदारी के कामों में उनका सहयोग करें. ऐसे में बाबा जी की पढ़ने की जिद को उनके पिताजी ने माना और पढ़ने के लिए कानपुर भेजा. बड़े बाबा जी (बाबा जी के बड़े भाई श्री भोला सिंह जी) अक्सर बाकी जरूरी सामानों को तो भेज देते मगर पैसे नहीं भिजवाते थे. 

ऐसे में खुद को आर्थिक स्थिति से उबारने के लिए बाबा जी अपने एक मित्र की ट्रांसपोर्ट कंपनी में बिठूर से उन्नाव ट्रक भी चलाया करते थे. उस समय बनवाया गया लाइसेंस बाबा जी के पास अंतिम समय तक सुरक्षित रहा, जिसे वे कभी-कभी हम लोगों को दिखाकर अपने आत्मविश्वास और अपनी कर्मठता को बताया करते थे. बहरहाल उन्होंने अपने संघर्षों के द्वारा कानून की पढ़ाई पूरी की. बाद में वे सरकारी मुलाजिम बने. उनके चारों बेटों ने भी उनकी प्रेरणा से उच्च शिक्षा प्राप्त की. हमारी दादी भी शिक्षित थीं और अम्मा जी को भी बाबा से उच्च शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा मिली.

शिक्षा के प्रति यह लगाव सांस्कारिक रूप से हमारे भीतर भी विरासतन आ गया. स्कूल में अपने सभी दोस्तों के बीच पढ़ाई-लिखाई में अव्वल होने के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी पर्याप्त सक्रियता के साथ आगे-आगे बने रहते थे. यद्यपि घर-परिवार में माना जाता है और खुद हमें भी इस बात का एहसास होता है कि हमारे स्वभाव में एक प्रकार का संकोचीपन, एक तरह की अंतर्मुखी भावना परिलक्षित होती है. बचपन में इसकी अधिकता होने के बाद भी स्कूल में प्रति शनिवार भोजनावकाश के बाद होने वाली बालसभा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया जाता. कभी सञ्चालन करने, कभी भाषण देने, कभी कविता सुनाने, कभी गीत गाने आदि में बहुत उत्साह से भाग लिया जाता. इसके अलावा खेलकूद में भाग लेना, प्रातःकालीन प्रार्थना के बाद संपन्न होने वाले कुछ नियमित कार्यों में तत्पर रहना, कक्षा में मॉनिटर बनने में आगे रहना, स्कूल में होने वाले छोटे-छोटे कार्यों में छात्र-छात्राओं का नेतृत्व करना भी बखूबी होता रहता. बचपन में जैसे-जैसे संकोची भावना में कमी आती रही, अंतर्मुखी व्यक्तित्व को निखरने में कुछ सहायता मिली, वैसे-वैसे पढ़ाई के प्रति रुझान और बढ़ता गया.

उस स्कूल के बाद भी पढाई का क्रम बना रहा. बाबा जी ने पढ़ाई के महत्त्व को अपनी युवावस्था में ही जान-समझ लिया था. गाँव की बातें बताते समय वे अक्सर कहा करते थे कि तुम्हारे पिताजी और चाचा लोगों को गाँव से इसीलिए बाहर निकाला कि वे पढ़-लिख कर कुछ बन सकें. वे हम सबको बहुत छोटे से ही समझाते रहे थे कि पढ़ाई खूब करना क्योंकि यही दौलत कोई नहीं छीन सकता. वे यह भी समझाते रहते थे कि कभी भी जमीन-जायदाद के लिए लड़ने की, रंजिश लेने की आवश्यकता नहीं. पढ़ने-लिखने के बाद उससे कहीं अधिक संपत्ति अर्जित की जा सकती है. शिक्षा के प्रति उनका अनुशासनात्मक भाव ही कहा जायेगा कि पढ़ाई से कभी मुँह नहीं चुराया. शिक्षा के प्रति उनके द्वारा जगाई गई ललक ने ही हमें दो विषयों, हिन्दी साहित्य और अर्थशास्त्र में, पी-एच०डी० डिग्री प्रदान करवा दी.